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ओलिंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम का पहला कप्तान भी आदिवासी था

महादेव टोप्पो mahadevtoppo@gmail.com झारखंड और उसके निकटवर्ती राज्यों के सभी लोगों को पता है कि ओलिंपिक में हॉकी के पहले कप्तान जयपाल सिंह एक आदिवासी समुदाय से थे. लेकिन, शायद यह कम ही लोगों को मालूम होगा कि लंदन ओलिंपिक-1948 में भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान भी आदिवासी थे. तत्कालीन भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान […]

महादेव टोप्पो
mahadevtoppo@gmail.com
झारखंड और उसके निकटवर्ती राज्यों के सभी लोगों को पता है कि ओलिंपिक में हॉकी के पहले कप्तान जयपाल सिंह एक आदिवासी समुदाय से थे. लेकिन, शायद यह कम ही लोगों को मालूम होगा कि लंदन ओलिंपिक-1948 में भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान भी आदिवासी थे. तत्कालीन भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान नगालैंड के ‘अओ’ आदिवासी समुदाय से थे और उनका नाम ‘तलीमेरन अओ’ था, जिन्हें संक्षेप में लोग टी अओ कहते थे.
‘टी अओ’ का जन्म चांगकी, नगालैंड में 28 जनवरी 1918 को हुआ था. वे परिवार में बारह भाई-बहन थे. उनका बचपन मोकोचुंग में बीता. यहीं छह साल की उम्र में फुटबॉल के प्रति शौक पैदा हुआ. स्कूल से आने के बाद बेकार कपड़ों के चिथड़ों को मजबूती से बांधकर बने गोले से घंटों साथियों के संग फुटबॉल खेला करते थे.
आगे की पढ़ाई के लिए जोरहाट गये. वहीं 1933 में एक प्रतियोगिता में उनके फुटबॉल खेलने की प्रतिभा को लोगों ने पहचाना और उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. जोरहाट से आगे की पढ़ाई के लिए गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज गये. वहां भी फुटबॉल के अलावा अन्य खेलों में भाग लेकर पुरस्कार जीतने लगे. गुवाहाटी में उन्हें महाराणा क्लब से फुटबॉल खेलने का अवसर मिला. पहले वे स्ट्राइकर थे, बाद में मिडफील्डर बने.
टी अओ की ऊंचाई औसत से थोड़ी अधिक थी, पांच फीट दस इंच ऊंचे थे. वे कोलकाता के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब मोहन बागान के लिए 1943 से 1952 तक जुड़े रहे. उन्होंने अपने खेल कौशल से मोहन बागान को नयी ऊंचाई पर पहुंचाया. मोहन बागान में एक साल खेलने के बाद ही वे क्लब के कप्तान बना दिये गये. बाद में उन्हें आजादी के बाद भारत का नेतृत्व करने का अवसर मिला और 1948 लंदन ओलिंपिक के लिए भारतीय फुटबॉल टीम के पहले कप्तान बने. साथ ही वे भारतीय दल के ध्वजवाहक भी रहे. लंदन ओलिंपिक में मैच नहीं जीतने पर भी भारतीय टीम चर्चा में रही क्योंकि वे नंगे पांव फुटबॉल खेल रहे थे.
इस पर एक अंगरेज पत्रकार ने उनसे पूछा कि- “वे बूट पहनकर क्यों नहीं खेलते हैं?” इस पर टी अओ ने अंगरेज पत्रकार को मुंहतोड़ जवाब दिया कि- “हम नंगे पांव इसलिए खेलते हैं क्योंकि हम फुटबॉल खेलते हैं, बूटबॉल नहीं.” अंग्रेज पत्रकार उसके इस जवाब से अवाक रह गये. वे अंगरेजी भी धाराप्रवाह बोल सकते थे. उनके खेल से प्रभावित होकर ‘आर्सेनल’ जैसी क्लब से खेलने का प्रस्ताव भी मिला था.
