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गंभीर खतरे में है पाकिस्तानी लोकतंत्र : राजनीतिक संदेश सुन पायेगी सेना?

पाकिस्तानी संसद के संयुक्त अधिवेशन में राजनीतिक दलों ने जिस तरह की एकजुटता का प्रदर्शन किया है, एक निर्वाचित सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए इमरान खान एवं ताहिरुल कादरी द्वारा चलाये जा रहे अराजक आंदोलन को एक स्वर में खारिज कर दिया है, उससे पाकिस्तान में लोकतंत्र की ताकत में इजाफा हुआ […]

पाकिस्तानी संसद के संयुक्त अधिवेशन में राजनीतिक दलों ने जिस तरह की एकजुटता का प्रदर्शन किया है, एक निर्वाचित सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए इमरान खान एवं ताहिरुल कादरी द्वारा चलाये जा रहे अराजक आंदोलन को एक स्वर में खारिज कर दिया है, उससे पाकिस्तान में लोकतंत्र की ताकत में इजाफा हुआ है. लेकिन, यह बड़ा सवाल अब भी कायम है कि क्या पाकिस्तानी सेना इस संदेश को समझेगी? पाकिस्तान के मौजूदा आंतरिक हालात के विभिन्न आयामों और उसके पड़ोसी देशों पर पड़नेवाले संभावित नतीजों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
प्रभात कुमार रॉय
(राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य)
पाकिस्तान इन दिनों गंभीर राजनीतिक संकट के दलदल में फंसा हुआ है. पाकिस्तान के वर्तमान हालात को लेकर भारत सहित समूचा दक्षिण एशिया चिंताग्रस्त है. फौजी तख्तापलट की आशंकाओं के बीच पाकिस्तान के लोकतंत्र पर गहराते संकट का प्रभाव पड़ोसी देशों पर भी पड़ सकता है. अमेरिका इसी साल अफगानिस्तान से पलायन कर रहा है. अमेरिकी पलायन से उत्पन्न होनेवाले शक्ति शून्य के कारण दक्षिण एशिया में स्थिर लोकतांत्रिक पाकिस्तान की बहुत दरकार है.
देश के उत्तर पश्चिम में तहरीक-ए-तालिबान से सैन्य जंग करती हुई हुकूमत-ए-पाकिस्तान पूर्व क्रिकेटर इमरान खान और मौलाना ताहिरुल कादरी द्वारा जारी तहरीकी आंदोलन के भंवर में फंस चुकी है. नवाज शरीफ हुकूमत का त्यागपत्र लेने के मुद्दे पर आरंभ हुआ आंदोलन एक भयानक हिंसक मोड़ पर आ पहुंचा है. आंदोलन की काली आंधी में लोकतांत्रिक तौर पर निर्वाचित हुकूमत के अस्तित्व पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इमरान खान और मौलाना कादरी पाकिस्तान में एक ऐसे संकटपूर्ण हालात तशकील करने पर आमादा हो गये हैं कि पाकिस्तानी फौज को दखलंदाजी का मुकम्मल मौका फराहम हो जाये और इन दोनों लीडरान को भी कुछ न कुछ राजनीतिक उपलब्धि हासिल हो जाये.
करीब 20 दिनों से इसलामाबाद में पार्लियामेंट के समक्ष दो विशाल धरना-प्रदर्शन चल रहा है. क्रिकेट से सियासत में तशरीफ लाये इमरान खान ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का इस्तीफा हासिल करने के लिए एक विशाल हुजूम जुटाया है. मई, 2013 में हुए आम चुनाव में कथित तौर पर अंजाम दी गयी धांधली का संगीन इल्जाम इमरान खान नवाज शरीफ पर आयद करते रहे हैं.
इमरान खान के नेतृत्व में उग्र प्रदर्शनकारी पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का इस्तीफा मांग रहे हैं. दूसरा धरना-प्रदर्शन अवामी तहरीक पार्टी के लीडर मौलाना ताहिरुल कादरी की कयादत में जारी है. मौलाना कादरी मुल्क में इन्कलाब लाना चाहते हैं. लाहौर में 14 जून को उनकी आवामी तहरीक पार्टी के 14 कार्यकर्ताओं की सुरक्षा बलों से हुई हिंसक झड़पों में हलाकत हो गयी थी. इन हलाकतों को साजिशन कत्ल करार देकर मौलाना कादरी ने नवाज शरीफ, उनके भाई पंजाब के मुख्यमंत्री शहबाज शरीफ एवं अन्य 19 के खिलाफ कत्ल का मुकदमा दर्ज कराने की मांग पेश की. अदालत के हुक्म से सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो चुका है.
