हिंदी और मैथिली की प्रसिद्ध लेखिका पद्मश्री उषा किरण खान 75 वर्ष की हो गयी हैं. मौजूदा दौर में बिहार से हिंदी और मैथिली के साहित्यकारों में सबसे प्रमुख नाम उषा किरण खान को पिछले दिनों भारत – भारती सम्मान दिये जाने की जब घोषणा हुई तो इसे देश भर में इसे महिला लेखिकाओं की साहित्य में मजबूत उपस्थिति के तौर पर देखा गया. लंबे अरसे बाद किसी महिला को यह पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी.
अपनी रचनाओं से उन्होंने हिंदी के साथ ही मैथिली साहित्य को भी समृद्ध किया है. मैथिली की लोक संस्कृति को अपनी कहानियों, उपन्यासों आदि के माध्यम से वह आगे बढ़ा रही हैं. करीब 50 वर्षों से लेखन में सक्रिय उषा जी आज भी नियमित रूप से लिख रही हैं. नयी लेखिकाओं को बढ़ावा देने के लिए इनकी पहल पर पटना में आयाम नाम से संस्था का गठन कुछ वर्ष पहले हुआ और संस्था स्त्रियों को साहित्य का मंच दे रही है. उनके 75वें वर्ष पर हमने उनसे बात की और जाना लेखन से जुड़ा उनका अनुभव. साथ ही हम यहां पेश कर रहे हैं आयाम से जुड़ी दो लेखिकाओं के उषा जी को लेकर विचार.
उषा किरण खान कहती हैं कि मैं 75 वें वर्ष में प्रवेश कर रही हूं यह होना अवश्यंभावी था, इसमें मेरा नहीं नियंता का हाथ है. उन्होंने क्रूर काल हाथों से जैसे मेरे पिता को या मेरे छोटे भाई को झपट लिया वैसा मेरे साथ नहीं किया, पर मैं लेखिका बन जाउंगी यह मेरा अपना किया धरा है. मेरे जन्म लेने के साथ और उससे पहले मेरे पिता का लोकेल बदलता रहा. उनके जाने के बाद यथास्थिति रही. गांव और लहेरियासराय. गांव छुट्टियों में जाना होता था, स्कूल – कॉलेज के हॉस्टल में रहती मैं बहुत याद करती, हॉस्टल में बंधन था,गांव में मुक्ति. हॉस्टल में दूसरा रुटीन रहता गांव में दूसरा.
पर मैं अपनी कविताओं में उसे जी तो रही थी. स्त्रियों का लोकेल ससुराल जाकर भी बदलता है और बदलता है नौकरी चाकरी करके, नयी – नयी पोस्टिंग पर जाकर. सभी छोड़ी हुई जगह बेतरह याद आती है. स्थान के साथ वहां के पात्र याद आते, इतिहास याद आता, भूगोल याद आता और याद आता वहां का समाज. इन यादों की, बिछोहों की घनीभूत पीड़ायें कथासूत्रों में सिमट आयी.
वह कहती हैं कि गांव आहिस्ता – आहिस्ता दूर हो रहा था, वह स्मृत्तियों में सिमट रहा था. पर बड़ी शिद्दत से याद आती रही वंचित पीड़ित उपेक्षित आबादी जिसको सुनने देखनेवाला कोई नहीं. हंसती खेलती नदी को तटबंध में क्या समेटा गया पूरा इलाका गम में डूब गया.
खेल – खेल में सीखे गये नाव परिचालन मजबूरी बन गये. सब कुछ लील जाती हैं नदियां जलाप्लावन अक्षत है जिजीविषा. किसान बड़ा जब्बर जीव होता. पर देखा अब किसान, पशुपालक सभी नगराभिमुख होते गये. तटबंधों के बीच के नो मैन्सलैंड के रहवासी नगरों में नो मैन्स लैंड में ही तो हैं! यहां कौन किसका है? मैं देख रही हूं सबकुछ राजनीति की भेंट चढ़ गया है, मेरी लेखनी क्या उकेर पाने में सक्षम है? मैं बारंबार इतिहास की ओर लौटती हूं कि बनती बिगड़ती सभ्यतायें क्या कुछ संदेश देती हैं. मैं निराश नहीं होती , इतिहास हमें निराशा से उबारता है, यह हमारे काल का सत्य हो जो शीघ्र इतिहास बन जाने वाला है. वर्तमान गहराते उच्छल निर्मल जल की भांति समक्ष है.
