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बराक ओबामा की विदाई

बीस जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के साथ ही आठ साल लंबे ओबामा दौर को विराम लग जायेगा. इन आठ सालों में अमेरिकी और वैश्विक राजनीति में अनेक महत्वपूर्ण उथल-पुथल हुए. राष्ट्रपति ओबामा के राजनीतिक जीवन पर नजर डालते हुए डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल की खास चुनौतियों के आकलन के साथ इन-दिनों […]

बीस जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के साथ ही आठ साल लंबे ओबामा दौर को विराम लग जायेगा. इन आठ सालों में अमेरिकी और वैश्विक राजनीति में अनेक महत्वपूर्ण उथल-पुथल हुए. राष्ट्रपति ओबामा के राजनीतिक जीवन पर नजर डालते हुए डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल की खास चुनौतियों के आकलन के साथ इन-दिनों की यह प्रस्तुति…

आेबामा की विरासत; ट्रंप की चुनौती दक्षिण एशिया और अमेरिका

ट्रंप प्रशासन की नीतियों के बारे में सही अंदाजा लागाना मुश्किल है. चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की जुमलेबाजी चली, उसे अब या तो एक व्यवस्थित शक्ल दी जायेगी या फिर उसका असली यथार्थ सामने आयेगा. चूंकि ट्रंप बिजनसमैन से राजनेता बने हैं, इसलिए उम्मीद यही की जा रही है कि उनकी सरकार का ज्यादा जोर इसी बात पर होगा कि अमेरिकी आर्थिक नीति की नये तरीके से काट-छांट की जाये और इसके बाद बड़े रणनीतिक कदम उठाये जायें. लग कुछ ऐसा ही रहा है कि अमेरिका अब चीन और रूस की तरह कुछ खास आर्थिक और सामरिक योजनाओं को अपनायेगी. इन संभावनाओं के बीच चर्चा इस बात को लेकर भी है कि अमेरिका उन क्षेत्रीय और आर्थिक नीतियों में परिवर्तन कर सकता है, जो ओबामा प्रशासन के दौरान अमल में लायी गयी हैं.

दक्षिण एशिया को लेकर ट्रंप की विदेश नीति में बड़े बदलाव की उम्मीद अभी किसी को नहीं है. ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति के बावजूद दक्षिण एशिया के ऐसे लोग जो अमेरिका की बेहतर आर्थिक स्थितियों के कारण वहां जाना चाहते हैं, उनके लिए संभव है कि बहुत परेशानियां न हों. हां, यह जरूर है कि अमेरिका की नयी सरकार प्रवासन नियमों में गंभीर बदलाव करे. इस बारे में संकेत मिल रहे हैं कि नयी सरकार एच1बी वीजा के लिए लॉटरी सिस्टम को बदल सकती है. राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव अभियान के दौरान वे जरूर इस बात को कहते थे कि बाहर से आकर लोग अमेरिकियों की नौकरी छीन रहे हैं. पर अब माना यही जा रहा है कि ट्रंप को भी कहीं न कहीं इस बात की समझ है कि देश में प्रतिभाशाली लोगों की जरूरत है.

वैश्विक नजरिये से देखें, तो ज्यादातर दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं या तो बहुत मामूली तरीके से घिसट रही हैं या फिर लुढ़क रही हैं. नयी सूरत में दक्षिण एशियाई कारोबारी घरानों-समूहों को अमेरिकी डॉलर की मजबूती और अमेरिका की सुरक्षात्मक आर्थिक नीतियों के कारण शायद ही कोई संबल मिले. उम्मीद इस बात की भी नहीं होनी चाहिए कि वैसी कुछ संस्थाओं को मिलनेवाली मदद राशि में किसी तरह का कोई इजाफा होगा, जो नेपाल, बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान में विकास कार्यक्रमों में सहायता करते हैं. बहरहाल, जिस तरह वैश्विक आर्थिक परिदृश्य बदल रहे हैं, उसमें दक्षिण एशियाई कारोबारी समूहों को इस बात का इंतजार करना होगा कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीतिक स्थितियों में बदलाव के बीच किस तरह से निवेश और कारोबार की नयी गुंजाइशें शक्ल लेती हैं.

