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स्वास्थ्य सेवाओं में भारत 145वें स्थान पर ठोस नीतिगत पहल जरूरी

विख्यात शोध पत्रिका ‘द लैंसेट’ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है. वर्ष 1990 में हम 153वें पायदान पर थे और ताजा सूची 2016 के अध्ययन पर आधारित है. ढाई दशकों में भारत के प्रदर्शन में मात्र 16.5 […]

विख्यात शोध पत्रिका ‘द लैंसेट’ की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है. वर्ष 1990 में हम 153वें पायदान पर थे और ताजा सूची 2016 के अध्ययन पर आधारित है. ढाई दशकों में भारत के प्रदर्शन में मात्र 16.5 अंकों की बढ़त हुई, जबकि वैश्विक औसत 54.4 अंकों का है. देश के भीतर भी सेवाओं की उपलब्धता विषम है. बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद हमारे यहां स्वास्थ्य पर कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का सिर्फ 3.9 फीसदी खर्च किया जाता है. सरकारी खर्च तो सवा एक फीसदी से भी कम है. वैश्विक स्तर पर जीडीपी के अनुपात में खर्च का औसत छह फीसदी है. देश में स्वास्थ्य की दशा और दिशा के विविध आयामों के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-दिनों…

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की जरूरत

लैंसेट ने वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक जारी कर जो बातें बतायी हैं, उन पर हम सबको गौर करना चाहिए. निश्चित रूप से हमारे देश में लोगों के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था की दृष्टि से यह एक चिंताजनक तस्वीर है. इस तस्वीर को बदलना ही होगा, तभी हम लोगों के जीवन को रोगरहित बना पायेंगे और एक स्वस्थ भारत का निर्माण कर पायेंगे. शहरी भारत में स्वास्थ्य की सभी सुविधाएं मौजूद हैं. शहरी लोगों के पास पैसा भी है, इसलिए वे निजी अस्पतालों में इलाज करा लेते हैं. लेकिन, हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बहुत सी चीजों के अभाव के साथ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच का भी अभाव है.

हमारे देश की एक बड़ी संख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है, इसलिए इस क्षेत्र में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सर्वांगीण पहुंच जरूरी है, नहीं तो मौजूदा तस्वीर का बदल पाना मुश्किल है. जन-स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए जिला अस्पतालों को अपग्रेड करने की ज्यादा जरूरत है और उसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में सभी जरूरी मेडिकल सुविधाओं के साथ-साथ जांच की व्यवस्था भी हो.

ऐसा करके हम भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं और यह सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में भी सहायक होगा. हमारी सेहत अच्छी होती है, तो हम ज्यादा काम करते हैं और आर्थिक रूप से भी मजबूत होते जाते हैं. इसके लिए दो चीजों की जरूरत है, एक तो जन-स्वास्थ्य की प्रभावी सरकारी नीतियां बनें और दूसरे इन नीतियों के सही तरीके से क्रियान्वयन के लिए जागरूकता फैलायी जाये.

सरकार ने पिछले बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए अहम घोषणाएं की थीं. सरकार ने बजट में सभी को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना या आयुष्मान जैसी नीतियों से ही आम लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करायी जा सकती हैं. हमें ऐसी ही नीतियों की जरूरत है, जो जन-स्वास्थ्य सेवाओं की सर्वसुलभता सुनिश्चित कर सकें. इस योजना के तहत जो पचास करोड़ लोगों के स्वास्थ्य के बीमा की बात कही गयी है, यह बहुत शानदार तो है,

लेकिन जरूरत इस बात को सुनिश्चित करने की है कि इसका क्रियान्वयन कितनी ईमानदारी से होता है. इस बीमा योजना से समाज के गरीब तबके के लोगों की सेहत सुधरेगी और उनको आर्थिक तौर पर मजबूत करने में मदद भी मिलेगी, क्योंकि तब गरीबों को इलाज के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा. उम्मीद तो है कि सरकार इसे बेहतर तरीके से लागू करे. गांव और गरीबों के जीवन में सार्थक बदलाव लाने और गरीब से गरीब आदमी को भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मिले, इसके लिए छोटे-बड़े सभी सरकारी अस्पतालों में तमाम मेडिकल सुविधाओं को उपलब्ध कराना होगा. स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का न सिर्फ लोगों की सेहत पर असर पड़ता है, बल्कि समाज की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ता है. जब आर्थिकी पर असर पड़ेगा, तो जाहिर है, हम अभावग्रस्त होकर कई अन्य और गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो सकते हैं. इसका नतीजा लांसेट जैसी सूचकांकों में या फिर तमाम रिपोर्टों में हमारा खराब प्रदर्शन के रूप में होगा.

