II उर्मिला कोरी II
निर्देशक : नीतेश तिवारी
निर्माता: साजिद नाडियादवाला और फॉक्स स्टार स्टूडियो
कलाकार: सुशांत सिंह राजपूत, श्रद्धा कपूर , ताहिर राज भसीन, वरुण शर्मा , सहर्ष शुक्ला, तुषार पांडे , प्रतीक बब्बर और अन्य
रेटिंग: तीन
कॉलेज कैंपस पर फिल्में बनती रही हैं. जिसमे कॉलेज की मस्ती, दोस्ती, मोहब्बत के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा और जीत का जश्न दिखाया जाता रहा है. ‘छिछोरे’ में ये सब तो है ही लेकिन इसके साथ एक और जो बात इस फिल्म की कहानी को खास बनाते हैं. वो ये है कि फिल्म सिर्फ जीत ही नहीं बल्कि असफलता की बात भी करती है. जीत का जश्न मनाने की प्लानिंग हमेशा ही होती है हारने पर क्या करना है यह फिल्म इस पर फोकस करती है. सफलता के बारे में सभी सोचते हैं जिंदगी के बारे में क्यों नहीं. उसकी जवाबदारी क्यों नहीं होती है.
कहानी की बात करें तो अनिरुद्ध दवे (सुशांत सिंह राजपूत )और माया (श्रद्धा कपूर) का तलाक हो चुका है. वे अलग-अलग रहते हैं लेकिन उनका बेटा राघव उनके बीच की कड़ी है. अनिरुद्ध सिंगल पैरेंट बन अपने बेटे का बखूबी ख्याल रखता है. राघव बीच बीच में अपनी मां से मिलने भी जाता है. सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था.
कहानी तब अजीब मोड़ लेती है जब राघव एंट्रेंस एग्जाम परीक्षा में असफल होने के बाद सुसाइड़ करने की कोशिश करता है. अस्पताल में वह जिंदगी और मौत से जूझ रहा है. वह खुद को लूजर समझता है. माता पिता उसके टॉपर है . उस पर बहुत प्रेशर है. बेटे की मानसिक स्थिति को समझते हुए अनिरुद्ध उसे अपने कॉलेज के दिनों में ले जाता है.
कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. सेक्सा (वरुण शर्मा), डेरेक (ताहिर), एसिड़ (नवीन), बेवड़ा (सहर्ष शुक्ला), मम्मी (तुषार पांडे) की कहानी में एंट्री होती है. अनिरुद्ध अपनी कहानी में बताता है कि किस तरह से वह और उसके दोस्त लूजर के नाम से कॉलेज में जाने जाते हैं. वह खुद पर और अपने होस्टल ४ पर लगे इस टैग को हटाने के लिए कॉलेज में स्पोर्ट्स चैंपियनशिप जीसी में भाग लेते हैं क्या वो जीतते हैं क्या वे खुद पर लगे लूजर टैग को हटा सकते हैं. क्या ये कहानी राघव को मौत के मुंह से बाहर निकाल कर फिर से जिंदगी से जोड़ पाएगी यही फिल्म की आगे की कहानी है.
फिल्म कई सुपरहिट फिल्मों की याद भी दिलाता है. शुरुआत में कहानी में थ्री इडियट्स की दिलाता है तो फिर वह जो जीता वही सिंकदर मोड पर चली जाती है लेकिन इसके बावजूद फिल्म आपके उत्सुकता को बनाए रखती है. इसके लिए निर्देशक नीतेश तिवारी की तारीफ करनी होगी.
उन्होंने फिल्म में ह्यूमर के जरिए पूरी कहानी को बयां किया है. जिससे फिल्म थोड़ी लंबी होने के बावजूद बोझिल नहीं करती है. कहानी अतीत और वर्तमान में बहुत ही अच्छे से तरीके आती जाती हैं. दोनों एक दूसरे से कनेक्ट से लगते हैं. फिल्म की कहानी में संदेश भी है लेकिन भारी भरकम भाषण के बजाए हल्के फुल्के कॉमेडी अंदाज में उसी बयां किया गया है. वो खास है. जीत हार मायने नहीं रखता लड़ना मायने रखता है. इस खूबसूरत वाक्य में फिल्म का सार है.
अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह राजपूत अपने किरदार में जमे है. खासकर कॉलेज वाले डेज में वे ज्यादा परफेक्ट लगते हैं. श्रद्धा शर्मा अच्छी लगी हैं. वरूण शर्मा का किरदार नया नहीं है लेकिन वे ऐेसे किरदारों में जमते हैं. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. प्रतीक बब्बर का काम अच्छा है. ताहिर भसीन का अभिनय फिल्म में उनके स्क्रीन प्रेजेंस के तरह की दमदार है. बेवड़ा, एसिड, और मम्मी भी अपने अपने अभिनय से फिल्म में एक अलग ही रंग भरता हैं.
हां, किरदारों का उम्रदराज़ दिखाने वाला मेकअप अखरता है. फिल्म के संवाद बेहतरीन बनें हैं. ये कहानी और ज्यादा इंटरटेनिंग बनाते हैं. संगीत की बात करें तो कोई भी गाना याद नहीं रह जाता है. फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी अच्छी है. कुलमिलाकर मस्ती, मजाक से भरी इस फिल्म में छिपे खास संदेश के लिए फिल्म देखी जानी चाहिए.