समझना इस बात को भी होगा कि चीन का पाकिस्तान और श्रीलंका में रणनीतिक निवेश आनेवाले दिनों में अमेरिकी प्रशासन के आगे एक बड़ी चुनौती होगी. चीन-पाकिस्तान इकोनाॅमिक कॉरिडोर (सीपीइसी) के तरह शुरू हुई कई परियोजनाएं अभी कई तरह की कानूनी मुश्किलों और भ्रष्टाचार की चुनौतियों से घिरी हैं. इस बीच, कॉरिडोर को लेकर स्थानीय लोगों के हिंसक विरोध को लेकर चीनी निवेशकों के साथ पाकिस्तान सरकार दोनों खासे परेशान हैं. इसी तरह से श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह के पास 15 हजार विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए हुए 99 साल के करार को लेकर भी हिंसक विद्रोह भड़का है. इस तरह से दक्षिण एशिया में बन रहे नये हालात निश्चित रूप से अमेरिकी प्रशासन के ध्यान में होंगे.

अमेरिका के भावी विदेश सचिव रेक्स टिलरसन का चीन को लेकर यह खुला बयान गौरतलब है कि दक्षिण चीन सागर में चीन को किसी नये कृत्रिम द्वीप को बसाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. इसके अलावा भी चीन को लेकर कई भू-राजनीतिक मुद्दों पर संभावित अमेरिकी सख्ती से विश्लेषकों को यह लगता है कि चीन की पड़ोस नीति में आनेवाले दिनों में बदलाव आ सकते हैं. यह बात इसलिए भी कही जा रही है कि रक्षा सचिव के रूप में ट्रंप की पसंद जेम्स मैटिज भी कह रहे हैं कि वे चीन के साथ हर संभव सहयोग को तैयार हैं, पर चीन के अनपेक्षित सलूक के बाद वे अमेरिकी हित में किसी तरह की संघर्ष की स्थिति से भी पीछे नहीं हटेंगे.

दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए यह बात भी खासी अहम है कि ट्रंप प्रशासन आतंकवाद पर क्या टेक लेता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि इस क्षेत्र के ज्यादातर देशों के सामने आतंकवाद बड़ी चुनौती है. हालांकि, ट्रंप ने जरूर पहले हर तरह के आतंक के विरोध की बात की है, परंतु इसके लिए उनकी नीति क्या होगी, इस बारे में उनकी तरफ से अभी तक कुछ भी स्पष्ट नहीं बताया गया है. एक संभावना यह जरूर है कि पाकिस्तान को ट्रंप सरकार इस बात के लिए मजबूर कर सकती है कि वह आतंकवाद को पनाह और समर्थन की अपनी नीति को बदले. इस संभावना को इस बात से भी बल मिलता है कि ट्रंप अब तक अपने ट्वीट्स और बयानों में पाकिस्तान को लेकर खासा सख्त रुख अपनाते रहे हैं.

इसी तरह की एक संभावना अफागानिस्तान को लेकर भी है, जहां हालात अब भी बहुत साफ नहीं हैं. संभव है कि ऐसे में ट्रंप प्रशासन अफगानिस्तान को सैन्य और दूसरे समर्थनों में कटौती की बात सोचे. दिलचस्प है कि जिन 98 आतंकी संगठनों की शिनाख्त अमेरिका ने की है, उनमें से 20 का संचालन अफगानिस्तान से ही हो रहा है.

रही भारत-अमेरिका संबंधों की, तो मैटिज पहले ही कह चुके हैं कि वह भारत के साथ लंबे समय के रणनीतिक सहयोग के पक्ष में हैं. साफ है कि भारत को अमेरिका से शांतिपूर्ण नाभिकीय और सैन्य तकनीक में सहायता मिलेगी. अमेरिका की यह नीति एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा कारणों से काफी अहम है. मैटिज अपनी प्राथमिकताओं में यह भी दर्ज कराते हैं कि वे पाकिस्तान को तालिबान और हक्कानी जैसे आतंकी नेटवर्कों पर कारगर कार्रवाई के लिए भी कहेंगे. यही नहीं, वे पाकिस्तान को मिलनेवाली सैन्य सहायता की भी समीक्षा की बात कह रहे हैं.

