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पढ़ें डा. सरस्वती गागराई का विशेष लेख: हो आदिवासी और सोहराय पर्व

डा. सरस्वती गागराई सहायक प्राध्यापक, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय, रांची सोहराय पर्व झारखंड के आदिवासियों का एक प्रमुख पर्व है. झारखंड के आदिवासियों में मुख्य रूप से हो, मुंडा, खड़िया, उराँव तथा संताल समुदाय के द्वारा सोहराय पर्व मनाया जाता है. इसके अलावे कुड़मी समुदाय भी इस पर्व को धूम-धाम से मनाते […]

डा. सरस्वती गागराई
सहायक प्राध्यापक, जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग,
रांची विश्वविद्यालय, रांची
सोहराय पर्व झारखंड के आदिवासियों का एक प्रमुख पर्व है. झारखंड के आदिवासियों में मुख्य रूप से हो, मुंडा, खड़िया, उराँव तथा संताल समुदाय के द्वारा सोहराय पर्व मनाया जाता है. इसके अलावे कुड़मी समुदाय भी इस पर्व को धूम-धाम से मनाते हैं. कुड़मी समुदाय इसे ‘बन्दना’ पर्व कहते हैं, वहीं हो, मुंडा, संताल इसे ‘सोहराय’, उरांव समुदाय ‘सोहराई’ तथा खड़िया समुदाय इसे ‘बन्दोई’ पर्व कहते हैं.
यह पर्व हो, मुंडा एवं खड़िया समुदाय के लोग कार्तिक अमावस्या या पूर्णिमा को मनाते हैं किन्तु संताल समुदाय में क्षेत्रीय एवं अन्य विशिष्ट प्रभाव के कारण कुछ लोग आश्विन अमावस्या में एवं कुछ लोग पौष माह में मकर संक्राति से पूर्व धान कटनी एवं संग्रहण के पश्चात मनाते हैं. यह संतालों का मुख्य एवं महत्वपूर्ण पर्व है. यह पर्व मूलतः कृषि एवं पशुधन संवर्द्धन से संबद्ध है. इस पर्व के माध्यम से मनुष्य एवं कृषि कार्य सहयोगी पशुओं के प्रति प्रेम एवं सम्मान प्रकट किया जाता है.
यह पर्व आदिवासियों के बीच आदिकाल से ही प्रचलित रहा है. चूंकि आदिकाल से ही आदिवासियों का जीविका का मुख्य आधार कृषि रहा है. कृषि कार्य करने के लिए गाय-बैलों एवं भैंसों का सहयोग रहा है.
इसलिए इन्हें पशुधन अर्थात् लक्ष्मी माना गया है. सोहराय पर्व के अवसर पर गाय-बैलों की पूजा-अर्चना की जाती है. यह मवेशियों का आदर-सम्मान का पर्व है. इस अवसर पर गोआल घर जहाँ गाय-बैलों को बांधा जाता है, वहां पूजा अर्चना की जाती है. पूजा-अर्चना के दरम्यान इष्ट देवता से सुख, शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं समृद्धि की मंगल कामना की जाती है. इस दिन गाय-बैल एवं सभी मवेशियों को नहलाया जाता है, उन्हें हरी-हरी घास खिलाया जाता है.
हो समुदाय में यह पर्व मुख्य रूप से सिंहभूम के पोड़ाहाट क्षेत्र एवं सरायकेला-खरसवां जिला में मनाया जाता है. वास्तव में यह पर्व हो लोगों से संबंधित नहीं है फिर भी जिन क्षेत्रों में उस समय राठौर वंश के सिंह राजाओं का शासन क्षेत्र था, उन क्षेत्रों में सोहराय मनाने की परंपरा चल पड़ी. संभवतः काफी लंबे समय तक अन्य समुदाय के लोगों के साथ रहने के कारण हो समुदाय की संस्कृति में यह मिश्रित प्रभाव देखने को मिलता है.