परिचय
जन्म : 24 अक्तूबर 1945, लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार)
भाषा : हिंदी, मैथिली
विधाएं : उपन्यास, कहानी, नाटक
मुख्य कृतियां
उपन्यास : पानी पर लकीर, फागुन के बाद, सीमांत कथा, रतनारे नयन (हिंदी), अनुत्तरित प्रश्न, हसीना मंजिल, भामती, सिरजनहार (मैथिली)
कहानी संग्रह : गीली पॉक, कासवन, दूबजान, विवश विक्रमादित्य, जन्म अवधि, घर से घर तक (हिंदी), कॉचहि बॉस (मैथिली)
नाटक : कहां गये मेरे उगना, हीरा डोम (हिंदी), फागुन, एकसरि ठाढ़, मुसकौल बला (मैथिली)
बाल नाटक : डैडी बदल गये हैं, नानी की कहानी, सात भाई और चंपा, चिड़िया चुग गयी खेत (हिंदी), घंटी से बान्हल राजू, बिरड़ो आबिगेल (मैथिली)
बाल उपन्यास : लड़ाकू जनमेजय
सम्मान – हिंदी सेवी सम्मान (राजभाषा विभाग, बिहार सरकार), महादेवी वर्मा सम्मान (बिहार राजभाषा विभाग), दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कुसुमांजली पुरस्कार, विद्या निवास मिश्र पुरस्कार, पद्म श्री सम्मान, भारत भारती सम्मान.
गर्व रहेगा कि उनके युग के साक्षी रहे
भावना शेखर
देश की जानी मानी कथाकार, मिथिला की बेटी उषा किरण खान एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में संघर्ष के अनेक पड़ाव पार किये. जद्दोजहद की. बिना झंडा बरदारी किये अपनी कलम को अपना हथियार बनाकर वंचितों की लड़ाई लड़ी. बिना शोरगुल के व्यवस्था द्वारा दबाए गये सताये गये लोगों की आवाज को समाज के कानों तक पहुंचाया. बरसो बाद आज की नस्लों को गर्व होगा कि हम उनके युग के साक्षी रहे उन्हें पढ़ा गुना और खुद को बेहतर मनुष्य बनाने के गुर उनसे सीखे.
हाल में प्रतिष्ठित भारत भारती सम्मान से विभूषित पद्मश्री डॉ उषा किरण खान अपने जीवन के चौहत्तर वर्ष पूर्ण करके अमृत वर्ष की दहलीज पर आ पहुंची हैं. वे शतायु हो यही हम सब की कामना है.
उनके कृतित्व में बहुत से रंग हैं, मिथिला की सोंधी माटी की खुशबू है, गांधीवाद है और वे जीवनमूल्य हैं जो बाबा नागार्जुन के स्नेह की पवित्र छांव में विकसित हुए.
आजकल स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, देह विमर्श आदि चल निकले हैं पर डॉ उषा किरण खान किसी विमर्श पर न रुकीं न झुकीं, बल्कि साहित्य में कहानी की वर्तमान धारा की परवाह किये बगैर अपने समय अपने परिवेश की स्त्रियों की व्यथा कथा को बड़ी निस्पृहता और निर्भीकता से रचती रही हैं.
मैथिली और हिंदी दोनों भाषाओं में सिद्धहस्त उषा जी का साहित्य उपेक्षितों वंचितों के जीवन- संघर्ष और जिजीविषा का प्रामाणिक दस्तावेज है. इनके साहित्य में प्रेमचंद और रेणु दोनों के दर्शन एक साथ होते हैं. मानवीय संवेदना में प्रेमचंद की विलक्षण दृष्टि और शिल्प में रेणु की अनन्य आंचलिकता की महक मिलती है.
उनके जीवन उनके व्यक्तित्व का बहुत कुछ अनकहा है. उनकी संस्था आयाम के सचिव पद पर रहते उनके साथ घंटों बातें करने,उन्हें करीब से समझने के बहुत मौके मिले.आत्ममुग्धता से कोसों दूर, हवाई जहाज से देश-विदेश घूमने वाली उषा किरण खान का मन उमंगों के हिचकोले तभी खाता है जब वे बैलगाड़ी से सफर करती हैं. गांव की पगडंडियों की पुकार उनके लिए मां की हांक है जिसे वे अनसुना नहीं कर पातीं.