लेकिन, उन्होंने अपने देश, अपने लोगों के बीच लौटना उचित समझा और आर्सेनल का प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्हें अपने पिता से किया गया वादा याद था कि- उन्हें डॉक्टर बनकर, अपने लोगों की सेवा करनी है. फलतः, उन्होंने एक अच्छे बेटे होने का फर्ज भी निभाया और 1950 में आरजी कर कॉलेज, कोलकाता से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की. वर्ष 1951 में बीमार पड़े. क्लब ने चिकित्सा सुविधा के लिए उन्हें विदेश भेजने की व्यवस्था की तो अओ ने इन्कार कर दिया और अपना इलाज खुद किया क्योंकि वे स्वयं डॉक्टर थे.
वे विलक्षण खिलाड़ी थे. इसका उदाहरण इससे भी जाना जा सकता कि वर्ष 1950 में डूरंड फुटबॉल का फाइनल मैच हैदराबाद सिटी पुलिस के साथ हो रहा था. खेल के दौरान उनके गोलकीपर घायल हो गये. उस समय स्थानापन्न खिलाड़ी को खेलने देने की अनुमति नहीं थी. अतः खेल के बचे समय के लिए अओ ने गोलकीपिंग की.
फुटबॉल से रिटायमेंट लेने के बाद वे नगालैंड लौटे और कोहिमा सिविल हॉस्पिटल में असिस्टैंट सिविल सर्जन के रूप में अपनी नौकरी शुरू की.
वहीं उनकी मुलाकात नर्स डिकिम डोंगेल से हुई, जिसे टी अओ ने अपना जीवनसाथी बनाया. वे सिविल सर्जन भी बने और बाद में डायरेक्टर ऑफ हेल्थ सर्विसेज नगालैंड बनकर 1978 में सेवानिवृत हुए. वे 13 अक्तूबर 1998 को इस दुनिया से विदा हो गए.
टी अओ को खेल के लिए जितना सम्मान मिलना चाहिए था, नहीं मिला. फिर भी यह थोड़े संतोष की बात है कि आज उनके नाम से नॉर्थ-ईस्ट में फुटबॉल के प्रोत्साहन के लिए 2009 से एक फुटबॉल प्रतियोगिता आरंभ की गयी है. आज इस प्रतियोगिता से उभरे कई खिलाड़ी भारत के प्रमुख फुटबॉल क्लबों में स्थान पाने के साथ-साथ राष्ट्रीय टीम में भी खेल रहे हैं.
टी अओ एक अच्छे फुटबॉल खिलाड़ी के अलावा नेक डॉक्टर भी थे. उन्होंने चिकित्सा करने में कभी किसी से भेदभाव नहीं किया जिसके कारण कुछ लोगों ने उन पर उंगलियां भी उठायीं.
दरअसल, 1963 में नगालैंड गठन के पूर्व उनके पास घायल भारतीय सैनिक और अंडरग्राउंड नगा विद्रोही भी इलाज के लिए आते थे. लोगों ने उनसे पूछा कि- “आप इन अंडरग्राउंड लोगों की चिकित्सा क्यों करते हैं?” तो उनका उत्तर था – “मैंने डॉक्टर बनते समय शपथ ली है कि मैं हर जरूरतमंद रोगी, घायल का इलाज करूंगा. इलाज के लिए मेरे पास आया हर इंसान एक मरीज है.
और मैं नहीं जानता कि वे ‘अपरग्राउंड’ से हैं या ‘अंडरग्राउंड’ से.” ऐसे थे हमारे ओलिंपिक में फुटबॉल के पहले भारतीय कप्तान. आशा है कि खेल, समाज व इंसानियत के प्रति उनके समर्पण से आज के युवा प्रेरणा ग्रहण करेंगे. भारत सरकार व राज्य सरकारें हॉकी एवं फुटबॉल के प्रथम भारतीय ओलिंपिक कप्तानों के सम्मान में कोई पुरस्कार घोषित करें तो यह उनके प्रति समुचित सम्मान होगा.

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