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अरविंद केजरीवाल ने रोका नरेंद्र मोदी व अमित शाह का अश्वमेध का घोड़ा, भाजपा के लिए आत्मचिंतन की घड़ी
राहुल सिंह 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद भाजपा का विजय रथ अश्वमेध का घोडा बन गया था, जो बिना रुके हर राज्य को जीतता हुआ आगे बढ रहा था. उसे न तो महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी रोक पायी, न हरियाणा में कांग्रेस और आइएनएलडी. झारखंड में झामुमो, झाविमो और कांग्रेस भी […]
राहुल सिंह
2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद भाजपा का विजय रथ अश्वमेध का घोडा बन गया था, जो बिना रुके हर राज्य को जीतता हुआ आगे बढ रहा था. उसे न तो महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी रोक पायी, न हरियाणा में कांग्रेस और आइएनएलडी. झारखंड में झामुमो, झाविमो और कांग्रेस भी नरेंद्र मोदी व अमित शाह के रथ को रोकने में विफल रहे. जम्मू कश्मीर में भी नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस, भाजपा का रथ नहीं रोक पायी और आज वहां पीडीपी के कंधे पर हाथ डाल भाजपा सत्ता की दहलीज पर बैठी है.
लेकिन, दिल्ली अलग किस्म की जगह है. वहां सच्चे मायने में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, जहां देश के हर राज्य के थोडे बहुत लोग रहते हैं और वे वहां के मतदाता हैं. अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने वहां मोदी व शाह के अध्वमेध के घोडे की रफ्तार न सिर्फ रोकी, बल्कि उसकी लगाम इतनी कस कर पकड ली है कि वह बेदम नजर आ रहा है. नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसलार लोकसभा को जिस तरह विपक्षहीन बनाने की गर्वोक्ति भरते थे, उसी तरह अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा को विपक्षहीन बना दिया. अब जब औपचारिक रूप से विधानसभा का गठन होगा और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेंगे तो यह उनके मन पर निर्भर करेगा कि वे महज चार या पांच सीटें जीतने वाली भाजपा को विपक्ष का दर्जा देंगे या नहीं.
अरविंद केजरीवाल को अपनी इस करिश्माई जीत से मिली जिम्मेवारी का अहसास है. इसलिए वे कह रहे हैं कि अगर हमलोगों ने अहंकार किया तो पांच साल बाद जनता यही हाल हमारा करेगी. उन्होंने कहा कि मैं अकेले कुछ नहीं कर सकता. केजरीवाल ने बडी सरलता व सादगी से कहा कि वे छोटे आदमी हैं, अकेले कुछ नहीं कर सकते. लेकिन, यह भी सच है कि केजरीवाल ने अपनी सहजता, सरलता व आम आदमी के बीच के शख्स के रूप में स्वयं को प्रोजेक्ट कर यह जीत तो हासिल की है, लेकिन इसमें बडा योगदान उनके पोपुलरिज्म का है. यानी वे वादे जो उन्होंने जनता को लुभाने के लिए किये. जैसे, सस्ता पानी बिजली, मुफ्त वाइ फाई सुविधा, झुग्गी वालों को घर व महिला सुरक्षा. महानगरीय जीवन में ये चीजें अहम होती हैं.
अब भाजपा में क्या होगा?
केजरीवाल के इस करिश्मे से भाजपा में आत्ममंथन का सिलसिला शुरू होगा. नरेंद्र मोदी, अमित शाह व अरुण जेटली के हर निर्णय पर भाजपा संगठन का एक खेमा संतुष्ट नहीं है. यह खेमा इस पर अबतक मौन असहमति प्रकट करता रहा है. नि:संदेह इस खेमे का अघोषित नेतृत्व भी भाजपा के अबतक सबसे सफल अध्यक्ष माने जाने वाले राजनाथ सिंह के पास है. लेकिन, सवाल है कि क्या यह मौन नेतृत्व मुखर भी हो सकेगा? भाजपा व सरकार दोनों जगह राजनाथ सिंह की मोदी के बाद वाली स्थिति है, पर उनके पास सरकार में अरुण जेटली और संगठन में अमित शाह की जैसी कार्यकारी शक्तियां नहीं हैं. शायद इसलिए नरेंद्र मोदी के मुखर विरोधी नीतीश कुमार जैसे अहम राजनेता यह टिप्पणी करते हैं कि आडवाणी जी के बाद राजनाथ सिंह को मोदी सलाहकार मंडल में डालने वाले हैं. बहरहाल, यह तो मानना ही चाहिए कि यह हार भविष्य में भाजपा को आत्मचिंतन का मौका देगी और व्यक्तिवादी फैसलों पर संगठन के फैसले थोडे बहुत ही सही हावी हो पायेंगे. इस हार के बाद संघ की सोच एक बार फिर भाजपा के फैसले पर हावी हो जायेगी, यह तो तय है.
जब जब संघ की नहीं मानी, मुंह की खायी
भाजपा के लिएसंघ के सतह पर नहीं आने वाले रणनीतिकार ही रीढ है. रीढ कभी दिखती नहीं, लेकिन पूरा शरीर या ढांचा उसी पर खडा रहता है और उसके बिना शरीर के खडे रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. भाजपा की यही स्थिति है. भाजपा ने जब जब संघ की नहीं मानी उसे मुंह की खानी पडी. 2008 में राजस्थान मेंवसुंधरा राजे के दबंग नेतृत्व में भी भाजपा इसलिए हर गयी, क्योंकि संघ का स्थानीय नेतृत्व राजे की शैली और उनकी बातों से असहम था, इसलिए वह चुनाव के समय थोडा शिथिल हो गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी ने बलपूर्वक संघ नेतृत्व से स्वयं को प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करवाया और संघ आडवाणी द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को सीधे निशाना बनाने से असहम था. संघ की सोच थी कि चुनाव दो व्यक्तित्वों के बजाय दो संगठनों के बीच हो. संघ की सोच नहीं मानने पर 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा हारी. 2015 में दिल्ली में फिर वही हुआ, संघ चाहता था कि चुनाव का नेतृत्व संगठन में तैयार हुए पले, बढे नेता को मिलना चाहिए. पर, मोदी, शाह, जेटली की तिकडी ने पैराशूट सीएम उम्मीदवार किरण बेदी पर दावं खेला. परिणाम सबके सामने है. मनोज तिवारी जैसे भाजपा की नयी पीढ़ी के राजनेता इस फैसले पर अब बडी बारीकी से उंगली उठा रहे हैं. बेचारे तिवारी ने तो किरण बेदी के स्टाइल पर चुनाव से पहले ही उंगली उठायी थी, लेकिन उन्हें तब कुछ ही मिनटों में अपनी बात अदृश्य दबाव में वापस लेनी पडी थी, उम्मीद करनी चाहिए कि अपने भविष्य के लिए नहीं, बलिक भाजपा के भविष्य के लिए वे इस बार ऐसा नहीं करेंगे.
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