वित्त वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के समय सार्वभौमिक निश्चित आय स्कीम (यूबीआई) लागू करने की संभावना पर संक्षिप्त चर्चा हुई थी. बीते सोमवार राहुल गांधी के देश में न्यूनतम आय गारंटी योजना लाने के चुनावी वादे के बाद निश्चित आय स्कीम पर फिर से बहस शुरू हो गयी है. कहा यह भी जा रहा है कि सरकार
भी आने वाले बजट में इसे शामिल कर सकती है. इन्हीं संदर्भों के मद्देनजर, न्यूनतम आय गारंटी योजना या सार्वभौमिक निश्चित आय स्कीम की अवधारणा व इतिहास पर केंद्रित आज का इन डेप्थ…
सरकार की इच्छाशक्ति से ही संभव
प्रो अरुण कुमार
अर्थशास्त्री
इस समय सारा देश गांधीजी की 150वीं जयंती वर्ष मना रहा है. गांधी ने कहा था कि अंतिम व्यक्ति की तरफ हमें ध्यान देना चाहिए. इस ऐतबार से यह एक उपयुक्त समय है राहुल गांधी के उस बयान के संदर्भ में कि अगर केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनेगी, तो वह गरीबों के लिए न्यूनतम आय गारंटी योजना लायेगी.
यह एक दार्शनिक बात हो गयी कि कोई सरकार आयेगी, तो वह ऐसा करेगी. लेकिन, हमें यह देखना चाहिए कि दुनिया के पटल पर यह बात चल रही है कि किस तरह से गरीबी दूर करने के लिए न्यूनतम आय की कोई नीति बने. भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रमण्यन ने भी यह बात कही थी.
आखिर क्यों ऐसी बातें हो रही हैं? क्योंकि दुनियाभर में पूंजीवाद एक संकट की तरह है. पूंजीवाद का संकट यह है कि असमानता बेतहाशा बढ़ी है, गरीब और अमीर की खाई और भी गहरी हो गयी है. पूंजीवाद ने कई परेशानियां पैदा की हैं, जिसके चलते एक तरफ यूरोप में ब्रेग्जिट हुआ, जर्मनी, फ्रांस और ब्राजील में दक्षिणपंथी ताकतें आगे आयीं, तो वहीं दूसरी तरफ अमेरिका में ट्रंप जैसा व्यक्ति राष्ट्रपति बना. दुनियाभर की जनता इन सब चीजों से त्रस्त और परेशान है.
एक साल पहले स्विट्जरलैंड में बेरोजगारी भत्ते को लेकर जनमत संग्रह भी हुआ था. इस तरह के विचार पर कनाडा में एक शोध-प्रयोग चल रहा है. दुनिया के कई देश यह सोच रहे हैं कि गरीबों की परेशानी को किस तरह से दूर किया जाये और कोई यूनिवर्सल बेसिक इनकम की नीति आये.
इस संदर्भ में राहुल गांधी का बयान सही समय पर आया है और सरकार को हर गरीब भारतीय के लिए एक न्यूनतम आय की व्यवस्था करनी ही चाहिए, ताकि गरीबी उन्मूलन हो सके और देश तरक्की कर सके.
हालांकि, मौजूदा भारत सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) योजना लाने के बारे में सोच भी रही है. लेकिन, यूनिवर्सल बेसिक इनकम और न्यूनतम आय में फर्क है. यूनिवर्सल बेसिक इनकम का अर्थ है कि अंबानी-अडानी को भी वही आय निर्धारित होगी, जो पटरी-रेहड़ी वालों की होगी. राजनीतिक रूप से यह संभव नहीं है कि हम आम जनता के साथ-साथ अंबानी को भी पैसा दें.
इसलिए न्यूनतम आय की अवधारणा ज्यादा सही है और इसमें खर्च भी बहुत कम आयेगा. करीब 20-25 प्रतिशत अतिगरीब लोगों के लिए न्यूनतम आय के रूप में किया जानेवाला खर्च यूनिवर्सल बेसिक इनकम खर्च से बहुत कम आयेगा. अगर यूनिवर्सल बेसिक इनकम में जीडीपी का चार या साढ़े चार प्रतिशत खर्च होगा, तो न्यूनतम आय योजना में जीडीपी का सिर्फ डेढ़ या सवा प्रतिशत ही खर्च होगा. लेकिन, यहां पर समस्या यह है कि इन 20-25 अतिगरीब लोगों की पहचान कैसे की जायेगी?
