India Exit Ayni Airbase Tajikistan: कभी यह भारत की सामरिक ताकत का प्रतीक था ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे के पास बना आयनी एयरबेस (Farkhor-Ayni Airbase). यह वही जगह थी, जहां भारत ने पहली बार उपमहाद्वीप से बाहर अपनी सैन्य मौजूदगी दर्ज कराई थी. अब कांग्रेस का कहना है कि ताजिकिस्तान से भारत की वापसी, विदेश नीति के लिए “एक और झटका” है. सवाल यही है कि आखिर क्या हुआ कि भारत को अपने पहले और एकमात्र विदेशी एयरबेस से हटना पड़ा?
70 मिलियन डॉलर का सपना और रणनीतिक उम्मीदें
साल 2000 के आसपास भारत ने ताजिकिस्तान के इस पुराने एयरबेस को फिर से खड़ा करने में करीब 70 मिलियन डॉलर खर्च किए. रनवे को 3200 मीटर तक बढ़ाया गया, एयर ट्रैफिक टावर, हैंगर, ब्लास्ट पेन, और नई सुरक्षा दीवारें बनाई गईं. यह बेस भारत के लिए तीन मायनों में अहम इसलिए था क्योंकि इससे मध्य एशिया तक सामरिक पहुंच, अफगानिस्तान के नजदीक बैकअप बेस और पाकिस्तान के प्रभाव का संतुलन. 2010 तक यह बेस पूरी तरह तैयार हो गया. रिपोर्टों के मुताबिक, IAF के जवान, Su-30MKI लड़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर वहां मौजूद थे. लेकिन एक बड़ी बात ये कि कंट्रोल रूस के पास था.
भारत की वापसी की असली वजह क्या थी?
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रंधीर जायसवाल ने हाल ही में बताया कि भारत ने 2022 में ही बेस से वापसी कर ली थी. हालांकि यह साफ नहीं हुआ कि ऐसा क्यों हुआ. विऑन के अनुसार, भारत और ताजिकिस्तान के बीच जो लीज समझौता था, वह 2021-22 में खत्म हो गया. लेकिन कोई औपचारिक संधि या दस्तावेज कभी सार्वजनिक नहीं हुआ. यानी समझौता था तो सीमित और नियंत्रण दूसरे के हाथ में.
VIDEO | Delhi: During a press briefing, MEA spokesperson Randhir Jaiswal (@MEAIndia) responds to a media query on India’s rehabilitation assistance to Tajikistan.
— Press Trust of India (@PTI_News) October 30, 2025
He says, “We had a bilateral arrangement with Tajikistan for the rehabilitation and development of any aerodrome.… pic.twitter.com/IusypJh9cm
India Exit Ayni Airbase Tajikistan: रूस की चाल और चीन की चिंता
जब रूस ने 2012 में अपनी लीज को बढ़ाया, तब से भारत की पहुंच कम होती गई. चीन ने भी भारत की इस मौजूदगी पर स्पष्ट आपत्ति जताई थी. दरअसल, ताजिकिस्तान रूस के सामूहिक सुरक्षा संगठन (CSTO) का सदस्य है यानी पूर्व सोवियत देशों का सैन्य समूह. ऐसे में ताजिकिस्तान न तो मॉस्को को नाराज कर सकता था, न ही बीजिंग को.
‘नहीं चाहिए भारत की मौजूदगी’
रूस और चीन दोनों ही इस बात से असहज थे कि भारत जैसा गैर-क्षेत्रीय देश ताजिकिस्तान में अपनी सैन्य मौजूदगी रखे. 2008 की भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील के बाद यह असहजता और बढ़ी. रूस ने धीरे-धीरे भारत की ऑपरेशनल पहुंच सीमित की और कंट्रोल अपने पास रखकर भारत की मौजूदगी को फीका कर दिया.
अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और भारत की हिचकिचाहट
जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से सेना हटाई तो भारत के लिए आयनी एयरबेस को बनाए रखना कठिन और महंगा सौदा बन गया. रणनीतिक रूप से भी इसका असर घट गया, क्योंकि अब वहां से भारत को कोई सीधा सैन्य फायदा नहीं मिल रहा था. रूस के हाथों में कंट्रोल होने से भारत के लिए यह बेस महज नाम का ठिकाना बनकर रह गया.
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