हालांकि, ट्रंप समर्थक किसी भी निर्वाचित सदस्य ने इस बात की हिमायत नहीं कि है कि क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता को देखते हुए अमेरिका को पाकिस्तान के खिलाफ बहुत सख्ती दिखानी चाहिए. लिहाजा, नये तरीके से बदल रहे भू-राजनीतिक हालात में जबकि इसलामिक स्टेट की आतंकी चुनौती भी क्षेत्र में बढ़ी है, यह देखना वाकई खासा दिलचस्प होगा कि ट्रंप प्रशासन दक्षिण एशियाई मुल्कों के साथ किस तरह के सलूक को हरी झंडी दिखाता है.

डॉ. ध्रुवज्योति भट्टाचार्य

दक्षिण एशिया के जानकार

मध्य-पूर्व में होगी ट्रंप की अग्निपरीक्षा

इस महीने की 20 तारीख को जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका की बागडोर संभालेंगे, तो चुनावी उक्तियों के परे उनके नेतृत्व की असली और पहली परीक्षा मध्य पूर्व के संकट से निबटने में होगी. भूमंडल के इस क्षेत्र में जो कुछ भी घटित हो रहा है, इसलामिक स्टेट से लेकर ईरान के साथ परमाण्विक समझौते और आगे लीबिया तक उसके प्रत्येक पहलू पर ट्रंप अपना मुंह खोल चुके हैं. यदि उन्हें और उनके शासन को भय तथा निराशा के नजरिये से देखने की वजहें हैं, तो दूसरी ओर उनकी निर्णय क्षमता एवं मुद्दों का सीधा सामना करने की प्रवृत्ति में आशा की किरणें भी देखी जा सकती हैं.

जब तुर्क तथा सऊदी नेताओं समेत कई अन्य भी ट्रंप के विरुद्ध अपनी राय व्यक्त कर रहे थे, मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी मध्य पूर्व के एकमात्र ऐसे नेता रहे, जिन्होंने ट्रंप के चुनाव से काफी पहले ही उनसे संपर्क किया. दूसरी ओर, ईरानी नेतृत्व तथा सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद ने ‘प्रतीक्षा करो और देखो’ की नीति अपनाते हुए कुछ शर्तों के साथ ट्रंप प्रशासन के साथ सहयोग करने की पेशकश की. सीरिया तथा इराक में ओबामा की विफल नीतियों से ट्रंप की निराशा छिपी न थी. ट्रंप इसलामिक स्टेट के दैत्य को जन्म देने के लिए सीधे तौर पर ओबामा को जिम्मेवार करार देने की हद तक जा चुके थे और असद शासन उन्हें उसके विरुद्ध एक प्रभावी शक्ति प्रतीत होती थी.

अब ट्रंप के चुनावी भाषणों का सामना वास्तविकताओं से होने की घड़ी आ चुकी है और मध्य पूर्व के रूप में एक ऐसा जटिल खेल उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, जिसमें उनके विकल्प असीमित नहीं हैं. ईरानियों के खिलाफत करते हुए वे असद शासन के साथ सहयोग नहीं कर सकते, ओबामा की उदासीनता तथा अनिर्णय का अनुसरण करते हुए वे खाड़ी सहयोग काउंसिल (जीसीसी) देशों के दिल नहीं जीत सकते, तुर्की की साझीदारी करते हुए सीरियाई कुर्दों का समर्थन नहीं कर सकते और मिस्र के साथ काम करते हुए वे लीबिया में उसे अलग-थलग नहीं कर सकते.

