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वक्त के मिजाज के साथ बदलते चुनावी नारे और जुमले, कभी इंदिरा को हटाने, तो कभी सत्ता में लाने के लिए लगे थे ये नारे

डॉ आरके नीरद नारे और जुमले चुनाव के ऐसे पहलू हैं, जिनमें राजनीतिक दलों की सोच और काल-परिस्थिति के अक्स पूरी शिद्दत से उतारे जाते हैं. इसे चूंकि हर बार चुनावी समीकरण और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं. इसलिए चुनावी नारे और जुमले भी बदल जाते हैं. इन नारों में समय और समाज का मिजाज भी […]

डॉ आरके नीरद
नारे और जुमले चुनाव के ऐसे पहलू हैं, जिनमें राजनीतिक दलों की सोच और काल-परिस्थिति के अक्स पूरी शिद्दत से उतारे जाते हैं. इसे चूंकि हर बार चुनावी समीकरण और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं.
इसलिए चुनावी नारे और जुमले भी बदल जाते हैं. इन नारों में समय और समाज का मिजाज भी छिपा होता है. जिस देश में 1977 में ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ के नारे ने केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को उखाड़ फेंका, उसी देश में 1980 के चुनाव में ‘आधी रोटी खायेंगे, इंदिरा को जितायेंगे’ के नारे ने सत्ता में उसकी वापसी का रास्ता खोला. चुनावी नारों ने जनता को कुछ दिया हो या नहीं, दलों को अपने पक्ष में हवा बनाने में खूब मदद की है.
1971 में ‘गरीबी हटाओ’, इंदिरा गांधी के इस नारे ने देशभर के गरीबों को पहली बार राजनीतिक सोच की मुख्य धारा से जोड़ा. तब ऐसा करना राजनीतिक परिस्थितियों की दृष्टि से इंदिरा गांधी की विवशता थी, क्योंकि तब रोटी, कपड़ा और मकान जैसे सवालों के साथ दूसरे राजनीतिक दल तो चुनौती दे ही रहे थे, वर्चस्व के सवाल पर कांग्रेस की आंतरिक खींचतान की भी चुनौतियां इंदिरा गांधी को मिल रही थीं. राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे इंदिरा गांधी की लेफ्ट ओरिएंटेड पॉलिसी कहा.
हालांकि जल्द ही इस नारे का आकर्षण खत्म हो गया और लोगों का इससे मोहभंग हुआ. परिणाम हुआ कि कांग्रेस पर ‘गरीबी नहीं, गरीब हटाओ’ की तोहमत भरी जुमलेबाजी हुई. यही हश्र 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के दिये नारे ‘सब के खाते में 15 लाख’ का हुआ. 2014 के आम चुनाव में इस नारे ने लोगों पर खूब असर डाला, मगर बाद में काले धन की वापसी और 15 लाख के सवाल पर जब केंद्र सरकार घिर गयी, तब भाजपा ने ही यह कह कर इसकी हवा निकाल दी कि यह चुनावी जुमला था.
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ने मोदी सरकार के ‘सब का साथ, सब का विकास’ के नारे पर संदेह पैदा कर दिया. अब तो इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ की तर्ज पर इस नारे पर भी ‘सब का साथ, खास का विकास’ की तोहमत भरी जुमलेबाजी की जाने लगी है. एक नारा और भी बेमौत मरता दिख रहा है. वह है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’. इन सबके बावजूद, चुनाव और नारों का रिश्ता कमजोर नहीं हुआ. दरअसल, चुनावी नारों का अपना समाजशास्त्रीय और यथार्थवादी पक्ष भी है.
इनका सामाजिक मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव होता है. यह चुनाव अभियान और कार्यकर्ताओं में जोश पैदा करता है. इसलिए इसमें आक्रामकता का समावेश करने के भरपूर प्रयास होते रहे हैं. इस प्रयास में कई बार इस आक्रामकता ने राजनीतिक मर्यादा और सामाजिक सौहार्द पर सीधा प्रहार किया है. इसके प्रभात भी नकारात्मक हुए हैं, लेकिन चुनावी जुनून में इसकी परवाह तब तक नहीं की गयी, जब तक कि राजनीतिक दलों को इससे नुकसान नहीं पहुंचा.
रोचक संवाद होता रहा है नारों में
सन 60 के दशक में कांग्रेस के खिलाफ जनसंघ पूरी मजबूती से चुनाव मैदान में उतरा था. उसका चुनाव चिह्न् दीपक था. कांग्रेस का चुनाव चिह्न् जोड़ा बैल था. तब जनसंघ ने नारा दिया था : ‘जली झोंपड़ी-भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल’.
कांग्रेस ने इसके जवाब में नारा लगाया : ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं’.
ये दोनों नारे बाद के सालों में भी लोगों के जेहन में गूंजते रहे.

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