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शिक्षक दिवस पर विशेष : विश्वविद्यालयों में व्यावहारिक शिक्षा के पक्षधर रहे डॉ राधाकृष्णन

डॉ बालमुकुंद वीरोत्तम विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य को दिया बढ़ावा, दिलायी स्वायत्तता किसी भी देश के इतिहास, राजनीति, धर्म और समाज में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और राष्ट्र-निर्माण की यह आधारशिला मानी जाती है. देश और समाज का नेतृत्व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग ही करते हैं. अत: प्रत्येक सरकार अपने देश के नागरिकों को […]

डॉ बालमुकुंद वीरोत्तम
विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य को दिया बढ़ावा, दिलायी स्वायत्तता
किसी भी देश के इतिहास, राजनीति, धर्म और समाज में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और राष्ट्र-निर्माण की यह आधारशिला मानी जाती है. देश और समाज का नेतृत्व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग ही करते हैं. अत: प्रत्येक सरकार अपने देश के नागरिकों को अच्छी शिक्षा देने की व्यवस्था करती है.
ब्रिटिश शासनकाल में 1947 तक लार्ड मैकाले द्वारा 1835 में सुझायी गयी शिक्षण व्यवस्था ही प्राय: लागू रही. अनेक आयोगों तथा समितियों के प्रतिवेदनों के बावजूद ब्रिटिशकालीन शिक्षा केवल बाबूवर्ग के सृजन की पर्याय बनी रही. आजादी के वक्त केवल 8 प्रतिशत विद्यार्थी ही शिक्षण संस्थानों में थे. अत: स्वतंत्र भारत में शिक्षा के विकास की अोर विशेष ध्यान दिया गया. इस कार्य में माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के विकास के लिए जो भूमिका ए लक्ष्मण स्वामी की थी, वही विश्वविद्यालय स्तर पर डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान शिक्षाशास्त्री की थी.
आधुनिक भारतीय इतिहास की यह एक विडंबना है कि अंग्रेजों ने भारत को दास बनाये रखने के लिए जिस शिक्षा-व्यवस्था का सृजन किया था, उसी व्यवस्था ने महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, ईश्वर चंद विद्यासागर, सर आशुतोष मुखर्जी तथा डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे राष्ट्र-नेता, शिक्षाविदों तथा महान विभूतियों को जन्म दिया. वर्तमान सदी में भारतीय शिक्षा के पुनरुद्धार में जिन व्यक्तियों का योगदान रहा, उनमें राधाकृष्णन का एक विशिष्ट स्थान था. राधाकृष्णन उच्च कोटि के दार्शनिक, चिंतक, विचारक एवं शिक्षाविद् थे. उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था. प्राध्यापक कुलपति, राजदूत तथा राष्ट्रपति के रूप में उनकी विभिन्न भूमिकाएं थीं, लेकिन यहां हम केवल उनकी शिक्षा नीति की चर्चा करेंगे.
शिक्षा संबंधी डॉ राधाकृष्णन की मान्यताएं देश की प्राचीन संस्कृति से जुड़ी थीं.हालांकि वर्तमान की आवश्यकताओं के प्रति भी वह उतने ही सजग थे. प्राचीन भारत दर्शन, जैन-बौद्ध धर्मशास्त्र, मध्यकालीन वैष्णव साहित्य और पाश्चात्य दर्शन का उनकी शिक्षा नीति पर गहरा प्रभाव था. वह अज्ञान के आवरण को हटाकर शिक्षा को एक आध्यात्मिक आधार प्रदान करने के पक्षधर थे.
राधाकृष्णन चाहते थे कि भारतीय शिक्षा राष्ट्रीय प्रतिभा एवं आदर्शों के अनुरूप हो. वह भारत को विश्व समुदाय में अपना उचित स्थान दिला सके. साथ ही शिक्षा ऐसी हो, जो संशय, संकट और कठिनाई के क्षणों में आत्मविश्वास जगा सके.
‘रेलिजन एंड कल्चर’ शीर्षक ग्रंथ में उन्होंने लिखा, ‘विद्यालयों में हम बालकों को अपने अनरूप ढालने का प्रयास करते हैं, जबकि उन्हें अपने जीवन तथा जगत के साथ तादात्म्य स्थापित करने की शिक्षा दी जानी चाहिए.’ पुन: द प्रजेंट क्राइसिस ऑफ फेथ नामक अपनी रचना में उन्होंने लिखा है कि ‘शिक्षा का उद्देश्य ही विद्यार्थी को सुसंस्कृत मानव के रूप में विकसित करना है.