यदि सीरिया से शुरुआत की जाये, तो ओबामा प्रशासन न केवल वहां अमेरिकी भूमिका, बल्कि एक प्रभावी वैश्विक शक्ति की विश्वसनीयता भी गंवा चुका है. नाटो में शामिल अमेरिका का एकमात्र मुसलिम मित्र देश तुर्की के अलावा सऊदी और यहां तक कि मिस्र को भी गंवा कर उनके बदले वह कुछ भी हासिल न कर सका है. तुर्की के लिए सीरियाई कुर्दों के साथ अमेरिकी सहयोग सबसे आपात्तिजनक मुद्दा रहा, और अपनी दक्षिणी सीमा पर हसाका से अजाज तक एक कुर्द गलियारे को हकीकत में तब्दील होते देख अमेरिका से उसका पूरा मोहभंग हो गया. ‘ऑपरेशन यूफ्रेटीस शील्ड’ नामक उसकी एकतरफा कार्रवाई केवल इस गलियारे की संभावना रोकने के लिए ही चलायी गयी है. यह एक ऐसा उद्देश्य है, जिसे लेकर बशर अल-असद तथा ईरान के बीच एक साझी समझ है. तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआं द्वारा ट्रंप के प्रति सकारात्मक नजरिया रखने की वजह तुर्की में केवल ट्रंप के निवेश ही नहीं, बल्कि यह तथ्य भी है कि ट्रंप कुर्द गलियारे की योजना रोक कर अमेरिका और तुर्की के बीच बन चुकी अविश्वास की दीवार भी गिरा सकते हैं.

अभी इस नतीजे तक पहुंच जाना एक जल्दबाजी होगी कि सीरिया के शतरंज पर अमेरिकी मात खा चुके हैं. अस्ताना शांति प्रक्रिया का प्रारंभ अभी शेष होते हुए भी वह एक महत्वाकांक्षी पहल है, जिसके अंतर्गत तुर्की, ईरान तथा रूस ने एक ऐसा वादा कर दिया है, जिस पर उनका पूरा वश है ही नहीं. रूस असद सेनाओं द्वारा किये जानेवाले युद्ध विराम के हर एक उल्लंघन नहीं रोक सकता, ईरान हिजबुल्ला और अन्य शिया उग्रवादी समूहों को वापसी के लिए बाध्य नहीं कर सकता तथा तुर्की अब सीरिया में शासन के बदलाव या यहां तक कि उसमें क्रमिक बदलाव का वादा भी नहीं कर सकता. बहुत से विद्रोही समूहों ने अस्ताना शांति प्रक्रिया में अपनी सहभागिता स्थगित कर दी है और पूरे सीरिया पर कब्जे के लिए असद की सेना तथा संबद्ध लड़ाका समूहों की आक्रामक सैन्य कार्रवाई जारी है. पर जो कुछ अधिक खतरनाक है, वह यह कि असद शासन अपना नियंत्रण बरकरार रखने के लिए लेबनान के हिजबुल्ला और इराक के अल-नुजाबा द्वारा भरती किये गये गैर राजकीय लड़ाकों को सीरिया में ही रुके रहने पर जोर दे रहा है. चूंकि कोई भी क्षेत्रीय देश हिजबुल्ला नियंत्रित सीरिया का स्वागत नहीं करेगा, अमेरिका तथा उसके क्षेत्रीय मित्रों के लिए असद विरोधी शक्तियों के रूप में सीरियाई विद्रोही समूहों की प्रासंगिकता भी बनी रहेगी.

बशर अल-असद ने ‘प्रतीक्षा करो और देखो’ की नीति ही नहीं अपनायी, बल्कि ट्रंप के साथ सहयोग करने की इच्छा भी जाहिर की. इसकी वजह यह है कि वे उन पर खासकर बरास्ता तुर्की पड़ रहे व्लादिमीर पूतिन के असहनीय दबाव की काट करना चाहते हैं. चूंकि उन्होंने जमीन पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, सो अपनी सैन्य प्रगति को सर्वांग संपूर्ण करने के लिए उन्हें बाहर से और अधिक राजनीतिक समर्थन की दरकार है. अब जबकि अमेरिका का मुख्य मित्र देश तुर्की भी सीरिया में शासन परिवर्तन की कोशिशों से खुद को अलग कर चुका है, ट्रंप के लिए असद के साथ सहयोग करने में कोई हानि नहीं है. अपने नुकसान की भरपाई के लिए ट्रंप प्रशासन के लिए यही अधिक स्वाभाविक रास्ता है कि वह तुर्की के साथ सहयोग करे.