इमरान और मौलाना कादरी, दोनों ही पाक फौज के चीफ कमांडर से मुलाकात कर चुके हैं. दोनों लीडरान नवाज शरीफ का तख्तापलट करने में फौज की इमदाद चाहते हैं. यह एक बेहद खतरनाक राजनीतिक रणनीति है, जिसके तहत लोकतांत्रिक तौर पर करोड़ों मतदाताओं द्वारा निर्वाचित नवाज शरीफ हुकूमत को फौज के साथ साजिश अंजाम देकर केवल कुछ हजार प्रदर्शनकारी बरखास्त कराने पर आमादा हैं.
यह दुरुस्त है कि नवाज हुकूमत की ओर से भी गंभीर गलतियां अंजाम दी गयी हैं. आम चुनाव में धांधली के इल्जामात की तहकीकात करने के लिए ज्यूडशियल कमीशन के गठन की पेशकश हुकूमत द्वारा उस वक्त अंजाम दी गयी, जब इमरान खान की कयादत में लॉन्ग मार्च शुरू होने में बहुत कम समय शेष रह गया था. अगर नवाज शरीफ हुकूमत ने इमरान खान के साथ बातचीत का सिलसिला पहले ही अंजाम दे दिया होता, तो धरना-प्रदर्शन की नौबत नहीं आती.
मौलाना कादरी और इमरान खान की ऐतिहासिक गलतियां लोकतंत्र को धीरे-धीरे पुख्ता कर रहे मुल्क के मुस्तकबिल पर बहुत भारी पड़ सकती हैं. मौलाना कादरी और इमरान खान के प्रदर्शनकारी चाहे जिस इरादे और मंशा को लेकर इसलामाबाद में धरना दिये बैठे हैं, पाकिस्तान का विराट जनमानस मुल्क को अस्थिर करने के उनके रणनीतिक इरादों के साथ कदापि सहमत नहीं है.
इमरान खान और मौलाना कादरी का तहरीकी आंदोलन पंजाब की सरहद तक सिमटा हुआ है.
इसे पाकिस्तान में राष्ट्रीय लहर करार नहीं दिया जा सकता. इन दोनों लीडरों ने बलूचिस्तान और सिंध के संगीन हालात का जिक्र तक अपने तकरीरों में कदाचित नहीं किया है. उधर, बलूचिस्तान विधानसभा ने मौलाना कादरी और इमरान खान के धरना-प्रदर्शन के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया है.
इस बीच नवाज शरीफ हुकूमत द्वारा मंगलवार को बुलाये गये पाक नेशनल एसेंबली के आपातकालीन संयुक्त अधिवेशन में भी सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री के पक्ष में अपनी राय पेश की है. पाक नेशनल एसेंबली ने मुश्तरका तौर पर अपनी राय जाहिर की है कि यह सिर्फ धरना-प्रदर्शन नहीं है, बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ एक खुली बगावत है. पाकिस्तानी संसद के संयुक्त अधिवेशन में राजनीतिक दलों ने जिस तरह की एकजुटता का प्रदर्शन किया है, उससे पाकिस्तान में लोकतंत्र की ताकत में इजाफा हुआ है. लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या पाकिस्तानी सेना इस संदेश को समङोगी?
अंतरराष्ट्रीय तौर पर अमेरिका वाकई में पाकिस्तान का सबसे अधिक खैरख्वाह और सरपरस्त मुल्क रहा है. दुनियाभर में लोकतंत्र के प्रबल पैरोकार अमेरिका पर गंभीर जिम्मेवारी आयद होती है कि पाकिस्तानी फौज को लोकतांत्रिक तौर पर निर्वाचित हुकूमत का तख्ता पलट करने से बाकायदा रोकने के लिए अपनी कूटनीतिक शक्ति का इस्तेमाल करे. सर्वविदित है कि पाकिस्तान की फौज अमेरिका की मर्जी के विरुद्ध जाकर कोई कदम नहीं उठा सकती है.
अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सरजमीं से कट्टरपंथी धर्माध तालिबान का संपूर्ण सफाया हो सके, इसके लिए अत्यावश्यक है कि दोनों देशों में लोकतांत्रिक हुकूमतों का अस्तित्व बाकायदा बरकरार रहे. पाकिस्तान में फौजी तानाशाही के दौर में सदैव कट्टरपंथी ताकतें शक्तिशाली हुई हैं. पाकिस्तान में अंदरूनी संकट का फायदा तहरीक-ए-तालिबान उठा सकता है और फिर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों के लिए आतंकवादी कहर बन सकते हैं.
संसद का संदेश
पाकिस्तान में संकट के मौजूदा चरण में कुछ उम्मीद भरे क्षण भी सामने आ रहे हैं. मंगलवार को संसद की संयुक्त बैठक में विभिन्न पार्टियों ने दलगत राजनीति और आपसी मतभेदों से ऊपर उठ कर इमरान खान और मौलाना कादरी के धरने को देश के संविधान और संसद की मर्यादा पर हमला करार देते हुए नवाज शरीफ की सरकार को पूरा समर्थन दिया है.
इस बैठक में इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के सदस्य अनुपस्थित रहे, लेकिन संसद की ओरकूच करने के इमरान के निर्णय से नाराज उनकी पार्टी के अध्यक्ष जावेद हाशमी ने अपने भाषण में सरकार के बने रहने की हिमायत की. उन्होंने इमरान खान पर सेना और मुख्य न्यायाधीश के इशारों पर चलने का आरोप लगाया.
इस बैठक ने प्रदर्शनकारियों और उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन दे रहे कट्टरपंथी तबकों और सेना के एक हिस्से को स्पष्ट संकेत दिया है कि वर्तमान गतिरोध को राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत ही सुलझाया जाना चाहिए. उम्मीद है कि तहरीक-ए-इंसाफ के सदस्य भी संसद में जारी बहस में हिस्सा लेकर अपना पक्ष रखेंगे. इस बीच विपक्षी दलों की एक समिति- अवामी जिगरा- तथा इमरान खान और मौलाना कादरी के बीच बातचीत चल रही है. समिति ने सरकार और प्रदर्शनकारियों से संयम की अपील की है.
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज हो सकती है पाक सेना
सुशांत सरीन रक्षा विशेषज्ञ
पाकिस्तान में जारी कशमकश के बीच लगता है कि वहां की सेना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज हो जायेगी. परोक्ष से तात्पर्य यह है कि वह परदे के पीछे से अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए सत्ता की गतिविधियों को अंजाम दे सकती है. प्रत्यक्ष यानी यह भी हो सकता है कि वह सीधे तख्ता पलट कर दे. इस संभावना से इनकार इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि पाक में बीते 50-60 साल से सैन्य नेतृत्व दखल देता आ रहा है.
फिलहाल पाकिस्तान के अंदरूनी हालात का भारत या दक्षिण एशिया के अन्य देशों पर बड़ा असर पड़ने की संभावना नहीं है. अगर सत्ता पलट भी होता है, तब भी इससे पड़ोसी देशों से रिश्तों पर खास असर पड़ने की संभावना नहीं है. सेना अगर सत्ता पर काबिज होती है, तब भी वह किसी देश से सीधे तौर पर टकराव नहीं चाहेगी, क्योंकि उसे पता है कि उसकी हैसियत क्या है.
हालांकि बीते 4-6 महीने से पाक की ओर से जो हरकतें रही हैं, उससे यह समझना आसान है कि आगामी दिनों में एलओसी पर हालात और खराब हो सकते हैं, जिनका कुछ असर पड़ोसी देशों के रिश्तों पर पड़ सकता है. मसलन, भारत-पाक वार्ता रद्द होना जैसी कुछ और चीजें हो सकती हैं. जिस तरह से एलओसी पर फायरिंग हो रही है, उसके मद्देनजर भारत ने भी अपना रुख साफ कर दिया है कि वह अब चुप नहीं बैठेगा, पाक पर दबाव बनाने के लिए उससे ज्यादा पुख्ता तरीके से जवाब दिया जायेगा. फिर भी किसी तरह के जंग की कैफियत बनेगी, ऐसा अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है.
पाकिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए एक आम धारणा सी बन गयी है कि वहां की सेना का दखल इस बार मध्यस्थता के मोड वाला है, लेकिन मैं इस धारणा को गलत मानता हूं. मिसाल के तौर पर, यदि आप भारत के जनरल से पूछें कि अगर देश की दो पार्टियों के बीच कोई झगड़ा हो रहा है, तो आपकी भूमिका क्या होगी? तो क्या सेना बीचबचाव करेगी या यह कहेगी कि इसे आप खुद ही तय करें कि क्या करना है? जाहिर है वह यही कहेगी कि पार्टियां खुद इसे तय करें. लोकतंत्र में सेना का यह काम है ही नहीं कि वह पक्ष-विपक्ष के बीच हुए मतभेदों को लेकर मध्यस्थता करती फिरे.
दूसरी चीज यह है कि एक लोकतांत्रिक देश में सेना को कोई सैन्य कदम उठाने के लिए सरकार से आदेश लेना पड़ता है. अगर आप सिटिजन सुपरमेसी (लोकतंत्र में नागरिक ही सर्वोच्च होता है) को मानते हैं, तो फिर सेना उसके आदेश के बिना कोई कदम नहीं उठा सकती. लेकिन पाकिस्तान की स्थिति-नीति इस मामले में कुछ अलग ही रही है, इसलिए इस ऐतबार से मैंने पहले ही कहा है कि पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज हो सकती है, न कि वह इमरान खान और नवाज शरीफ के बीच किसी तरह की मध्यस्थता करेगी.
पाक सेना प्रत्यक्ष रूप से पहले कई बार सत्ता में आ चुकी है, मसलन जनरल परवेज मुशर्रफ के रूप में, लेकिन इस बार जहां तक उसके परोक्ष रूप से काबिज होने का तात्पर्य है, तो इसका अर्थ यह है कि नवाज सरकार बच जायेगी और सेना पहले की तरह अपना काम भी करती रहेगी. नवाज सरकार बचती है, तो पाकिस्तान के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों में कुछ सुधार की संभावना बन सकती है, क्योंकि नवाज शरीफ शुरू से ही पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्तों को लेकर सचेत और गंभीर रहे हैं,खास तौर पर भारत के साथ.
बहुत संभव है कि इमरान खान और ताहिरुल कादरी के आंदोलन से नवाज शरीफ को और मजबूती मिले. ऐसा हुआ तो वे पाक सेना पर थोड़ा-बहुत लगाम लगा सकते हैं. एलओसी पर जिस तरह की हरकतें हो रही हैं, नवाज शरीफ उसे रोक सकते हैं, क्योंकि वे भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने की बात करते रहे हैं. हालांकि अभी बहुत स्पष्ट नहीं है कि ऐसा होगा या नहीं.
देखना होगा कि वे कितने ताकतवर होकर उभरते हैं, सेना पर उनका नियंत्रण होता है या नहीं, राजनीतिक रूप से उनकी स्वीकार्यता सेना के लिए क्या मायने रखती है, वगैरह-वगैरह. अभी तो ये सब सिर्फ संभावनाएं हैं और कयास पर टिकी हुई बातें हैं. इसलिए इंतजार कीजिए उस दिन का, जब पाक सेना का असल स्वरूप दुनिया के सामने आयेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
पाक में लोकतंत्र के लिए एक अच्छा दिन
(पाकिस्तान के प्रमुख अखबार ‘द नेशन’ का संपादकीय.)
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गंभीर खतरे में है पाकिस्तानी लोकतंत्र : राजनीतिक संदेश सुन पायेगी सेना? 2
पिछले करीब तीन सप्ताह से इसलामाबाद में एकत्रित हुए पीएटी और पीटीआइ के प्रदर्शनकारियों की हिंसक पृष्ठभूमि के बीच मंगलवार को आयोजित संसद के संयुक्त अधिवेशन ने इस आंदोलन को खारिज कर दिया. कई प्रकार से यह एक ऐतिहासिक अवसर था. लोकतंत्र के रहनुमा और लगातार इसके समर्थन में बयान देनेवाले पीटीआई अध्यक्ष जावेद हाशमी ने लोकतंत्र के खिलाफ रची जानेवाली किसी भी साजिश का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया.