गरीब कौन है, इसकी पहचान के लिए सोशल इकोनॉमिक सर्वे का सहारा लिया जा सकता है. राज्यों से भी मदद ली जा सकती है कि वे अपने यहां रह रहे अतिगरीबों की पहचान करें. इनके बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की व्यवस्था सुुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम आय जैसी योजनाएं बहुत जरूरी हैं. अगर इन्हें मदद नहीं दी गयी, तो ये हमेशा ही गरीब रहेंगे और अगर इनकी संख्या बढ़ी, तो यह किसी भी देश के लिए ठीक नहीं है. न्यूनतम आय के लिए यहां पर एक प्रश्न संसाधनों का आता है कि वह कहां से आयेगा. आ जायेगा, इसे ऐसे समझते हैं.
ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सिर्फ 9 लोग ऐसे हैं, जिनके पास नीचे के 55 प्रतिशत लोगों की संपत्ति के बराबर संपत्ति है. इन अमीरों पर अगर वेल्थ टैक्स लगाया जाये (जो पहले लगता था मगर खत्म कर दिया गया है), तो समाधान निकल आयेगा.
अमेरिका में अमीर लोग मरने से पहले अपना पैसा दान कर देते हैं, जो गरीबों के काम आता है. यह काम यहां भी हो सकता है. जिस तरह से सड़क बनाने के लिए पेट्रोल पर सेस लगाया जाता है, उसी तरह गरीबों की शिक्षा के लिए इनकम टैक्स और कॉरपोरेशन टैक्स पर सेस लगाया जा सकता है. कुल मिलाकर इन सब चीजों को करने के लिए सरकार के पास इच्छाशक्ति हाेनी चाहिए, जो कि फिलहाल नहीं दिखती. राहुल गांधी जो कह रहे हैं, वह सरकार की इच्छाशक्ति से ही संभव हो सकता है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
क्या है न्यूनतम आय गारंटी योजना व यूबीआइ?
यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) उस निश्चित आय को कहते हैं, जिसे सरकार देश के नागरिकों को प्रतिमाह देती है. यह सार्वभौमिक योजना व्यक्ति को अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए बिना शर्त निश्चित आय का अधिकार प्रदान करती है. इसके पीछे यह सोच काम करती है कि एक समाज की पहली प्राथमिकता अपने लोगों के अस्तित्व को बचाने की होनी चाहिए.
बेसिक इनकम अर्थ नेटवर्क (बीआइइएन) के अनुसार, यूनिवर्सल बेसिक इनकम योजना एक सावधिक नकदी भुगतान योजना है, जो बिना शर्त व्यक्तिगत आधार पर वितरित किया जाता है. न्यूनतम आय गारंटी योजना यूबीआई से केवल इस मामले में अलग है कि इसमें किसी खास आबादी को न्यूनतम आय के लिए चुना जा सकता है, जबकि यूबीआइ की अवधारणा की तीन मुख्य विशेषताएं हैं: सार्वभौमिकता, कोई शर्त न होना और अधिकार.
भारत में इसकी चर्चा केंद्रीय वित्त मंत्रालय आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के समय ही उठी थी, जब आधार से जुड़े खातों में सीधे नकद हस्तांतरण की संभावना देखी गयी थी. भारत जैसे देश के लिए न्यूनतम आय गारंटी योजना महत्वपूर्ण साबित हो सकती है, जहां गरीबी है, किसानों आत्महत्या का संकट है, असंगठित, निम्न-कौशल वाले कर्मचारी व भूमिहीन मजदूरों की संख्या करोड़ों में है.
न्यूनतम आय गारंटी
फायदे
हर दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की तरह न्यूनतम आय गारंटी या यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम के भी अपने फायदे और नुकसान हैं. ईरान जैसे देशों में यूबीआई के प्रयोग पर किये गये अध्ययन में पाया गया है कि नकद हस्तांतरण प्राप्त करने के बाद लोगों ने अपनी नौकरियां नहीं छोड़ी, न ही उन्होंने अपने काम के घंटे कम किये थे.
