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31 दिसंबर पुण्यतिथि : ‘भुक्खड, फक्कड़ और मस्तमौला’ लोकबंधु राजनारायण

राजनारायण ने वाराणसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया तो घायल शेरनी-सी दहाड़ती घूम रही श्रीमती गांधी ने उन पर कतई रहम नहीं किया और दिग्गज नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाकर उनके सामने खड़ा कर दिया.

-कृष्ण प्रताप सिंह-

आइए, 1980 के लोकसभा चुनाव के एक प्रसंग से बात शुरू करें. 1977 में रायबरेली लोकसभा सीट के प्रतिष्ठापूर्ण मुकाबले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त देकर पदासीन प्रधानमंत्री को हराने का रिकार्ड अपने नाम करने वाले वाले जनता पार्टी के अलबेले नेता राजनारायण ने फिर उनके खिलाफ लड़ने से मना कर दिया. कारण पूछा गया तो बोले, ‘किसी बेकस को ऐ बेदर्द जो मारा तो क्या मारा! मैं उन्हें कोर्ट से भी हरा चुका और वोट से भी! अब यह तो कोई बहादुरी नहीं कि फिर-फिर हराने के लिए उनका पीछा करता रहूं.’

जब कमलापति त्रिपाठी से मांगा विजयश्री का आशीर्वाद

लेकिन उन्होंने वाराणसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया तो घायल शेरनी-सी दहाड़ती घूम रही श्रीमती गांधी ने उन पर कतई रहम नहीं किया और दिग्गज नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाकर उनके सामने खड़ा कर दिया. चुनाव प्रचार शुरू हुआ तों राजनारायण और कमलापति का पहला आमना-सामना बाराणसी के रौहनिया बाजार में हुआ. राजनारायण ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया और विजय का आशीर्वाद मांगा तो कमलापति ने भी हाथ उठाने में देर नहीं की. बताते हैं कि दृश्य कुछ ऐसा था जैसे महाभारत में अर्जुन का बाण पितामह भीष्म के चरणों में आ गिरा हो.

कमलापति त्रिपाठी को ऐसे दी शिकस्त

लेकिन राजनारायण की संतुष्टि के लिए जैसे इतना ही काफी न था. वे आगे बढ़े और कमलापति के कुर्ते की जेब में हाथ डालकर उसमें रखे सारे रुपये निकाल लिये और अपने चुनाव संचालक शतरुद्र प्रकाश की ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘लो, जीप के आज के पेट्रोल का जुगाड़ हो गया!’ कमलापति ने कोई प्रतिवाद नहीं किया. बस, मुसकुराकर रह गये. दूसरे दिन कमलापति के औरंगाबाद मुहल्ले में, जहां उनकी ऐतिहासिक पुश्तैनी हवेली में कभी मुगल शाहजादा दाराशिकोह उपनिषदों का अध्ययन करने आया करता था, राजनारायण की सभा आयोजित थी.

अनोखे वक्ता थे राजनारायण

तब तक विरोधियों पर टमाटर, स्याही और अंडे आदि फेंकने का रिवाज शुरू नहीं हुआ था. लेकिन अचानक हवेली की ओर से पत्थर बरसने शुरू हो गये तो इससे पहले कि सभा में व्यवधान होता, राजनारायण ने माइक हाथ में लिया और बोले, ‘घबराइए नहीं, बहू जी ( अब स्वर्गीय हो चुके लोकपति त्रिपाठी की भार्या) फूलों से हमारा स्वागत कर रही हैं.’ राजनारायण की इस एक टिप्पणी ने पत्थरों की बारिश बंद करा दी. लंबे प्रचार अभियान के दौरान कमलापति त्रिपाठी थकान और रक्तचाप से पीड़ित हो गये. मगर मैदान कैसे छोड़ते? राजनारायण उनका हालचाल लेने गये और शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करके लौट गये तो डाॅ कौशलपति त्रिपाठी ने कमलापति से कहा कि वे कम से कम एक दिन आराम कर लें ताकि बढ़ता हुआ रक्तचाप नियंत्रित हो जाये. लेकिन कमलापति ने कहा, इस रक्तचाप को देखूं या राजनारायण को?’ और अपने अभियान पर निकल गये.