उन्होंने नेशनल एसेंबली में इस्तीफे की भी घोषणा कर दी. संसद में वे दाखिल हुए और पार्टी लाइन से इतर बयान देकर सांसदों की तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच वापस चले गये. ऐतजाज अहसन ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में घुट्टी पिलायी और प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी पर बैठे हुए चुपचाप उन्हें सुनते रहे. महमूद खान अचकजई और मौलाना फजल-उर-रहमान भी यहां मौजूद थे, जो एक बड़ी शख्सियत हैं. संसद के भीतर और बाहर बैठे किसी भी शख्सियत से बड़ा कद है उनका.
हम एक ऐसी संसद के गवाह थे, जो क्रांति की राह पर चलते हुए व्यवस्था परिवर्तन करनेवाली अक्खड़ ताकतों को जवाब देने के मकसद से बुलायी गयी थी. हम एक ऐसी संसद के साक्षी थे, जिसमें राजनेता अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए, किसी तरह के भेदभाव से ऊपर उठ कर जवाब देने के लिए जुटे थे, ताकि संविधान की पवित्रता को बरकरार रखा जा सके और पाकिस्तान की जनता को प्रतिबिंबित करनेवाली संस्थाओं के निहितार्थ को कायम रखा जा सके.
एक भारी बहुमत वाली सरकार विपक्ष से खुद पर वैधता की मुहर लगवाना चाह रही थी, जिससे जरूरी फटकार के साथ सैद्धांतिक समर्थन हासिल करने की पेशकश का एक बेहतरीन प्रसंग हमें देखने को मिला. अदूरदर्शी राजनीतिक अवसरवाद के द्वारा घटनाओं की व्याख्या के माध्यम से हमारे अतीत को कलंकित किया जा रहा है. लेकिन, मंगलवार को जनता के प्रतिनिधियों ने एक नये युग की राजनीतिक जिम्मेवारी और संवेदनशीलता का उदाहरण पेश करते हुए बेहाल परंपराओं को लांघ कर एक नयी छलांग लगाने का प्रयास किया. यह कहना गलत नहीं होगा कि कुल मिलाकर पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए यह एक अच्छा दिन था.
हालांकि, लोकतंत्र के लिए केवल एक अच्छे दिन की नहीं, बल्कि ज्यादा से ज्यादा अच्छे दिनों की जरूरत होती है. यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें सुधार की गुंजाइश कभी खत्म नहीं हो सकती और यह नागरिकों और उनकी जरूरतों को पूरा करनेवाले उनके प्रतिनिधियों, दोनों ही के सामूहिक व्यवहारों पर टिकी हुई है. सरकार को यह काम अच्छी तरह से करना होगा, न कि उसे एक अहंकारी विजेता की भांति उभरना चाहिए. हम एक दीन-हीन सरकार की बजाय एक ऐसी सरकार देखना चाहते हैं, जो खुद चीजों को सीखे और समङो तथा बड़े संभावित खतरे को एक बार टल जाने के बाद उसे भुला नहीं दे.
सरकार के खराब प्रदर्शन और सांसदों की ओर से अलोकतांत्रिक व्यवहार की चुनौती निरंतर बनी रहती है. आत्ममुग्धता की स्थिति, लापरवाही और बेईमानी हमारे सांसदों के दिलों और दिमागों में रच-बस गयी है. इसलिए ऐतजाज एहसान अपनेआप में सही थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री को यह याद दिलाया कि मौजूदा संकट के बादल जैसे ही छंटेंगे, वैसे ही विपक्ष तेजी से पलटी मारते हुए अपनी मूल भूमिका में आ जायेगा. हम भी यही उम्मीद करते हैं. सरकार से हम आर्थिक सुधारों और परिपक्वता, विनम्रता और वचनबद्धता के अलावा उसके द्वारा किये गये अधिकतर वादों को पूरा करने की उम्मीद करते हैं.

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