किसी भी इंसान के लिए आय का नियमित स्रोत होना उसे बेहतर अवसर के लिए इंतजार करने या पारिश्रमिक के मामले में उच्च वेतन की मांग करने का मौका भी प्रदान कर सकता है. इसके अतिरिक्त, ओंतारियो जैसी जगहों पर यूबीआई योजना के परीक्षण के बंद हो जाने के बाद लाभार्थियों ने इसकी समीक्षा में कहा था कि इस स्कीम की मदद से उच्च शिक्षा हासिलकर या कौशल क्षमता बढ़ाने वाले कोर्स पढ़कर अपनी योग्यता में बढ़ोतरी भी की जा सकती है. विभिन्न अनुसंधानों से पता चलता है कि ढेर सारी कल्याणकारी योजनाओं के लागू करने की तुलना में यूबीआई जैसे नकद हस्तांतरण कार्यक्रम अधिक फायदेमंद साबित हो सकते हैं.
इस स्कीम से नौकरशाही की बंदरबांट में कटौती होगी और सामानों के वितरण की प्रशासनिक लागत भी समाप्त करने में सफलता मिलेगी. लोग अपनी जरूरतों को बेहतर समझ सकते हैं और यूबीआई जैसी योजनाओं से वे अधिक कुशलता से अपने उपयोगानुसार आवंटित धन का इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके अलावा, सार्वभौमिक योजना होने के कारण, यह लोगों को जरूरत-आधारित कार्यक्रमों से जुड़े होने के उस सामाजिक कलंक से बचाती है, जिसके अंतर्गत होने से अयोग्य और अवांछनीय होने का तमगा थमा दिया जाता है.
चुनौतियां
कुछ चुनौतियां भी है, जिनका सामना इस स्कीम के तहत करना पड़ सकता है. बेसिक इनकम स्कीम के तहत मुफ्त नकद देने से सबसे पहला डर तो यही पैदा होता है कि इससे लोग आत्मसंतुष्ट हो सकते हैं और जरूरतों को पूरा करने के लिए रोजगार की तलाश नहीं छोड़ सकते हैं. जबकि यूबीआई स्कीम शुरू करने के पीछे का विचार स्वचालन (ऑटोमेशन) का मुकाबला करने का होता है. लोगों के पास हर परिस्थिति में धन की उपलब्धता बनी रहे, यह भी इस नीति के आधारों में से एक होता है. लेकिन, यह स्कीम लोगों के मन से काम करने का प्रोत्साहन ही छीन सकती है.
सभी के पास नकद उपलब्धता से मुद्रास्फीति अत्यधिक हो जाने का जोखिम पैदा है, क्योंकि मांग में वृद्धि बढ़ती जायेगी. मांग को पूरा करने के क्रम में, आपूर्ति में कोई भी कमी अगर आती है तो मूल्यवृद्धि होगी और महंगाई भी बहुत बढ़ सकती है, जिससे सभी के एक साथ वापस पुरानी दशा में पहुंच जाने का खतरा पैदा हो सकता है. यूबीआई योजना का प्राथमिक उद्देश्य गरीबी खत्म करना है और लोगों के जीवनस्तर में सुधार करना है, लेकिन बेतहाशा मुद्रास्फीति इस योजना के मूल विचार को ही पलट सकता है.
इसके अलावा, अगर प्रशासन यूबीआई कार्यक्रम लागू करता है, लेकिन बेरोजगार लाभार्थियों को जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त राशि आवंटित नहीं करती है, तो विवाद का कारण भी बन सकती है. इसलिए, यूनिवर्सल बेसिक इनकम या न्यूनतम आय गारंटी योजना को लागू करने से पहले इनकी व्यावहारिकता की गहराई से परख और सभी बिंदुओं पर विचार-विमर्श करना जरूरी है.