क्या ट्रंप प्रशासन ईरानी परमाण्विक समझौते को सचमुच पलट देगा अथवा क्या ईरान को इस समझौते की फिक्र करने की वस्तुतः कोई जरूरत है? दोनों ही पक्षों को यह यकीन है कि ईरान तथा अमेरिका के बीच संबंधों के सामान्य होने की तत्काल कोई भी संभावना नहीं है. जब तक ईरान की अमेरिकी नीति की बागडोर अयातुल्ला खामेनई के हाथों में है, अमेरिका तथा उसके संबद्ध मित्र देशों को बदलाव की प्रतीक्षा करने तथा फारस की खाड़ी को लेकर अपनी नीतियों में यथास्थिति कायम रखने की जरूरत है. खाड़ी की सुरक्षा तथा स्थिरता की कीमत पर भी ओबामा प्रशासन द्वारा ईरान के तुष्टीकरण से अमेरिका के अरब मित्र देश इतने आतंकित थे कि ईरान को काबू में रखने के लिए उन्होंने 34 सुन्नी देशों के बीच एक सैन्य संधि कर तुर्की को भी खाड़ी सुरक्षा की संरचना का एक हिस्सा बनने का न्योता दे डाला था.

उनके पुतिन समर्थक बयानों के बावजूद ट्रंप की विदेश नीति के लिए मध्य पूर्व उन्हें ओबामा प्रशासन से विरासत में मिलनेवाली सबसे बड़ी चुनौती है. अमेरिकी यह जानते हैं कि रूस अभी भी उनका घोषित शत्रु नहीं, तो सबसे बड़ा सामरिक स्पर्धी तथा विरोधी तो अवश्य ही है. सीरिया के बाद रूस का अगला लक्ष्य मिस्र की मदद से लीबिया में जनरल हफ्तार को मजबूती देकर गद्दाफी के सुरक्षा मॉडल की ओर वापसी भी है. अरब-इजरायल संघर्ष के मामले में इजरायली बस्तियों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अंतिम मतदान से अनुपस्थित रह कर इजरायल को द्वि-राज्य समाधान की ओर धकेलते हुए ओबामा प्रशासन ने एक मुश्किल विरासत छोड़ी है. ट्रंप के सामने अमेरिकी दूतावास को यरुशलम ले जाने का प्रलोभन भी मौजूद है, जिसे कई पक्ष अभी भी एक धोखा ही मानना चाहते हैं. यदि वे ऐसा ही कर देने का फैसला कर लेते हैं, तो वे न केवल महान अमेरिका के नारे को और अधिक अलोकप्रिय बनायेंगे, बल्कि क्वाॅर्टेट तथा सुरक्षा परिषद् की कोशिशों जैसी संघर्ष-समाधान प्रक्रिया में अमेरिकी भूमिका को और भी कमजोर करेंगे.

पर बड़ा सवाल यह है कि ट्रंप प्रशासन को अपनी विदेश नीति में इतना निवेश क्यों करना चाहिए, जब उसके लाभ बिलकुल ही सुनिश्चित नहीं हैं. उसके यूरोपीय साझीदार सीरिया या ईरान में किसी सैन्य हस्तक्षेप में अधिक रुचि नहीं रखते. ब्रिटेन ब्रेक्जिट में उलझा रहेगा और अपने यहां आसन्न चुनावों के चलते फ्रांस तथा जर्मनी मध्य पूर्व में किसी निर्णयात्मक चाल के लिए ट्रंप को प्रायः अकेला ही छोड़ देंगे. स्वयं ट्रंप भी अपने घरेलू एजेंडे में बुरी तरह उलझे होंगे. इस क्षेत्र को अब एक उदासीन और अनिर्णयात्मक अमेरिकी नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है. रूस तथा अपने क्षेत्रीय मित्रों के साथ फैसलाकुन सहयोग से सीरिया तथा इराकी संकट के समाधान कर ट्रंप के लिए ओबामा प्रशासन द्वारा इस क्षेत्र में छोड़े फासले को भरने की पर्याप्त वजहें तथा सुविधाएं हैं, क्योंकि इस क्षेत्र की अन्य समस्याओं की कुंजी भी केवल वहीं मिलेगी.

