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उषाकिरण खान शिल्पी का स्पर्श मेरे अंग-अंग में बस गया. शिल्पी वहां मेरे पार्श्व में गहरी निंद्रा में सो गया था, जिसे उषाकाल की अंशुमालाओं ने जगाया. दिनकर की कोमल किरणों ने पहले सिक्ता राशि पर अपनी प्रभा बिखेरी, उनमें धुले मिले अबरख कणों को सुनहरा किया, मुझे एक आभा प्रदान की तब उसके गंगाजमुनी […]

उषाकिरण खान
शिल्पी का स्पर्श मेरे अंग-अंग में बस गया. शिल्पी वहां मेरे पार्श्व में गहरी निंद्रा में सो गया था, जिसे उषाकाल की अंशुमालाओं ने जगाया. दिनकर की कोमल किरणों ने पहले सिक्ता राशि पर अपनी प्रभा बिखेरी, उनमें धुले मिले अबरख कणों को सुनहरा किया, मुझे एक आभा प्रदान की तब उसके गंगाजमुनी श्मश्रुओं के बेतरतीब केशों को सहलाया.
आंखों के पपोटों तक जाते-जाते तीखे हो गये, फिर तो उठ बैठा, शिल्पी ने चारों ओर दृष्टि निक्षेप किया, सब कुछ नया-नया सा लगा. बड़े-बड़े बादामी सुनहरे रूपहले प्रस्तर खंड रातों रात कहां से उग आये. कुल्हाड़े चलने का स्वर आया, दक्षिणी छोर पर खड़े पीपल की डाली महावत काट काट कर हाथी के लिए गिरा रहा था. विशाल हाथी अनमना सा अधलेटा उसे देख रहा था. वह बेहद नि:संग सा पत्तों को देख रहा था. शायद बुरी तरह थक गया. महावत जब तक इसे पुचकार कर न खिलायेगा यह खायेगा नहीं.
इस विशाल जानवर की सेवा कैसे की जाये किसी को नहीं मालूम. अलबत्ता सजाना-संवारना जानता है. रंग बिरंगे खड़ियों के सहारे उसकी पीठ और कान पर, मस्तक और सूंड़ पर कलाकारी की जाती. शिल्पी ने देखा महावत पेड़ से गिर रही डालियों से कोमल पत्ते हाथी के मुंह में डाल रहा है.
सूंड़ के नीचे मुंह, दोनों ओर दो मोटे और बड़े दांत तलवार से, उहुंक इससे नहीं खाता है, यह विशाल हाथी. यह जरूर किसी और दांत से खाता है. उसका जी करता है कि उसके सूंड़ को हाथ से उठा कर मुंह खोल कर देखें. अभी तो वह महावत के माध्यम से ही देख रहा है.
सूरज की किरणें तीखी हो रही थीं, जिस प्रस्तर खंड के पास वह बैठा है, उसके ऊपर हाथ फिराया, वह भी गरम हो गया था. पर उठा नहीं पा रहा था, उसे बार-बार भान होता था कि यह प्रस्तर खंड इसे कुछ कहना चाह रहा है. मुझे ग्रहण करो शिल्पी, मुझे उकेरो, मुझे संवारो, मैं तुम्हारे ही निकट आयी हूं. वो क्यों तुम जानते हो? इसलिए कि मैं तुम्हारी हूं, तुम्हारी ललिता!’
‘’काका, क्या हुआ? हम तुम्हें ढूंढ्ते ही यहां आये हैं.’- ‘शिल्पी साकांक्ष होकर उठ खड़ा हुआ. देखा, राज्य के परम भट्टारक समक्ष खड़े हैं. रौबदार परम भट्टारक अत्यंत विनम्र भाव से उपस्थित हैं. उन्हें पता है कि वे पाटलिपुत्र के सर्वश्रेष्ठ शिल्पी के निकट आये हैं.
‘महाशय आप?’ -शिल्पी ने प्रणाम करते हुए आश्चर्य प्रकट किया.
‘हां शिल्पी प्रवर, मैं आया हूं तुमसे मिलने! मुझे पता चला था कि तुम अपने गांव से आकर यही साधु संतों सा जीवन जी रहे थे. तुम्हारे साथ हुए हादसे को भी जानता हूं. तुम्हारी प्रेयसी धर्मपत्नी ललिता नहीं रही. अब यह सब तो मनुष्य के हाथ की बात नहीं है. न इस मर्मांतक शोक का शमन हो, ऐसा कोई शब्द हमारे पास है. पर मैं आया हूं, तुम्हारी कला को पुनर्जाग्रत करने. तुम्हारी अर्धांगिनी स्वर्ग में देख कर सुख पायेगी कि तुम उसकी याद में करुणा को समर्पित हो गये हो.
कौन हूं मैं ललिता? तुम कौन हो, सबसे पहले मैं तुम्हें देखना चाहूं, परखूंगा कि तुम हो कौन! विस्मृति के घृणित गर्भ में चीत्कार उठा शिल्पी. तुम घोषा हो? वही घोषा जिसे पिता ने ज्ञान दिया था, जिसने वेद की ऋचाएं लिखी थीं, वह सर्वाग बुद्धि थी, शरीर का सौष्ठव यौवन, सुनबहरी ने लील लिया था.
वह शनै: शनै: चितकबरी हो चली थी. उसकी वाणी में ओज था, छात्र उसे ध्यान से सुनते. पिता कुलपति थे, पर घोषा छात्रों में सर्वाधिक लोकप्रिय थी. स्थिर और मधुर वाणी थी. सभी छात्र-छात्रा एक से नहीं होते. कुछ चमत्कृत करने वाले कुशाग्रबुद्धि छात्र होते और कुछ मध्यम बुद्धि के, कुछ मंद बुद्धि भी होते. श्रुत पाठ को कई-कई बार रटने के बाद भी नहीं याद कर पाते. घोषा उन छात्रों के लिए अतिरिक्त समय निकालती. उन्हें वेदपाठी न बना पाती, फिर भी कम से कम जीवन दर्शन तो समझा पाती.
Prabhat Khabar Digital Desk
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