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सुप्रीम कोर्ट ही रोक सकता है राजनीति का अपराधीकरण

जगदीप छोकर सह-संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के संदर्भ में 13 फरवरी को आये उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर तरह-तरह की बातें कही जा रही हैं. कुछ लोग इसे राजीनितक सुधार की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण फैसला मान रहे हैं. लेकिन, अगर इसे गौर से देखें, तो इसमें कोई […]

जगदीप छोकर
सह-संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स

राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के संदर्भ में 13 फरवरी को आये उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर तरह-तरह की बातें कही जा रही हैं. कुछ लोग इसे राजीनितक सुधार की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण फैसला मान रहे हैं. लेकिन, अगर इसे गौर से देखें, तो इसमें कोई नयी बात नहीं दिखती.इस फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अपने 25 सितंबर, 2018 के फैसले का जिक्र किया है. जिन न्यायाधीश ने यह फैसला लिखा है, वे पूर्व के फैसले की खंडपीठ में भी शामिल रहे हैं. इस फैसले में केवल दो नयी बातें हैं- पहली, उम्मीदवार का चयन होने के बाद राजनीतिक दलों को उसके अापराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी वेबसाइट पर देनी होगी.

इसके लिए 48 घंटे की समय सीमा भी तय कर दी गयी है. साथ ही 72 घंटे के भीतर चुनाव आयोग को भी इस आशय की जानकारी देनी होगी. दूसरी, अगर पार्टी किसी ऐसे व्यक्ति को चुनती है, जिसके खिलाफ अापराधिक मामले दर्ज हैं, तो उससे संबंधित मामले भी बताने होंगे.पार्टियों को यह भी बताना होगा कि क्या उसे बिना आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार नहीं मिले. अक्सर दलों का तर्क होता है कि वे जिताऊ उम्मीदवार को तवज्जो देते हैं. ऐसे में उम्मीदवार के चयन का यह पैमाना नहीं होना चाहिए. उम्मीदवार की योग्यता और उपलब्धि को चयन का आधार बनाया जाना चाहिए.
अगर 25 सितंबर के फैसले को देखें, तो वेबसाइट पर उम्मीदवारों की जानकारी उपलब्ध कराने की बात तो उसमें भी थी. अब सिर्फ 48 घंटे की समय सीमा तय कर दी गयी है. हालांकि, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है. खास बात है कि उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की जानकारी आम जनता को पिछले 18 वर्षों से मिल रही है. सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में इससे संबंधित एक फैसला दिया था.
उसके बाद से उम्मीदवारों को शपथ पत्र देना होता है. उम्मीदवारों के शपथ पत्र के बारे में जानकारी एडीआर और मीडिया आदि माध्यमों द्वारा जनता तक पहुंचायी जाती है. ऐसे में पार्टी की वेबसाइट पर इसे लगाने से कोई ज्यादा असर नहीं होगा. हालांकि, अब कारण भी बताने के लिए कहा गया है.
राजनीतिक पार्टियों को कारण ढूंढ़ने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं होगी, कारण तो कुछ भी बताया जा सकता है. वह कारण सही है या गलत है, वह संतोषजनक है कि नहीं, इस बारे में कौन फैसला करेगा, इसका कोई जिक्र नहीं किया गया है. इस मामले में चुनाव आयोग की निगरानी की बात है. अगर कोई पार्टी नियमों का अनुपालन नहीं करेगी, तो उसके खिलाफ मानहानि की कार्रवाई की जायेगी. यह तो बाद की बात है. चुनाव आयोग को पता कैसे चलेगा कि बताये गये कारणों में कितनी सच्चाई है. सैकड़ों पार्टियां हैं.
पता चलने के बाद आयोग सुप्रीम कोर्ट जायेगा. यह लंबी और उलझाऊ प्रक्रिया है. इसका कोई असर पड़नेवाला नहीं है. कायदे से देखा जाये, तो गंभीर मामलों में घिरे उम्मीदवार, विशेषकर जिनके खिलाफ चार्जशीट फाइल की जा चुकी है, उन्हें चुनाव में उतरने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के पास यह विशेष अधिकार है कि अगर किसी कानून में कोई कमी है या किसी बात पर कानून नहीं है, संसद उस तरफ ध्यान नहीं दे रही है और उससे जनहित को नुकसान हो रहा है, तो इन तीनों ही परिस्थितियों में वह नया कानून बना सकता है या मौजूद कानून में कमियों को दूर कर सकता है.
दागियों के मामले में यह काम संसद नहीं करेगी. यह अगर कभी संभव होगा भी, तो वह सुप्रीम कोर्ट ही करेगा. अगर यह काम नहीं होगा, तो अापराधिक पृष्ठभूमि वाले हमारे सांसद बढ़ते जायेंगे. साल 2004 में ऐसे सांसद 25 प्रतिशत थे, अब 43 प्रतिशत हो गये हैं.
यह न्यायपालिका, संसद और राजनीतिक दलों के लिए सोचने की बात है. कोई राजनीतिक दल यह पहल नहीं करना चाहता है कि हम अच्छे लोगों को टिकट दें. दलों को जब तक अपनी जिम्मेदारी महसूस नहीं होगी, तब सुधार होने की गुंजाइश कम है. सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामले में सख्ती से संज्ञान लेना चाहिए.

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