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डॉ रामदयाल मुंडा का काव्य संसार

सावित्री बड़ाईक प्रेम, प्रकृति और प्रतिरोध की कविताएं पद्मश्री राम दयाल मुंडा का व्यक्तित्व बहुआयामी था. 80 के दशक में उनके दो काव्य-संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुए. उनकी कविताओं में स्वप्नशीलता है. वे यथास्थिति को अस्वीकार करके परिवर्तन के पक्ष में खड़े होते हैं. वे परिवर्तन के पक्षधर हैं, उनकी ‘परिवर्तन’ नामक कविता में वर्तमान […]

सावित्री बड़ाईक
प्रेम, प्रकृति और प्रतिरोध की कविताएं
पद्मश्री राम दयाल मुंडा का व्यक्तित्व बहुआयामी था. 80 के दशक में उनके दो काव्य-संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुए. उनकी कविताओं में स्वप्नशीलता है. वे यथास्थिति को अस्वीकार करके परिवर्तन के पक्ष में खड़े होते हैं. वे परिवर्तन के पक्षधर हैं, उनकी ‘परिवर्तन’ नामक कविता में वर्तमान विकराल स्थितियों और विद्रूपताओं का विरोध है.
‘वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत’ काव्य संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण और अद्भुत कविता है ‘कथन शालवन के अंतिम शाल का’. रामदयाल मुंडा ने 80 के दशक में ही घटते जंगल और कटते शालवन को केंद्र में रखकर महत्वपूर्ण कविता लिखी है. याद रहे कि झारखंड आंदोलन के समय 1978 में ‘जंगल आंदोलन’ सफलतापूर्वक चलाया गया. 80 के दशक में ही कोयलकारो आंदोलन चल रहा था. ‘जल, जंगल जमीन हमारा है’ ये शब्द नगाड़े की तरह पूरे छोटानागपुर में बज रहे थे. ऐसे समय में रामदयाल मुंडा जैसे चिंतक, लेखक, संस्कृतिकर्मी अपने सामाजिक दायित्व बोध से कैसे दूर हो सकते थे? वस्तुत: रामदयाल मुंडा ने ही भूमंडलीकरण के पूरे प्रभाव का आकलन सबसे पहले किया था, जिसका परिणाम है वर्ष 2002 में प्रकाशित उनकी किताब ‘आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल’.
रामदयाल मुंडा का पहला हिंदी काव्य संग्रह है– नदी और उसके संबंधी तथा अन्य नगीत. कविताएं छोटी हैं लेकिन कम शब्दों में ही कवि ने गूढ़ बातों को अभिव्यक्त करने में सफलता पाई है. ‘स्थानांतरण’ कविता में आदिवासियों के असम, बंगाल के चाय बगानों की ओर पलायन कर चुके पूर्वजों का स्मरण है – फसल कटाई के बाद पानी/ नहीं होता है अपने मकान में/ नदी को छोड़कर वह चला जाता है/ हिमालय की तराई/ असम के चाय बगान में. रामदयाल मुंडा ने अपनी कविता ‘शिकायत’ में कुछ लोगों की अपार समृद्धि और अधिकांश लोगों की निहायत गरीबी पर व्यंग्यात्मक तरीके से प्रहार किया है– मेरे राजा/कैसी है तुम्हारी यह नहर/पानी कम/ और लंबाई हिसाब से बाहर / पटता है केवल एक छोर/ और बाकी/रह जाता है ऊसर
कवि राम दयाल मुंडा ने आदिवासी संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण पेड़ शाल (सखुआ) के काटे जाने पर चिंता जताते हुए बड़ी ही महत्वपूर्ण कविता लिखी है, ‘कथन शालवन के अंतिम शाल का’. यह कविता ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण के इस संकट के इस दौर में अपने समाज, समुदाय के साथ ही प्रकृति व अपने परिवेश के प्रति सचेत रहने और चिंतन करने के लिए विवश करती है.
रामदयाल मुंडा ने ‘मंत्रसिद्धि’ कविता में सल्गि को केंद्र में रख कर स्त्रियों की जीवन स्थितियों, और जीवन संघर्ष को अभिव्यक्त किया है – ‘औरत का स्थिर जीवन ही इतना दूभर है/ तो उसकी भटकनेवाली जिंदगी की तो/ सिर्फ कल्पना ही कि जा सकती है.
