कल्पना कुमारी
बस से उतर कर वह पगडंडी पर चलने लगी थी. मन अम्मा की बीमारी में उलझा हुआ था. पति के शहीद हुए साल भी नहीं गुजरा है और अब अम्मा साथ छोड़ देने की जल्दी में है. ’19 साल की उम्र में ही कैसे-कैसे दिन दिखा रहा है भगवान!’ लंबी सांस लेकर दीपा जैसे आगे की विपत्ति से लड़ने की योजना बना रही थी. तभी अचानक से गंदी फब्तियां कानों में जहर घोल गयीं. रही-सही कसर सुरीली सीटियों ने पूरी कर दीं. सामने देखा, तो तीन-चार शोहदों का ग्रुप उसकी ओर वहशी नजरों से देख रहा था.
उनके चेहरे देख कर दीपा को अनायास याद आया कि ये वहीं लड़के थे, जो ‘भारत माता की जय’….’ वीर सपूत अमर रहे’… जैसे नारे लगानेवालों में सबसे आगे थे, जब उसके पति की लाश तिरंगे में लिपटी हुई आयी थी. आज उन्हीं मनचलों के मुंह से ‘छमिया जरा इधर भी तो देख, तेरा आशिक कितना है रे!’, ‘ओ जाने मन अपनी जवानी यूं ही खपा दोगी क्या?’ जैसे व्यंग्य बाण चला रहे थे.
अब तक चुपचाप चलती जा रही दीपा की सहनशक्ति जबाव दे गयी. सास-ससुर की पिलायी घुट्टी ‘सिर झुका कर चलना बेटी, वरना बेवा औरत की जिंदगी आसान नहीं होती’ उसके दिमाग से उतर गयी और अपने शहीद पति की बात कि ‘तुम एक फौजी की बीवी हो, हमेशा इस बात का ख्याल रखना’ उसे याद आने लगा.
‘हां मैं एक फौजी की बीवी हूं.’- उसने मन-ही-मन जैसे ही खुद कहा, मानो उसके पूरे शरीर में करंट दौड़ गया. वह पीछे मुड़ीं और फब्तियां कसनेवाले एक शोहदे को पकड़ कर पूरी ताकत से जमीन पर पटक दिया.
फिर ताबड़-तोड़ उस पर लात-घूंसों की बरसात कर दी. वह तब तक उनकी धुनाई करती रही, जब तक वह अचेत न हो गया. आखिर उसकी पुलिसिया ट्रेनिंग की सारी हुनर कब काम आती. बाकी शोहदों ने जब उस नाजुक-सी बेवा औरत को रणचंडी का अवतार बनते देखा, तो वे फौरन वहां से नौ-दो ग्यारह हो गये. दीपा सीना तान कर चारों तरफ का मुआयना किया. पूरा मैदान खाली हो चुका था. फिर उसने अपने पति को याद किया और दिलासा देते हुए बुदबुदायी- ‘चिंता मत करना. मैं फौजी की बीवी हूं. तुम दुश्मनों को धूल चटा सकते हो, तो मैं भी इन छिछोरों का अक्ल ठिकाने लगा सकती हूं.