(अनुवाद: विजय नंदन)

भारत-अमेरिकी संबंधों को मिली मजबूती
पीटर लावॉय, व्हाॅइट हाउस में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् में दक्षिण एशियाई मामलों के वरिष्ठ निदेशक

भारत-अमेरिकी संबंध वास्तव में ओबामा प्रशासन की सबसे सफल कहानियों में से एक है. कई सारे मुद्दों पर भारत के साथ साझेदारी का मजबूत होना और उसका विस्तार होना अमेरिका के लिए बेहद अहम है. जब आप भविष्य की उम्मीदों के बारे में बात करते हैं, तो मुझे लगता है कि सभी संकेत साझेदारी में और मजबूती और विस्तार की ओर इशारा करते हैं. निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा को विरासत में मिले भारत से जुड़े मुद्दे निश्चित तौर पर द्विदलीय थे. राष्ट्रपति बराक ओबामा से उनके वारिस तक हम इस तरह से अपने संबंधों में आगे बढ़ रहे हैं. यह मुद्दा बहुत हद तक द्विदलीय है. इसलिए मुझे लगता है कि अमेरिका में दोनों दलों में भारत के साथ साझेदारी से होनेवाले फायदों समेत अपने हितों को जारी रखने के लिए जो अनिवार्यताएं हैं, उन्हें लेकर भी प्रशंसा का भाव है. मेरा मानना है कि संबंधों की यह यात्रा जारी रहेगी, क्योंकि यह भारत के साथ-साथ अमेरिका के भी हित में है. अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ही इसे जारी रखने और भारत के साथ साझेदारी को मजबूत बनाने के महत्व से परिचित हैं.

जून में अपनी यात्रा के दौरान मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के समक्ष जो भाषण दिया था, उसमें कहा था कि भारत और अमेरिका इतिहास की हिचक से उबर चुके हैं और साझेदारी की राह के रोड़ों को सेतुओं में बदल रहे हैं. मेरे विचार से यह शब्दाडंबर से कहीं ज्यादा है, यह वास्तविक है. बीते आठ वर्षों में हमने अनेक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाया है. ओबामा को भारत के साथ मजबूत संबंध विरासत में मिले थे, जो उनके पूर्ववर्ती जॉर्ज बुश के लिए प्राथमिकता थे. अमेरिका के लिए महत्व रखनेवाला हर एक क्षेत्र इस साझेदारी के तले आता है और मैं भारत में भरोसा रखता हूं. साझा फायदों के लिए राष्ट्रपति ओबामा इन संबंधों को सहयोग के अभूतपूर्व स्तर पर लेकर गये. वर्ष 2009 में जब ओबामा ने पदभार संभाला था तब वॉशिंगटन और दिल्ली के नेतृत्व के बीच भरोसे की भारी कमी बनी हुई थी. यह देख कर मुझे प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि भरोसे की जो कमी थी, वह उल्लेखनीय रूप से खत्म हो गयी.


अब दोनों देशों के नेता, वरिष्ठ अधिकारी आतंकवाद, साइबर सुरक्षा जैसे विभिन्न मुद्दों पर परिचित और भरोसेमंद सहयोगियों की तरह बातचीत करते हैं. यह कुछ ऐसा है, जिससे मेरे विचार से यहां आपका नेतृत्व परिचित होगा, क्योंकि आतंरिक बैठकों में जो कुछ भी होता है यानी इन बैठकों में भरोसे और पारस्परिक सराहना का जो स्तर होता है, उसमें बीते आठ वर्षों में स्पष्ट रूप से बदलाव आया है. इसका श्रेय बहुत हद तक राष्ट्रपति ओबामा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है. उनके पास विचार हैं, वे जानते हैं कि दोनों देशों के हितों को दूसरे देश की ओर से पूरे योगदान के बगैर पूरा नहीं किया जा सकता. वे साझेदारी और संदेह की बाधाओं से आगे बढ़ चुके हैं और एक-दूसरे को संदेह का लाभ देते हैं. आज अमेरिका के महत्व का ऐसा कोई मुद्दा नहीं है, जिसमें हम यह नहीं सोचते कि इसमें भारत के साथ सहयोग कैसे किया जा सकता है. मेरा मानना है कि दिल्ली में हमारे समकक्ष भी यही कहते होंगे. यह उल्लेखनीय बदलाव है. जैसा कि मैंने पहले कहा था कि इस किस्म का व्यवहार और रुझान आगे आनेवाले कई सालों तक जारी रहेगा, जो दोनों देशों की आबादी के लिए हितकर होगा.