जेल जाने का अनूठा रिकाॅर्ड बनाया

दूसरे पहलू पर जायें तो राजनारायण की यादों को 1977 में सीधे चुनावी मुकाबले में पदासीन प्रधानमंत्री को धूल चटाने के उनके रिकार्ड की बहुत बड़ी कीमत चुकाई पड़ी है. उनके व्यक्तित्व के कई अन्य दिलचस्प पहलू इसके बोझ के नीचे ऐसे दब गये हैं कि कभी निकल ही नहीं पाते. आंदोलनों में सर्वाधिक बार जेल जाने का उनका अनूठा रिकार्ड भी अचर्चित रह जाता है. बहरहाल, कार्तिक महीने की अक्षय नवमी के दिन 25 नवंबर, 1917 को उप्र के वाराणसी जिले के मोतीकोट गंगापुर नाम के गांव में जिस भूमिहार परिवार में अनंतप्रताप सिंह के बेटे के रूप में उनका जन्म हुआ, वह एक समय बनारस के महाराजा रहे चेत सिंह और बलवंत सिंह की वंशपरंपरा में आता और धन व मान की दृष्टि से अपना सानी नहीं रखता था.

राम मनोहर लोहिया अस्पताल में हुआ निधन

लेकिन ‘भुक्खड़, फक्कड़ और मस्तमौला’ समाजवादी नेता से लेकर विधायक, सांसद व केंद्रीय मंत्री तक का जीवन जीने के बाद 31 दिसंबर, 1986 को राजनारायण ने राजधानी दिल्ली के लोहिया अस्पताल में अंतिम सांस ली. वे इतने निःस्व थे कि उनके बैंक खाते में केवल साढ़े चार हजार रूपये थे. कोई आठ सौ एकड़ पुश्तैनी कृषिभूमि का बड़ा हिस्सा उन्होंने दलितों-पिछड़ों को बांट दिया था, क्योंकि वे अपनी विचारधारा के अनुरूप जोतने-बोने वालों को ही कृषिभूमि का मालिक बनाने के पक्ष में थे और खुद को अपनी मान्यताओं का अपवाद बनाना उन्हें गवारा नहीं था. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एमए-एलएलबी तक की शिक्षा प्राप्त की थी.

सोशलिस्ट पार्टी से राजनीतिक पारी की शुरुआत की

1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बनकर उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी शुरू की तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1942 में महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ के नारे के साथ ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ आंदोलन का आह्वान किया तो स्टूडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने नौ अगस्त, 1942 को वाराणसी के चारों ओर का)क्रांतिकारी गतिविधियों का ऐसा बेमिसाल संचालन किया कि गोरी सरकार को उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पांच हजार रूपयों का इनाम घोषित करना पड़ा. 28 सितंबर को पुलिस की गिरफ्त में आये तो 1945 तक जेल में ही रहे.

काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों के प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया

आजादी के बाद भी वे आंदोलनकारी राजनीति से विमुख नहीं हुए. आचार्य नरेंद्रदेव, डाॅ राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए, तो भी आंदोलनों के सिलसिले में अपना एक पैर रेल में तो दूसरा जेल में रखा. 1954-55 में वे इस पार्टी के अध्यक्ष भी बने. वाराणसी में उन्होंने समय-समय पर काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों के प्रवेश और महारानी विक्टोरिया की मूर्ति के भंजन को लेकर आंदोलन चलाये, तो 1952 में पहली बार उप्र विधानसभा का सदस्य निर्वाचित होने के बाद गरीबों की रोटी के लिए विधानसभा को भी सत्याग्रह का मंच बनाने से परहेज नहीं किया.

राजनारायण का हृदय शेर का था

उनकी बाबत डाॅ लोहिया प्रायः कहते थे, राजनारायण का हृदय शेर का है. ऐसे शेर का, जो व्यवहार में गांधीवादी है.’ और ‘देश में उनके जैसे तीन चार लोग भी हों तो कोई तानाशाही उसके लोकतंत्र पर अपनी काली छाया डालने की हिमाकत नहीं कर सकती.’ 1975 में श्रीमती गांधी की तानाशाही ने लोहिया के इस कथन को गलत सिद्ध करना चाहा तो राजनारायण उनके चिर प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे. यहां जानना दिलचस्प है कि वे दर्शन व संस्कृति में भी गहरी दिलचस्पी लेते थे. एक समय वे समाजवादियों के इतिहासप्रसिद्ध पत्र ‘जन’ के संपादक मंडल में रहे, तो वाराणसी से प्रकाशित ‘जनमुख’ साप्ताहिक का संपादन भी किया. उनके निधन के लंबे अरसे बाद 2007 में भारतीय डाक तार विभाग ने उन पर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया.

(संपर्क : 5/18/35, बछड़ा सुल्तानपुर, फैजाबाद (अयोध्या)224001

मोबाइल: 09838950948)

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