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Thursday, March 28, 2024

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कुड़ुख पेंटिंग को नवजीवन देती सुमंती

महादेव टोप्पो mahadevtopppo@gmail.com यूं कलाकार और कला की कोई सीमा नहीं. लेकिन जब कोई कलाकार लगभग लुप्त हो गई किसी कला को पुनर्जीवित कर देता कलाकार समाज और कला जगत के लिए विशिष्ट हो जाता है. ऐसी ही एक कलाकार है सुमंती देव भगत, जो भोपाल में रहती हैं. सुमंती ने अपनी वेश-भूषा तक को […]

महादेव टोप्पो
mahadevtopppo@gmail.com
यूं कलाकार और कला की कोई सीमा नहीं. लेकिन जब कोई कलाकार लगभग लुप्त हो गई किसी कला को पुनर्जीवित कर देता कलाकार समाज और कला जगत के लिए विशिष्ट हो जाता है. ऐसी ही एक कलाकार है सुमंती देव भगत, जो भोपाल में रहती हैं.
सुमंती ने अपनी वेश-भूषा तक को उरांव संस्कृति के अनुकूल इस तरह ढाल लिया है कि आप दूर से देखकर बता सकते हैं कि वह कोई उरांव युवती ही हो सकती है. पढ़िया की मोटी सफेद, लाल पाड़ की साड़ी पहने, उरांव विधि से खोपा बनाए और उस पर बगुले के पंखों बनी टइंया को खोसे हुए. गले पर चमकता खंभिया और कानों पर लंबे वीडियो. ऐसी कुंड़ुख वेश-भूषा में अब तो शायद ही कोई दिखता है. इतना तक कि गांवों में भी नहीं.
पुरखे दीवाली के बाद या सरहुल आने के पहले उरांव लोग सफेद पोतनी मिट्टी से, फिर गोबर में जले पुआल की काली राख मिलाकर दीवालों को रंगा करते थे.
लेकिन अब सफेद पोतनी मिट्टी को अभाव हो गया है. साथ ही कई लोग पक्के सीमेंट का घर बना चुके हैं. स्कूल जाती किशोरियों, युवतियों को अब यह सब सीखने और लीपने का समय भी नहीं रह गया है. अतः धीरे धीरे दीवालों को लीपने की कलात्मक लिपाई का काम भी समाप्त होता चला गया और यह कल अब विलुप्ति के कगार पर खड़ा हो गया है.
लेकिन, प्रशंसा करनी होगी सुमंती उरांव की जिसने लुप्त होती इस कला को न केवल बचाने का काम किया बल्कि अपनी मिहनत और कल्पनाशीलता से इस कला को, कला-जगत में आकर्षण का नया केंद्र बनाकर, प्रतिष्ठित कर दिया. आज सुमंती की पहचान उरांव कला के लिए न केवल मध्य प्रदेश बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर, केरल, दिल्ली राज्यों के छोटे-बड़े शहरों में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुकी हैं.
मिट्टी के प्राकृतिक रंगों से लीपने की शैली से बनाए चित्र सादगी भरे कला के उच्चतम उदाहरण भी है. वह चार से पांच रंगों की मिट्टी के रंगों से रंग तैयार करती है और कागज या कैनवस पर लीपते हुए कलाकृतियां बनाती है.
उंगलियों के निशानों से बनी लकीरें के बीच कभी कुछ चित्र भी होता है जो पेड़, पशु, झंडा आदि होता है. इनमें से अधिकांश चित्र उरांव समुदाय की मौखिक परंपरा से प्रेरित होती हैं और चित्र के माध्यम से उरांव जीवन की विविध घटनाओं, अनुष्ठानों को अपनी कलाकृतियों में दर्शातीं हैं.
सुमंती का जन्म 05 अक्तूबर 1980 को जशपुर में हुआ. वे बचपन से ही घर में मां द्वारा लीपने की प्रक्रिया को ध्यान से देखा करती थी. हाथ से दीवालों पर लीपकर उभरती अर्द्धवृताकार आकृतियों को देखना उसे बहुत प्रिय था.
खाली हाथों में बस गीली लेकर, दीवालों को सुंदर अर्द्धवृताकार आकृतियों से भर देने में उसे बहुत आनंद आने लगा. यही आनंद आज उसे कलाकार के रूप में और ‘उरांव पेंटिंग’ को कला जगत में नई पहचान दे रहा है. मिट्टी लेकर धीरे-धीरे उसने भी यह सीख लिया. उन्हें सबसे पहले अपनी कला प्रदर्शन करने का अवसर 2012 में भुवनेश्वर के ट्राइबल आर्ट फेयर में मिला जो कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा आयोजित था. उनकी कलाकृति की वहां बहुत सराहना की गई. उनकी कलाकृति भी बिकी.
विदेशी ग्राहकों ने भारतीय ग्राहकों से ज्यादा पेंटिंग खरीदीं. फलतः, उनका हौसला बढ़ता गया और इस पर अधिक काम करने लगीं. आज वह छोटे से लेकर बड़े कैनवस पर पहले हाथ से लिपाई करतीं हैं और चित्र या अन्य आकृतियां बनातीं हैं. कभी वह उंगली से कैनवस के चारों ओर घेरा जैसा बनाती और उसके बीच कोई आकृति.
वह चित्रों के माध्यम से आदिवासी जीवन की विविध घटनाओं और कभी-कभी कर्मकांडों, त्योहारों, लोककथाओं को भी चित्रित करती हैं. उन्होंने कई शहरों में कला बनाने का भी, प्रदर्शन किया है. मिट्टी को घोलकर रंग तैयारकर उंगलियों से पेंटिंग बनाना लोगों को काफी आकर्षक लगता है क्योंकि वह उरांव परिधान पहने यह सब करती है. जो कला में प्राकृतिक रंगों और जीवन को देखना चाहते हैं उन कलाप्रेमियों को सुमंती की कलाकृतियां बेहद भातीं हैं.
उनकी कलाकृतियों का प्रदर्शन आज देश भर के महत्वपूर्ण आयोजनों में चर्चा का विषय है. हो सकता है उनकी कलाकृतियों के खरीदार कम हों लेकिन उसकी परिधान के प्रशंसक काफी हैं.
यह कुंड़ुख बाला, अपनी कलाकृतियों, परिधान और कला बनाने में हर जगह कुंड़ुख आदिवासी जीवन की छाप छोड़ती दिखती है. सरकार या कोई संस्थान रांची में, उन्हें आमंत्रित कर इस कला को प्रोत्साहित करे तो कुंड़ुख-कला को झारखंड में भी नई पहचान मिल सकती है और कुछ नये कलाकार भी इस ओर आकर्षित हो सकते हैं.
प्राकृतिक रंगों से, बनाई जाती इस ‘उरांव कला’ को बचाने और लोकप्रिय बनाने में मदद मिल सकती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुमंती के इस प्रयास को झारखंड और निकटवर्ती राज्यों में भी ज्यादा से ज्यादा लोग समझेंगे, देखेंगे, सराहेंगे और उसे सम्मान, प्यार व समुचित प्रोत्साहन देंगे.
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