उनके अनगिनत अनुभव और संस्मरण कितनी ही कहानियों में किरदारों के रूप में अमर हो चुके हैं. उनकी वैचारिकी का विस्तृत फलक आपको चमत्कृत करता है. वैदिक काल की अपाला घोषा, लोपामुद्रा से लेकर मध्ययुगीन भामती तक का इतिहास उनकी उंगलियों की पोर पर है. पारम्परिक जड़ों के बावजूद सोच में अति आधुनिक और प्रगतिवादी उषा जी रोज घंटों लिखती पढ़ती हैं. लेखन में सक्रिय हैं. साहित्य में उनके जैसे विलक्षण पथिक की यात्रा सुदीर्घ हो, निर्बाध हो, यही कामना है.
गांव और महानगरों के यथार्थ को लिखा
प्रो. वीणा अमृत, सचिव आयाम
उषा किरण खान का जन्म 24 अक्तूबर 1945 को बिहार के दरभंगा जिले के लहेरियासराय में हुआ. जीवन के अनेक उतार – चढ़ाव और आपा धापी के बावजूद यह इनकी लेखनी की निरंतरता ही है जिसने अपनी निर्बाध गति से सहज ही जनमानस को छुआ. स्त्रियों के मनोविज्ञान को उनके द्वंद और दर्द को सामने लायी.
1977 से लेकर अब तक दर्जनों कहानियां और उपन्यास लिखकर उम्र के 75वें पायदान पर पहुंची लेखिका ने अपनी रचनाओं में यथार्थ से उपजे पात्रों के माध्यम से सामाजिक संवेदना और मर्म को बखूबी उकेरा है. अपने गांव और महानगरों में बसी स्त्रियों की भूख,अस्मिता, तनाव, पीड़ा और प्रताड़नाओं का इतना सहज वर्णन अद्भुत है.
चालीस साल पहले लिखी कहानी अड़हुल की वापसी ठेस कोसी क्षेत्र के गांव की कहानी है जिसमें अड़हुल और ओवरसियर साहब की कहानी है, इसमें एकतरफा प्रेम और समर्पण को चित्रित किया है. इनकी कहानियों की पात्र केतकी हो या श्रेया सभी अविस्मरणीय हैं और पाठकों की संवेदनाओं को छू जाते हैं. रूढ़ियों से टकराती और स्वतंत्रचेतना वाली स्त्री इनके लेखन के मूल में शामिल रहती है. फागुन के बाद, भामती, हसीना मंजिल, सजृनहार जैसा साहित्य रचकर उषा किरण खान ने अद्वितीय मिसाल कायम की है.
साहित्य के उच्चतम शिखर पर पहुंच कर भी उषा उन्होंने स्त्रियों के लिए आयाम जैसे मंच के विषय में सोचा. इससे जिन महिलाओं की साहित्यिक प्रतिभा और लेखनी घर की चहारदीवारी एवं जिम्मेदारियों के भीतर दबी हुई थी उन्हें बाहर निकाला. नवोदित रचनाकारों को एक मंच मुहैया कराया जिनकी वे हकदार थीं. आज आयाम न सिर्फ बिहार में बल्कि संपूर्ण भारत का स्त्री स्वर बनकर परचम लहरा रहा है.
आयाम का जन्म भी उषा किरण खान के उसी छोटे से कमरे में हुआ जहां से सजृनहार, अगर हिडोला, भामती, रतनारे नैन, गयी झूलनी टूट आदि अमर कृतियां गढ़ी गयीं और अनेक शीर्षस्थ पुरस्कारों, सम्मानों, मानद उपाधियों का साक्षी रहा. उषा जी कहती भी हैं कि स्त्रियां अब सिर्फ किचेन की बात नहीं करती बल्कि उनमें साहित्य के प्रति भी अभिरुचि बढ़ी है. स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा सृजनशील होती हैं क्योंकि स्त्रियों की रचना में कल्पनाशीलता से ज्यादा भोगा हुए यथार्थ का वर्णन होता है.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पद्मश्री उषा किरण खान इस सदी की महान लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने समाज को दिशा दिखाने का काम किया है. कभी – कभी आश्चर्य होता है कि इतनी विलक्षण प्रतिभा वाली महान लेखिका इतनी सहज और सरल कैसे हो सकती है. संभवत: यही बात उन्हें औरों से अलग खड़ी करती है और उन्हें शीर्ष स्थान प्रदान करती है.
