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समय के साथ चलने वाला बायस्कोप

पुस्तक बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएं लेखक डॉ मुसाफिर बैठा, डॉ कर्मानंद आर्य प्रकाशक बोधि प्रकाशन, जयपुर मूल्य 399 ₹ हिंदी की दलित कविता का यह बायस्कोप ऐसा है, जो कभी ख़त्म न होगा, हमेशा चलता ही रहेगा. यह उम्मीद की कविता जो है और एक दलित आदमी को यह बात अच्छी तरह मालूम है […]

पुस्तक बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएं
लेखक डॉ मुसाफिर बैठा, डॉ कर्मानंद आर्य
प्रकाशक बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य 399 ₹
हिंदी की दलित कविता का यह बायस्कोप ऐसा है, जो कभी ख़त्म न होगा, हमेशा चलता ही रहेगा. यह उम्मीद की कविता जो है और एक दलित आदमी को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि उम्मीद किसी से छूट जाये, तो वह आदमी अगर झुंड में है तो वह झुंड से अलग रह जाता है. फिर कोई बायस्कोप अगर छप्पन कवियों की तीन सौ तैंतीस कविताओं के साथ चल रहा हो, तो जाहिर है, यह बायस्कोप, चलता ही रहेगा अनंत दिवसों तक. इस ‘बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएं’ कविता-संकलन का संपादन समकालीन दलित हिंदी कविता के दो जरूरी कवि डॉ मुसाफिर बैठा और डॉ कर्मानंद आर्य ने किया है. काम बड़ा है. ऐसे बड़े काम कविता के क्षेत्र में कम हुए हैं.
खास कर बिहार-झारखंड में. ऐसे बड़े काम करते हुए इस बात की आशंका बनी रहती है कि काम पूरे होंगे अथवा नहीं और अगर पूरे होंगे तो कितने सफल होंगे. इसके अतिरिक्त दलित कविता के सागर से वैसे कवियों को भी ढूंढ़ निकालना, जो अज्ञात कुलशील से हैं, यह अलग जोखिम भरा काम है. इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यहां सारे अज्ञात कुलशील कवि शामिल हैं. और यह सुख कर है.
‘बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएं’ के कवि बस दलित-दलित खेल कर किसी और रास्ते निकल जाने वाले कवि नहीं हैं, न मात्र कौतुक के कवि हैं. ये कवि उस मजबूत पेड़ की तरह हैं, जो पेड़ भारी आंधी-तूफान में बचा रहता है.
बचे रह कर जीवन-स्वर को दूर तक फैलाता रहता है, ‘मेरा अस्तित्व / घृणा और प्रेम का अलग द्वीप नहीं है / नदी का तट ही नदी का प्रारब्ध है (‘मेरा धर्म’ / परमानंद राम / पृष्ठ : 56 ).’ हर कवि की अपनी संवेदना होती है. कोई कवि धूप में तपता है और कोई बारिश में नहाता है. कोई कवि मेहनतकशों के साथ उठता-बैठता है और कोई संगीत सुनता है, ‘मैंने चाहा / उड़ कर तेरे पास पहुंच जाऊं / पर सूर्य जलने लगा और / पंख मोम हो गये (‘निस्सारता की सीढ़ी’ / विनोद कुमार चौधरी / पृष्ठ : 67 ).’ दलित कविता के साथ यह फिकरा जोड़ दिया गया है कि ये कविताएं बस आक्रोश दिखाती हैं, फिर कहीं गायब हो जाती हैं. यानी चीख-चाखकर कहीं मुंह छिपा कर बैठ जाती हैं.
मेरे ख्याल से यह फिकरा दलित कविता को छोटा करने की कोशिशभर है. सच्चाई कुछ और है, ‘जिन्होंने / सरसों के फूल खिलाये / खुद पीला पड़ कर / वे अभिशप्त हैं आज तक / गायब है उनके जीवन से / उनके हिस्से का वसंत ( ‘उनके हिस्से का वसंत’ / अरविंद पासवान / पृष्ठ : 133 )।’ ये कविताएं मस्त या अघाये हुए कवियों की कविताएं न होकर उन कवियों की कविताएं हैं, जिन्होंने जीवन के कठिन दिनों को निकट से देखा-परखा है, ‘हावड़ा के पीलखाना मैदान से जब / देवी प्रसाद मिश्र की कविता / ‘मैं मुसलमान हूं’ / पर ताली पीटकर लौटा / अब्बू से बहुत पिटा ( ‘सुन्नत’ / जय प्रकाश फाकिर / पृष्ठ : 147).’ संकलन के अन्य कवियों में प्रह्लाद चंद्र दास, कीर्त्यानंद ‘कलाधर’, बीआर विप्लवी, जियालाल आर्य, अजय यतीश, विपिन बिहारी, बुद्धशरण हंस, आरपी घायल, देवनारायण पासवान ‘देव’, कावेरी, रमाशंकर आर्य, सौरभ आर्य, कपिलेश प्रसाद, अंजु कुमारी बौद्ध, दिलीप कुमार राम, सूर्यनारायण ‘सूरज’, हुबलाल राम ‘अलकहा’, माया, मिराक सूरजापुरी, बिपिन बिहारी टाईगर, कृष्ण चंद्र चौधरी, सुनील कुमार ‘सुमन’, गंगा प्रसाद, उमेश कुमार ‘रवि’, कर्मानंद आर्य, मुसाफिर बैठा आदि अपने समय की बर्बर ताकतों का बखूबी विरोध करते हैं. संपूर्णता में कहें तो यह संकलन समकालीन दलित कविता का एक ऐसा उत्खनन है, जो हमारे काम का है.
ये कविताएं बस आदमी के हताशा की कविताएं न होकर आदमी के पूरे जीवन की कविताएं हैं. कविता के इस जीवन में रोआ-रोहट है, रंग-ढंग है, हार-जीत है, घृणा है, जोश है, विप्लव है, हिंसा है, अकेलापन है, संघर्ष है, षड्यंत्र है, शत्रु है, नेता है, शतरंज है, चाल है, गान है, नौहा है और प्रेम भी है.
समीक्षा : शहंशाह आलम

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