भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के वरिष्ठ वैज्ञानिक व महानिदेशक असित साहा ने किया दावा कोलकाता. पूरे देश में बार-बार और बड़े स्तर पर हो रही भूस्खलन की घटनाएं केवल प्राकृतिक स्थलाकृति की वजह से नहीं हो रही हैं, बल्कि इसके लिए वर्षा की बदलती परिपाटी, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण संयुक्त रूप से जिम्मेदार है. यह दावा भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआइ) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने रविवार को किया. जीएसआइ के महानिदेशक असित साहा ने कहा कि हालांकि प्रदूषण भूस्खलन के लिए प्रत्यक्ष कारण नहीं है, फिर भी वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन में प्रमुख योगदानकर्ता हैं, जो भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में वर्षा की परिपाटी को बदल रहे हैं, जिससे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे भूगर्भीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में भूस्खलन का खतरा काफी बढ़ गया है. साहा ने कोलकाता स्थित जीएसआइ के मुख्यालय में एक साक्षात्कार में कहा : भूगर्भीय संरचना, जलवायु परिस्थितियां और बढ़ता मानवजनित दबाव जैसे संयुक्त कारक मिल कर हमारे पहाड़ी क्षेत्रों को भूस्खलन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बनाते हैं. उन्होंने कहा : हालांकि भारत लंबे समय से भूस्खलन के प्रति संवेदनशील रहा है, विशेष रूप से हिमालय और पश्चिमी घाट में, हाल के दिनों में हम भूस्खलन की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता देख रहे हैं, जो प्राकृतिक और मानवजनित, दोनों कारकों की वजह है, जो अक्सर एक साथ मिलकर काम करते हैं. इसी तरह, हिमालय के ऊपरी इलाकों में नदी घाटियों में भूस्खलन के कारण अक्सर हिमनद झीलों का निर्माण और बाद में उनमें दरार आना गंभीर खतरे के रूप में सामने आया है, जिससे नीचे की ओर बाढ़ और ढलान में अस्थिरता पैदा हो रही है. साहा ने कहा : कुल मिला कर, हम कह सकते हैं कि भारत में भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि, बदलते जलवायु पैटर्न और बढ़ते मानवीय हस्तक्षेपों का परिणाम है, जो अक्सर ढलानों को अस्थिर करने के लिए मिलकर काम करते हैं. भारत की पहाड़ियों और पर्वतों में भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि के संभावित कारणों पर विस्तार से बताते हुए भूवैज्ञानिक ने कई कारण गिनाये. साहा ने कहा : इन क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से खड़ी ढलानें हैं, जो चट्टान, मलबे या मिट्टी के गुरुत्वाकर्षण के प्रति अधिक संवेदनशील हैं. यहां तक कि मामूली गड़बड़ी, चाहे प्राकृतिक हो या मानव-जनित, ऐसी ढलानों को अस्थिर कर सकती है. उन्होंने कहा : दूसरी बात, इनमें से कई क्षेत्र टेक्टोनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र हैं. यहां की भूवैज्ञानिक संरचनाएं अक्सर युवा, खंडित और अत्यधिक अपक्षयित होती हैं, जिससे वे संरचनात्मक रूप से कमजोर हो जाती हैं और तीव्र वर्षा या भूकंपीय गतिविधि के दौरान टूटने की अधिक संभावना होती है. साहा ने इनके अलावा, भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि के पीछे माॅनसूनी बारिश की बड़ी भूमिका की ओर इशारा करते हुए अस्थिर ढलानों पर निर्माण की मानवीय गतिविधियों को भी जिम्मेदार ठहराया, जिससे प्राकृतिक जल निकासी व्यवस्था बाधित हुई और भूभाग अस्थिर हो गया. उन्होंने कहा : भारतीय माॅनसून की विशेषता यह है कि लंबे समय तक या भारी वर्षा होने से मिट्टी और चट्टानों में नमी की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे छिद्रों पर दबाव बढ़ जाता है और उनके एक दूसरे से जुड़े रहने की क्षमता क्षीण हो जाती है, जो दोनों ही भूस्खलन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. भूविज्ञानी ने कहा : इसके अलावा मानवीय गतिविधियों की भी भूमिका है जैसे विकासात्मक गतिविधियां, वनों की कटाई, सड़क निर्माण तथा मौजूदा बुनियादी ढांचे का विस्तार, विशेष रूप से अस्थिर या गैर-इंजीनियरिंग ढलानों पर, जो कई बार प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित करते हैं व भूभाग को और अधिक अस्थिर बनाते हैं. उन्होंने कहा कि भूवैज्ञानिकों ने अपने राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण (एनएलएसएम) कार्यक्रम के तहत जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश से लेकर उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश तक पूरे हिमालयी क्षेत्र में कई क्षेत्रों की पहचान की है, जो भूस्खलन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील हैं. साहा ने बताया कि वैज्ञानिकों ने प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी घाटों, विशेषकर केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र व तमिलनाडु में नीलगिरि और कोंकण तट जैसे क्षेत्रों को भी उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया है.
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