इन देशों में लागू हो चुकी है यूबीआई
फिनलैंड : यूबीआई योजना की तर्ज पर ही जनवरी 2017 में फिनलैंड ने एक योजना शुरू की. इसके लिए 25 से 58 वर्ष के दो हजार लोगों को चुना गया और उन्हें 560 यूरो (640 डॉलर) प्रतिमाह देना शुरू किया. जो लोग नौकरीपेशा थे, उन्हें भी समान राशि दी जाती थी. हालांकि जनवरी 2018 में इस योजना को बंद कर दिया गया. यूबीआई की तर्ज पर किसी योजना को शुरू करनेवाला फिनलैंड पहला यूरोपीय देश था.
कनाडा : कनाडा के प्रांत आेंटारियो ने 2017 से 2018 के बीच यूबीआई के परीक्षण को लेकर एक परियोजना चलाई थी. कई दशकों में इस योजना का परीक्षण करनेवाला कनाडा पहला उत्तर अमेरिकी देश था.
इस पायलट परियोजना में 18 से 64 साल के 4,000 वैसे लोग शामिल थे, जो हेमिल्टन, थंडर बे और लिंडसे में बेहद कम आय में गुजारा कर रहे थे. 150 मिलियन कनाडाई डॉलर की यह परियोजना तीन वर्षों तक चलने वाली थी लेकिन जून में आेंटारियों में चुनाव हो जाने के बाद इसे अचानक से बंद कर दिया गया.
अमेरिका : अमेरिका के कई शहरों में समय-समय एक विकल्प के तौर पर यूबीआई को लेकर परीक्षण किये गये हैं और कई शहरों में इसे लागू करने पर विचार हो रहा है.
अलास्का परमानेंट फंड भी इसी तरह की योजना है और इसे यूबीआई की तरह का ही विकल्प माना जा सकता है. 1982 से ही इस फंड के जरिये राज्य के तेल राजस्व से लेकर उत्तरी अमेरिका के सभी स्थायी निवासियों के लिए आंशिक मूल आय (पार्शियल बेसिक इनकम) का भुगतान किया जा रहा है.
ईरान : इस देश ने वर्ष 2011 में एक प्रयोग के तौर पर यूबीआई की शुरुआत की थी, जिसके तहत औसत घरेलू आय का 29 प्रतिशत प्रतिमाह दिया जाता था.
नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, न्यूजीलैंड, नामिबिया, जर्मनी और स्कॉटलैंड, जाम्बिया, पाकिस्तान में भी प्रयोग के तौर पर बेसिक इनकम योजना लागू की जा चुकी है.
भारत में भी हुआ है इस योजना पर काम
वर्ष 2011-12 में मध्य प्रदेश के कुछ गांव में न्यूनतम आय गारंटी की शुरुआत की गयी थी. यूनिसेफ द्वारा वित्त पोषित इस योजना के तहत एक ही समय दो परीक्षण शुरू किये गये. पहले परीक्षण के तहत आठ आैर दूसरे के तहत दो आदिवासी गांवाें में न्यूनतम आय गारंटी योजना की शुरुआत हुई.
योजना के तहत आठ गांवों के 6,000 लोगों को 12 से 17 महीने तक नकद राशि प्रदान की गयी थी. इन गांवों के प्रत्येक वयस्क को 200 और बच्चे को 100 रुपये प्रतिमाह एक महीने तक दिये गये और बाद में यह राशि बढ़ाकर क्रमश: 300 और 150 कर दी गयी.
दूसरी परीक्षण योजना के तहत चुने गये आदिवासी गांवों में से एक गांव के प्रत्येक वयस्क को 300 रुपये और बच्चे को 150 रुपये प्रतिमाह दिया गया, जबकि दूसरे गांव के लोगों के साथ ऐसा नहीं किया गया. इन परीक्षण योजनाओं के सकारात्मक नतीजे देखे गये. तेलंगाना ने पिछले वर्ष यूबीआई की ही तर्ज पर किसानों के लिए ‘रयथु बंदु’ योजना की शुरुआत की.
किसानों और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की सहायता के लिए हाल ही में ओडिशा सरकार ने भी कालिया (कृषक असिस्टेंट फॉर लाइवलिहुड एंड इनकम ऑगुमेंटेशन) नामक योजना लॉन्च की है.