ऐसा मानव जो अपने नैतिक एवं सामाजिक दायित्व को समझे. भौतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन में तालमेल स्थापित कर सके. अनुशासन, निष्ठा, परित्याग, सहिष्णुता, पूर्वाग्रह शून्यता एवं नवीन विचारों के प्रति खुलापन विकसित कर सके.’ इसी पुस्तक में वे लिखते हैं : राष्ट्रीय शिक्षा हमें इस महान देश के नागरिक के रूप में विकसित करे, राष्ट्रीय एकता की भावना से भर दे और हमारे जीवन को स्वच्छ श्रेष्ठ एवं नि:स्वार्थ स्वरूप प्रदान करे.’
राधाकृष्णन की शिक्षा नीति में नयापन का कभी विरोध नहीं किया गया. आधुनिकता के खिलाफ वह नहीं थे, उसे केवल आत्मा के अनुरूप ढालना चाहते थे. किस युग में किस चीज की प्रधानता होनी चाहिए, वह अच्छी तरह समझते थे. उनका यह युग-बोध 1948 में गठित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में उनके द्वारा की गयी अनुशंसाओं में स्पष्ट परिलक्षित होता है. उस समय भारत में केवल 20 विश्वविद्यालय थे.
उन्हें बदले परिवेश में अधिक उद्देश्यपूर्ण बनाने की दृष्टि से आयोग ने कहा कि स्कूली शिक्षा में इंटरमीडिएट की कक्षा शामिल कर दी जाये और स्कूली पाठ्यक्रम की उम्र 12 वर्ष हो. विश्वविद्यालय का स्तनातकस्तरीय पाठ्यक्रम 3 वर्ष का हो. विश्वविद्यालय अनुसंधान कार्य को बढ़ावा दें. विज्ञान की प्रगति के लिए अच्छी प्रयोगशालाओं की स्थापना की जाये.
व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाये. विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता मिले. अनुदान आयोग बने. कहना नहीं होगा कि डॉ राधाकृष्णन की सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार किया और 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की गयी. विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी गयी, जिसका आगे चल कर कहीं-कहीं दुरुपयोग भी हुआ.
डॉ राधाकृष्णन ने प्राध्यापक, कुलपति, राजदूत तथा राष्ट्रपति के रूप में कृषि, तकनीकी, शिक्षा और चिकित्सा शिक्षा पर भी जोर दिया. फलस्वरूप प्राय: प्रत्येक राज्य में एक अथवा एक से अधिक इन निकायों से संबंधित संस्थाएं स्थापित हुईं. कृषि विज्ञान के लिए तो संभवत: सर्वाधिक संस्थानों की स्थापना हुई.
राधाकृष्णन नारी-शिक्षा के प्रति भी जागरूक थे. उनकी प्रेरणा से भारत में अनेक नारी विद्यालय खुले, जिनमें प्राय: एक करोड़ छात्राएं अध्ययन करने लगीं.
1958 में महिला शिक्षा निमित्त राष्ट्रीय समिति बनी, जिससे नारी शिक्षा के लिए और अधिक प्रचार-प्रसार का मार्ग प्रशस्त हुआ. राधाकृष्णन की शिक्षा-नीति केवल व्यक्तिगत मान्यताओं पर आधारित नहीं थी.
वह पूर्ववर्ती एवं समकालीन अन्य विभूतियों के शिक्षा संबंधी विचारों से भी अत्यधिक प्रभावित हुए थे. गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शैक्षणिक विचारों पर तो उन्होंने एक पूर्ण आलेख ही प्रस्तुत किया था और शांतिनिकेतन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी.
पूर्ववर्ती कालिदास, गुरुनानक, स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, मोतीलाल नेहरू तथा लाल लाजपत राय से तो वह प्रभावित थे ही, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ राजेंद्र प्रसाद और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे समकालीन चिंतकों के विचारों का भी उनकी शिक्षा नीति पर प्रभाव पड़ा. लिविंग विद अ परपस नामक अपनी कृति में इन्होंने इन व्यक्तियों के प्रति ऋणी होने का उल्लेख किया है.
(लेखक रांची विवि के इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं)
Prabhat Khabar Digital Desk
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