नयी दिल्ली : पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर का रविवार सुबह कानपुर में उनके आवास पर हृदय गति रुकने से निधन हो गया. वह 83 वर्ष के थे. उनके निधन से साहित्य के क्षेत्र में शोक की लहर छा गयी. मूलत: मुजफ्फरनगर निवासी गिरिराज किशोर कानपुर में बस गये थे और यहां के सूटरगंज में रहते थे. उनके निधन पर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने शोक-संवेदना व्यक्त की है.
गिरिराज किशोर के परिवारिक सूत्रों ने यह जानकारी देते हुए बताया कि उन्होंने अपना देह दान किया है. इसलिए सोमवार को सुबह 10:00 बजे उनका अंतिम संस्कार किया जायेगा. उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है. तीन महीने पहले गिरने के कारण गिरिराज किशोर के कूल्हे में फ्रैक्चर हो गया था, जिसके बाद से वह लगातार बीमार चल रहे थे.
हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार गिरिराज किशोर के निधन पर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने अपने शोक संदेश में कहा है कि गिरिराज किशोर की कालजयी रचना पहला गिरमिटिया एक अमर रचना है और इस एक कृतित्व के कारण ही वह सृजन संसार में हमेशा अमर रहेंगे. गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास की कहानी को उन्होंने इस कृति में जिस तरह से लिखा है, वह साहित्यिक कृति के साथ ही दस्तावेज के रूप में भी है.
उन्होंने कहा कि गिरिराज किशोर की ख्याति पहला गिरमिटिया की वजह से हुई, लेकिन उन्होंने समानांतर रूप से कहानियां, कई दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यास, कविताएं और नाटकों की भी रचना की हैं. उनकी सभी रचनाएं भाषा, शिल्प और विषय की वजह से साहित्यिक जगत की अनमोल कृति हैं. उपसभापति ने कहा कि उनके निधन से हिंदी साहित्य जगत का एक बड़ा नुकसान हुआ है, जिसकी भरपाई संभव नहीं. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें.
दरअसल, गिरिराज किशोर हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार होने के साथ एक कथाकार, नाटककार और आलोचक भी थे. उनके सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे. इनका उपन्यास ‘ढाई घर’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ. वर्ष 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था.
गिरिराज का जन्म आठ जुलाई, 1937 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फररनगर में हुआ था. उनके पिता जमींदार थे. गिरिराज ने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया और स्वतंत्र लेखन किया. वह जुलाई, 1966 से 1975 तक कानपुर विश्वविद्यालय में सहायक और उपकुलसचिव के पद पर सेवारत रहे तथा दिसंबर, 1975 से 1983 तक आईआईटी कानपुर में कुलसचिव पद की जिम्मेदारी संभाली.
राष्ट्रपति द्वारा 23 मार्च 2007 में साहित्य और शिक्षा के लिए गिरिराज किशोर को पद्मश्री पुरस्कार से विभूषित किया गया. उनके कहानी संग्रहों में ‘नीम के फूल’, ‘चार मोती बेआब’, ‘पेपरवेट’, ‘रिश्ता और अन्य कहानियां’, ‘शहर -दर -शहर’, ‘हम प्यार कर लें’, ‘जगत्तारनी’ एवं अन्य कहानियां, ‘वल्द’ ‘रोजी’, और ‘यह देह किसकी है?’ प्रमुख हैं.
इसके अलावा, ‘लोग’, ‘चिडियाघर’, ‘दो’, ‘इंद्र सुनें’, ‘दावेदार’, ‘तीसरी सत्ता’, ‘यथा प्रस्तावित’, ‘परिशिष्ट’, ‘असलाह’, ‘अंर्तध्वंस’, ‘ढाई घर’, ‘यातनाघर’ उनके कुछ प्रमुख उपन्यास हैं. महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीकी अनुभव पर आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ ने उन्हें साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान दिलायी.
उनके निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर छा गयी है. वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ने गिरिराज किशोर के निधन पर शोक जताते हुए कहा कि आज गिरिराज जी चले गये. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे. कहानीकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने शोक संदेश में लिखा कि साहित्य में हर तरह की पहल को लेकर उनका उत्साह विरल था. 75 की उम्र में इंटरनेट और ब्लॉगिंग सीखने की उनकी जिज्ञासा चकित करती थी. सही अर्थ में एक गांधीवादी को नमस्कार. हम सब गिरमिटिया हैं जीवन के.