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Jehanabad : निजी स्कूलों में ज्यादातर चलती हैं खटारा बसें

जिले के निजी स्कूलों में नयी बसें नहीं चलायी जाती हैं बल्कि उसकी जगह ज्यादातर खटारा बसें ही स्कूली बच्चों को लाने और ले जाने के काम में लगाया जाता है.

जहानाबाद. जिले के निजी स्कूलों में नयी बसें नहीं चलायी जाती हैं बल्कि उसकी जगह ज्यादातर खटारा बसें ही स्कूली बच्चों को लाने और ले जाने के काम में लगाया जाता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अधिकतर स्कूल संचालक अपने स्कूल में बच्चों को लाने और ले जाने के लिए खुद ने बसें नहीं खरीदने हैं बल्कि विभिन्न रूटों पर बस चलाने वाले बस संचालकों से पट्टे पर बसें मंगवाते हैं. उसी से स्कूली बच्चों को ढोया जाता है. इन बस संचालकों को स्कूल के मालिक एक निश्चित मासिक किराया बस संचालन के एवज में देते हैं. यह मासिक किराया इतना कम होता है की कोई भी बस संचालक नयी बस मंगा कर स्कूलों में नहीं दे सकता है. एक पड़ताल के अनुसार स्कूल के मालिकों के द्वारा बस संचालकों को प्रति बस 30 से 35 हजार रुपये प्रति माह दिए जाते हैं. यह राशि बसों में उपलब्ध बैठने की सीट के आधार पर निर्धारित की जाती है. इसी राशि में से बस संचालक को ड्राइवर खलासी का वेतन देना पड़ता है जो 12 हजार से 15 हजार रुपये तक हो सकता है. जबकि नई बसों की मासिक किस्त ही 50 हजार रुपये से लेकर 60 हजार रुपये निर्धारित होता है. इसका निर्धारण बस की क्वालिटी सीट की क्षमता और डाउन पेमेंट के आधार पर किया जाता है. इन बसों की एक साल की इंश्योरेंस राशि ही 60 हजार रुपये से अधिक होती है. ऐसे में बस संचालक प्रति माह मिलने वाले 30 से 35000 रुपए में से वह किस तरह ड्राइवर और खलासी का वेतन साल में इंश्योरेंस, फिटनेस, परमिट, रोड टैक्स, पॉल्यूशन सर्टिफिकेट बनवाने के अलावा चक ग्रेसिंग और अन्य मेंटेनेंस का कार्य करेगा, भगवान ही मालिक है. इस सब के बाद वह नई बस के लिए 60 हजार रुपये की किस्त कहां से जुटायेगा. ऐसे में बस संचालक उन्हें बसों को स्कूलों में चलने के लिए दे देता है जो खटारा हो चुकी होती है और वह रूट में चलने लायक नहीं रहती. उन्हीं बसों को पीले रंग में रंग कर उसे स्कूलों में बच्चों को ढोने के कार्य में लगा दिया जाता है. रूट में बसों को 200 से 300 किलोमीटर चलना पड़ता है. जहानाबाद से पटना या गया की दूरी 50 किलोमीटर है. जबकि हर्बल की दूरी 35 किलोमीटर वहीं बिहार शरीफ की दूरी 60 किलोमीटर के आसपास है. ऐसे में रूट पर चलने वाली बसें एक बार अप डाउन करने पर 100 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय कर लेती है. दो से तीन ट्रिप लगाने पर इन बसों को 200 से 300 किलोमीटर चलना पड़ता है. पुरानी बसें इतनी ज्यादा चलने में सक्षम नहीं होती है इसलिए उन्हें खटारा होने पर स्कूलों में लगा दिया जाता है क्योंकि स्कूल से 5 से 10 किलोमीटर के दायरे से बच्चे को लाया जाता है. ऐसे में इन बसों को प्रतिदिन 20 से 30 किलोमीटर ही चलना पड़ता है. वहीं दूसरी ओर टाटा अशोक लीलैंड आयशर सहित सभी कंपनियां स्कूल के लिए अलग से बसें बनाते हैं. जबकि आम यात्रियों को ढोने के लिए रूट में चलने वाली अलग बसें बनाई जाती हैं. इन स्कूली बसों में आम रूट पर चलने वाली बसों से अलग फीचर होती हैं जो पूरी तरह बच्चों की सुरक्षा के को ध्यान में रखकर बनाई जाती है. टाटा कंपनी के एक अधिकारी के अनुसार स्कूली बसों में बच्चों की सुरक्षा के ख्याल से 26 प्रकार के फीचर दिये जाते हैं. स्कूलों में चलने के लिए इन्हीं स्कूली बसों का परिवहन विभाग में निबंधन होता है. आम रूट की बसों का निबंधन स्कूली बसों के रूप में नहीं किया जा सकता है.

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