हो समुदाय द्वारा यह पर्व कार्तिक अमावस्या के दूसरे दिन मनाया जाता है. इस अवसर पर गोआल घर में ‘गोवां वोंगा’ की पूजा-अर्चना की जाती है. गोवाँ वोंगा से हर प्रकार की रोग और बिमारियों से गाय, बैल एवं अन्य पशु-पक्षियों की रक्षा करने तथा चारों ओर सुख, शांति, समृद्धि लाने की कामना की जाती है. इस अवसर पर तीन विभिन्न रंगों यथा सफेद, लाल एवं काली मुर्गी की बलि दी जाती है. इस दिन गोआल घर में ही भोजन पकाया जाता है. भोजन के रूप में गोटा उरद दाल, भात एवं मांस पकाया जाता है. पके भोजन को सर्वप्रथम गोवां वोंगा को अर्पित की जाती है. तत्पश्चात् गाय-बैलों एवं मवेशियों को सूप में परोसकर खिलाया जाता है.
खिलाने से पूर्व गाय-बैलों एवं अन्य मवेशियों के पैरों व खुरों तथा मुंह को पानी या इलि से धोया जाता है. गाय-बैलों को खिलाने के पश्चात् ही परिवार के सदस्य एवं मेहमान गोआल घर में ही भोजन ग्रहण करते हैं. भोजन करने के पश्चात् शाम को गाय-बैलों एवं अन्य मवेशियों के सींगों, पैर के खुरों एवं पूरे शरीर पर कुजरी का तेल लगाया जाता है. कुजरी तेल लगाने से पशुओं को किसी प्रकार का संक्रमण रोग नहीं होता है.
कुजरी तेल मेडिसिन युक्त होता है. इस दिन गाय-बैलों को विशेष रूप से श्रृंगार किया जाता है. शृंगार करने के लिए उनके शरीर में विभिन्न तरह के रंगों से गोल-गोल आकृतियां बनाई जाती है. उनके सींगों को धान एवं फूलों से सजाया जाता है. उनके माथे पर सिंदूर का टीका लगाया जाता है. गले में गंेदा फूल से निर्मित फूलमाला एवं घंटी बांधी जाती है. बछड़ों को फूलों से शृंगार कर उनके पैरों में घुंघरू बांध दी जाती है. शाम को गोआल घर में मिट्टी के दीये जलाये जाते हैं.
इस दिन रात्रि में गांव के रसिक लोग ढोल, मांदर, नगाड़ा, करताल, घंटा आदि बजाते हुए घर-घर जाकर ‘जालि’ या ‘धिंगवानी’ करते हैं. इस अवसर पर रसिकों द्वारा गाये जाने वाले यह गीत प्रचलित है –
‘‘अरे हो…रेई रेई बाला,
धिंगवानी के गे गेले बाला,
पानी नाहीं पोड़े तो, जुगे-जुगे नामे रोही बो,
पाँच टोंका छाडी कोरे, दोस टोंका दे,
जुगे-जुगे नामे रोही बो.
अरे हो…रेई रेई बाला,
दुई गोडिया छाडी कोरे, चार गोडिया दे,
जुगे-जुगे नामे रोही बो.’’
दूसरे दिन खान-पान होता है एवं संध्या में सूर्यास्त होने से पूर्व कहीं-कहीं पर गांव के चैराह अथवा अखड़ा में बैलों को नचाया जाता है. इसके लिए चैराह अथवा अखड़ा में एक खूंटा गाड़ा जाता है एवं आकर्षक ढंग से सजाया जाता है. खूंटे में मजबूत रस्सी से बैल को बांधा जाता है. इसके पूर्व बैल को धान एवं फूलों से शृंगार किया जाता है एवं थाली में सजी अरवा चावल, सिंदूर एवं दीया आदि से उसकी आरती उतारी जाती है.
इस अवसर पर स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे, युवक-युवतियों एवं रसिकों की जमात होती है. रसिक खूंटा में बंधा बैल को फटा सूप, पटाखे, ढोल, नगाड़ा, मांदर, करताल, घंटा आदि बजाकर नचाते हैं. इसकी ध्वनि सुनकर बैल उछल कूद करने लगता है. इससे सभी आनंदित होते हैं. चारों ओर सोहराय गीत गूंजती है. यह प्रक्रिया सूरज ढलने के साथ ही सोहराय पर्व का समापन होता है.

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