बराक ओबामा की विदाई

द न्यूयॉर्क टाइम्स : राष्ट्रपति ओबामा ने उस शहर में अपना विदाई भाषण दिया, जहां से उन्होंने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत की थी. अमेरिकावासियों के चयन के प्रति उन्होंने भरोसा जताया. लेकिन, उन्होंने लोगों को आगाह किया कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जिस तरह से आर्थिक असमानता, नस्लवाद और उदारता के प्रति सीमित नजरिया उभार ले रहा है, वह देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए चुनौती साबित हो सकती है.

शिकागो ट्रिब्यून : ‘बराक ओबामा : ए गुड एंड डिसेंट मैन’ नामक अपने एक लेख में रेक्स हुपके कहते हैं, ‘ओबामा ने छोटी और बड़ी कई गलतियां कीं.’ उन्होंने कहा कि कुछ चीजों से मैं प्रेम करता था और कुछ चीजों से मैं नफरत करता था. उनकी विदेश नीति कुछ हद तक मिश्रित थी. ओबामाकेयर एक बड़ा आइडिया था, लेकिन उसे ठीक से लागू नहीं किया गया. पिछले आठ वर्षों के दौरान मैंने जैसा देखा कि वे उग्र प्रतिरोध के खिलाफ भी डटे रहे- जिसमें ज्यादातर लोगों को बतौर अश्वेत राष्ट्रपति उन्हें स्वीकारना मुश्किल हो रहा था.

द गार्डियन : पिछले आठ वर्षों के दौरान ऐसा महसूस हुआ कि आज की रात बेहद मजेदार होगी. ओबामा को यह उम्मीद थी कि बतौर डेमोक्रेटिक उम्मीदवार राष्ट्रपति पद के लिए हिलेरी क्लिंटर का चयन हो सकता है. हालांकि, डोनाल्ड ट्रंप की जीत को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और उसे एक बड़े पटल पर फैलाया गया है. ‘स्टेट ऑफ आवर डेमोक्रेसी’ नामक अपने स्पीच के तहत उन्होंने बेहद चतुराई से अपनी बात राष्ट्रपति के चयन पर नहीं, बल्कि उससे पैदा होनेवाली परेशानियों पर जोर दिया. डेविड स्मिथ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ओबामा ने अपने 4,300 शब्दों में दिये गये भाषण के दौरान ट्रंप का नाम उन्होंने महज एक बार ही लिया, लेकिन अनेक तरीकों से अनेक बार उनका उल्लेख करने से वे नहीं चूके.

फॉक्स न्यूज : बराक आेबामा ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल का समापन ठीक उसी तरह से किया, जिस तरह से उन्होंने शुरुआत की थी. डगलस इ सोएन ने अपने एक आर्टिकल में लिखा है कि उन्होंने जिस तरह से बयान दिये और शासन किया, वह अपनेआप में बेहतरीन रहा है. इसी अखबार में बिल व्हेलेन लिखते हैं कि जिस तरह से उनका राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म हुआ, वह अपने-आप में निराशाजनक था, और यह कई तरीकों से अलग भी था. इससे उनके सेलिब्रेटी स्टेटस को एक नया मुकाम हासिल हुआ है.

द टेलीग्राफ : उपदेश और उम्मीदों के आठ वर्षों के बदलाव के बाद ओबामा ने अपने नेतृत्व का अंत अमेरिकी लोकतंत्र की दशा के प्रति भय और चिंता जताने के साथ उसकी प्रति लोगों को आगाह करते हुए किया है. इसमें उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव अभियान की आक्रामकता का भी जिक्र किया, जिसमें मुसलिमों, अशक्तों, महिलाओं और प्रवासियों पर हमलों जैसे मसलों को शामिल किया.

द वॉशिंगटन पोस्ट : अमेरिकी राष्ट्रपति आेबामा ने अपने विदाई भाषण में अमेरिकी लोकतंत्र के लिए पैदा होनेवाली चुनौतियों का खास तौर से जिक्र किया और देश के लिए ज्यादा आशावादी नजरिया अपनाने पर जोर दिया, जो राजनीतिक तौर पर ज्यादा बंटा हुआ दिखा है. ओबामा ने अमेरिका के अब तक के इतिहास में क्षयकारी चुनावों में शामिल रहे हालिया चुनावों के बाद लोगों को अलविदा कहा है.