कवि रामदयाल मुंडा ‘पुनर्मिलन’ कविता के द्वारा वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और सत्ता के चरित्र पर तीखा प्रहार किया है. इस कविता में कवि का प्रतिरोधी तेवर देखते ही बनता है. कवि के अनुसार आदिवासियों के जीवन-मूल्य में ही अच्छे समाज के निर्माण की संभावना है.
कवि रामदयाल मुंडा ने वर्ष 1967 में सेलेद (विविधा) नामक गीतों का संग्रह निकाला था. इसकी लोकप्रियता को देखते हुए उन्होंने इसे 2005 में अपने लिखे मुंडारी गीतों को हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया. वे इस काव्यसंग्रह के जरिये पाठकों को आदिवासी संस्कृति, जीवन-मूल्यों, परंपरिक मेला-जतरा, हाट, अखड़ा, पारंपरिक खान-पान, परिधान, पुरखा परमेश्वर सिंङबोंगा आदि से परिचित कराते हैं.
रामदयाल मुंडा की इन पंक्तियों में आदिवासी स्त्री-पुरुष के समानता के भी दर्शन होते हैं और छोटानागपुर में मुंडा आदिवासियों के द्वारा खेत निर्माण की भी ऐतिहासिक स्वीकृति है– “युवक, तुम लोहे का बहिंगा कंधे पर लो/ युवती, तुम मजबूत टोकरी सिर पर लो/ युवती, तुम मजबूत टोकरी सिर पर लो/ हम नया बांध बांधने जा रहे हैं/ हम नया खेत कोड़ने निकल रहे हैं.”
राम दयाल मुंडा का एक महत्वपूर्ण गीत है ‘एक ही खून की नाड़ी है’ इस गीत में वे परस्पर प्रेम, सद्भाव, सौहार्द बढ़ाने की बात करते हैं.व्यक्तिवादिता के बदले वे सामूहिकता, सहयोगिता, सामुदायिकता को आवश्यक मानते हैं– एक ही खून की नाड़ी है/ एक ही सांसों का खिचना है/ एक ही गाने की कड़ी है/ एक ही मांदर की थाप है/ आओ सब हम दोस्ती करें/ हम प्रेम बढ़ाएं. एक ही घेरा है हमारा/ एक ही जमीन है हमारी/ एक ही कार्यशैली हमारी/ एक ही मैदान हमारा/ आओ सब/ आओ सब हम दोस्ती करें/ हम प्रेम बढ़ाएं.
‘नदी और उसके संबंधी तथा अन्य नगीत’ काव्य संग्रह में वे कम शब्दों में और कुछ ही पंक्तियों में अपनी बात पूरी कर लेते थे. वस्तुत: आदिवासी इस धरती के सबसे कम शब्दों को उच्चारने वाले और सबसे कम संसाधनों का उपयोग करने वाले इंसान हैं. रामदयाल मुंडा की कविता ‘वापसी, परिवर्तन, कथन शालवन के अंतिम भााल का, मंत्र सिद्धि, पुनर्मिलन इस कारण लंबी कविताएं हैं.
कवि रामदयाल मुंडा ‘विकास का दर्द’ कविता में आदिवासियों के खिलाफ चलाए जा रहे विभिन्न विकास योजनाओं की कड़ी निंदा करते हैं और वे जंगलों को आरा-मशीन के हवाले किए जाने के खिलाफ हैं. उन्होंने प्रेम और सद्भाव पर बल देते हुए कितनी अच्छी पंक्तियां लिखी हैं– हम ही काम के समय/ हम ही नाच के समय/ हम ही बंधु, हम ही कुटुंब हैं/ आपस में फूल बदलें/ आपस में फूल बदलें/ हम एक साथ गाएंगे, एक साथ नाचेंगे/ साथ नहीं छोड़ेंगे, साथ नहीं छोड़ेंगे.
रामदयाल मुंडा की कविताएं प्रासंगिक और महत्वपूर्ण, ये कविताएं गंभीर हस्तक्षेप करती है और सोचने के लिए विवश करती हैं. रामदयाल मुंडा के ‘वापसी पुनर्मिलन तथा अन्य नगीत’ संग्रह की कविताओं में प्रतिगामी संस्कृति अर्थात पूंजी की संस्कृति और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रतिरोध है. रामदयाल मुंडा की ‘वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत’ का स्वर तीखा है. चौतरफा सांस्कृतिक और आर्थिक हमले को रामदयाल मुंडा ने पहले ही समझ लिया था. प्रकृति, प्रेम, श्रम की महत्ता, सामूहिकता, सहजीविता के दर्शन संभवत: सर्वप्रथम हिंदी में रामदयाल मुंडा की कविताओं में ही होते हैं.

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