कलाकार : जॉन अब्राहम, मनोज बाजपेयी, आयशा शर्मा और अन्य
निर्देशक : मिलाप झावेरी
रेटिंग : 1.5 स्टार
उर्मिला कोरी
खाकी पहने का जिसे हक नहीं, उसे ही खाक में मिलाने आया हूं. जॉन अब्राहम के इसी संवाद के इर्द-गिर्द फिल्म का पूरा सार है. स्वतंत्रता दिवस के मौके का इस्तेमाल कर निर्देशक मिलाप की यह कोशिश निरर्थक नजर आती है.
बॉलीवुड के निर्देशकों के साथ यह परेशानी पहले भी रही है कि बेवजह की देशभक्ति का गुणगान वह दर्शकों पर थोपते आये हैं. सत्यमेव जयते भी उन्हीं में से एक कड़ी है.
इस बार देशभक्ति का ज्ञान पर्सनल कारणों से देने की कोशिश की गयी है. विश्वास नहीं होता कि हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसमें आज भी इस तरह की फिल्म बनाने के बारे में हम कैसे सोच सकते हैं. यह मनोज और जॉन जैसे कलाकारों के नाम पर दर्शकों को ठगा जाना है. अब वह दौर तो नहीं कि दर्शक वहीं पुराने दौर की कहानियों को देखे और फिर उसे वाह वाह कह कर कामयाब भी करार दे.
मिलाप की देशभक्ति का ये आलाप नाकामयाब है. वह हमें फिर से उसी पुराने दौर में धकलने की कोशिश करते हैं, जहां फिल्मों में पिता की मौत का बदला को लेकर सौ से भी अधिक फिल्में बनी हैं. अफसोस तो इस बात का है कि जॉन और मनोज जैसे गम्भीर कलाकारों ने इसे हां कह कर दर्शकों के दिलों में उम्मीद जगा देते हैं कि फिल्म देखने लायक होगी. सच तो यह है कि यह बेहद घिसी-पिटी फिल्मी कहानियों में से एक है.
फिल्म की कहानी दो भाइयों की कहानी है. शिवांश और वीर. वीर पेशे से पेंटर है और शिवांश पुलिस इंस्पेक्टर, एक ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर. फिल्म की कहानी में इस बार मिलाप ने भ्रष्टाचार का पूरा मायाजाल पुलिस प्रशासन को लेकर रचा है. वीर यूं सारे भ्रष्ट पुलिस इंसपेक्टर को एक एक करके चुन-चुन के मारता है, जो किसी भी रूप में भ्रष्ट है. शिवांश को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह सबकी रक्षा करें. शिवांश इस बात से अवगत नहीं कि ये सब उसके भाई की ही करतूत है.
वीर ऐसा किसी खास कारणों से कर रहा है. चूंकि कुछ सालों पहले उसने अपने ईमानदार पिता को एक भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर के जाल में बुरी तरह फंस जाने की वजह से अपने सामने जल कर मरते देखा था. बड़ा बेटा शिवांश तो मान भी चुका है कि उनका पिता गद्दार है, जबकि वह साजिशों का शिकार गयी. तब से वीर एक मिशन पर है और इन्हीं सबके बीच कहानी में मोड़ आते रहते हैं. ऐसी फिल्मों का रोमांच तभी है जब फिल्म में सस्पेंस के थ्रिल को बरकरार रखा जाये. निर्देशक को उस सस्पेंस को खोलने में भी बहुत हड़बड़ी थीं.
फिल्म के साथ सबसे बड़ी परेशानी फिल्म का फार्मूला होना है. 90 के दशक में याद कीजिए किस तरह की मसाला फिल्में बना करती थीं और भारी संवाद हुआ करते थे. इस बार भी मिलाप उसी बनावटीपन में फंसते नजर आये हैं.
जॉन को ऐसे अवतार में हम पहले भी देख चुके हैं. उनकी फोर्स जैसी फिल्में ऐसी ही कहानियों पर थी. एक्शन के नाम पर कुछ भी उठा लेना, बॉडी दिखाना, टायर तोड़ना यह सब पुराने दौर का एक्शन ड्रामा में दिखाए जाने वाले करतब की तरह नजर आये हैं. मनोज बेहतरीन अभिनेता हैं, लेकिन इस फिल्म में उन्हें एक भी दृश्य नसीब नहीं हुआ है जिसमें मनोज मनोज बन कर सामने आयें और कुछ अलग दर्शा पायें.
चूहे बिल्ली के इस चोर पुलिस के खेल में उनका अभिनय भी प्रभावित नहीं करता. अभी कुछ दिनों पहले अय्यारी अायी थी. कुछ कुछ उस फिल्म से भी मिलता है उनका किरदार. इस वजह से भी उनसे नएपन की अपेक्षा न करें. आयशा और अमृता के हिस्से कुछ भी करने के लिए नहीं था. कुल मिलाकर कहानी खास मनोरंजन भी नहीं करती, न ही कोई मेसेज देने में ही कामयाब होती है.