पोलिटिकाे : केवल उम्मीद करनेभर से आप बदलाव नहीं ला सकते हैं. अपने विदाई भाषण में बराक ओबामा ने अपने समर्थकों को खास तौर से यह संदेश देने की कोशिश की है. साथ ही उन्होंने भावुक होते हुए लोकतंत्र के लिए आसन्न चुनौतियों का जिक्र किया और उनके प्रति सावधान रहने की हिदायत भी दी.

एक नजर ओबामा प्रशासन पर

बराक ओबामा ने अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति के तौर पर 20 जनवरी, 2009 को पहली बार शपथ ग्रहण किया था. इस प्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति बननेवाले वे पहले अफ्रीकी अमेरिकी थे. इनकी मां श्वेत अमेरिकी महिला थीं, जबकि पिता अश्वेत केन्याई थे. ओबामा हवाई में पले-बढ़े थे. कोलंबिया यूनिवर्सिटी और हार्वर्ड लॉ स्कूल से इन्होंने डिग्री हासिल की. जब ओबामा शिकागो में कम्युनिटी ऑर्गनाइजर के तौर पर काम कर रहे थे, तभी वहां उनकी मुलाकात मिशेल रॉबिन्सन से हुई. यह 1992 की बात है. इसी वर्ष ओबामा ने मिशेल से शादी की. इनकी दो बेटियां हैं – मालिया और नताशा. वर्ष 1996 में ओबामा इलिनोइस स्टेट के सीनेट चुने गये और आठ वर्षों तक इस पद पर रहे, 2004 में ये रिकॉर्ड बहुमत से इलिनोइस स्टेट से यूएस सीनेट के लिए चुने गये. फरवरी, 2007 में ओबामा ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने की घोषणा की. चुनावी प्रक्रिया के दौरान इन्होंने डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के तौर पर न्यूयॉर्क सीनेटर और पूर्व प्रथम महिला हिलेरी क्लिंटन को नजदीकी मुकाबले में हराया. इसके बाद इन्होंने राष्ट्रपति के लिए हुए आम चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार एरिजोना के सीनेटर जॉन मैककेन को कड़े मुकाबले में हराया. तब एक ओर जहां अर्थव्यवस्था मंदी की दौर से गुजर रही थी, वहीं जॉर्ज बुश प्रशासन ने संघर्ष कर रहे वित्तीय संस्थानों की मदद के लिए एक विवादास्पद बेल-आउट पैकेज काे लागू करना शुरू कर दिया था. वहीं, इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना तैनात थी. अपने पहले कार्यकाल के पूर्वार्ध में राष्ट्रपति ओबामा ने अर्थव्यवस्था को बेहतर करने के लिए डेमोक्रेटिक नियंत्रित कांग्रेस के साथ मिल कर काम किया था, हेल्थ-केयर रिफॉर्म पारित किया था और इराक से ज्यादातर सैनिकों को वापस बुलाया था. वर्ष 2010 में जब रिपब्लिकन ने हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में बहुमत हासिल किया, तो राष्ट्रपति ने कर, बजट और घाटे जैसे मुद्दों को लेकर रिपब्लिकन प्रतिनिधियों के साथ राजनीतिक स्तर पर बातचीत के प्रयास शुरू किये, पर इनमें से ज्यादातर प्रयास असफल साबित हुए. वर्ष 2012 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दोबारा जीत हासिल करने के बाद अपने दूसरे कार्यकाल में ओबामा ने इमिग्रेशन रिफाॅर्म और गन कंट्रोल को लेकर सुरक्षित विधेयक बनाने पर ध्यान केंद्रित किया. वर्ष 2014 में सीनेट में जब रिपब्लिकन को बहुमत मिला, तब भी ओबामा ने अपनी एक्जिक्यूटिव अथॉरिटी को बनाये रखा़ अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान विदेश नीति के तहत मध्य पूर्व और जलवायु परिवर्तन पर ध्यान दिया.

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