नीति आयोग के हेल्थ इंडेक्स में केरल टॉप

नीति आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर राज्यों की रैंकिंग जारी की है. इसमें पिछले साल के मुकाबले स्वास्थ्य संबंधी सूचकों और उनमें हुए गुणवत्तापूर्ण सुधारों को फोकस किया गया है. इसमें टॉप पांच और बॉटम पांच राज्य इस प्रकार हैं :

भारत में स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च बहुत कम

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च बहुत कम है. देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति औसतन 69 डॉलर खर्च किया गया था वर्ष 2013 में. वर्ष 2017 में यह 58 डॉलर ही रहा. दूसरी ओर दक्षिण एशिया के कई देशों में इस मद में भारत से कहीं अधिक खर्च किया जाता है.

देश स्वास्थ्य पर खर्च

मलयेशिया 418

चीन 322

थाइलैंड 247

फिलीपींस 115

इंडोनेशिया 108

नाइजीरिया 93

श्रीलंका 88

(नोट : खर्च औसतन प्रति व्यक्ति डॉलर में, आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार)

हेल्थ सेक्टर में जीडीपी प्रतिशत

स्वास्थ्य सेक्टर में जीडीपी के प्रतिशत के सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो दक्षिण एशियाइ देशों के मुकाबले भारत में यह बहुत कम (1. 3 %) है.

देश स्वास्थ्य पर खर्च

मलयेशिया 4.2

चीन 6.0

थाइलैंड 4.1

फिलीपींस 4.7

इंडोनेशिया 2.8

श्रीलंका 3.5

पाकिस्तान 2.6

(नोट : खर्च जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर है और आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार)

बड़े शहरों तक सीमित स्वास्थ्य सेवाएं

70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है.

30 फीसदी भारतीय हर साल स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च के कारण गरीबी रेखा के दायरे में आ जाते हैं.

20 फीसदी वैश्विक बीमारियों का बोझ अकेले भारत झेल रहा है.

30 फीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं देशभर में.

1,000 आबादी पर केवल एक डॉक्टर, 1.3 नर्स और 1.1 बेड हैं भारत में.

किस विधा में कितने विशेषज्ञ

मेडिकल विशेषज्ञ संख्या

एलोपैथी डॉक्टर 10,22,859

डेंटल सर्जन 1,97,734

आयुष प्रैक्टिशनर 7,71,468

सहायक नर्स 8,21,147

सरकारी डॉक्टर 1,13,328

नोट : महाराष्ट्र में सर्वाधिक रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं. यहां इनकी संख्या 1,53,513 है, (स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन)

भारत में मेडिकल एजुकेशन

मेडिकल एजुकेशन संख्या छात्रों की संख्या

मेडिकल कॉलेज 462 56,748

डेंटल (बीडीएस) 309 26,790

डेंटल (एमडीएस) 242 6,019

नर्सिंग 3,123 1,25,764

फार्मेसी 777 46,795

(स्रोत : नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार)

सरकारी बनाम निजी अस्पताल

भारत में प्राइवेट सेक्टर में स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं. लेकिन सरकारी क्षेत्र में इसका विस्तार नहीं हो रहा है. लिहाजा, बड़ी आबादी को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा से वंचित रहना पड़ रहा है. करीब 72 फीसदी ग्रामीण आबादी को प्राइवेट हेल्थकेयर सेवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है देशभर में.

क्या है लैंसेट की रिपोर्ट

मेडिकल जर्नल ‘लैंसेट’ में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में स्वास्थ्य सेवा के उपयोग और उसकी गुणवत्ता यानी एचएक्यू (हेल्थकेयर एक्सेस एंड क्वालिटी) के मामले में भारत 41.2 अंकों के साथ 145वें स्थान पर रहा. यहां भारत, चीन (48), श्रीलंका (71), दक्षिण एशियाई देशों बांग्लादेश (133) और भूटान (134) से भी पीछे है. लेकिन नेपाल (149), पाकिस्तान (154) और अफगानिस्तान (191) से आगे है. यह रिपोर्ट ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज’ के 1990 से 2016 के बीच 195 देशों व क्षेत्रों के साथ-साथ वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर किये गये अध्ययन पर आधारित है. इस सूचकांक में मृत्यु के उन 32 कारणों को आधार बनाया गया है, जिन्हें प्रभावी चिकित्सा देखभाल के जरिये रोका जा सकता है. इस अध्ययन ने प्रत्येक देश को शून्य से 100 के बीच एचएक्यू अंक दिये हैं.

यूपी व असम की स्थिति िचंताजनक

इस रिपोर्ट के मुताबिक, अगर भारतीय राज्यों की बात की जाये, तो उत्तर प्रदेश और असम की स्थिति देशभर में सबसे खराब है. इन दोनों ही राज्यों को 35.9 एचएक्यू अंक से भी कम प्राप्त हुए हैं. भारतीय राज्यों में केरल व गोवा ने 60 से अधिक एचएक्यू अंक प्राप्त कर सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. वहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय व मणिपुर सहित अन्य राज्यों ने इस सूचकांक में 35.9 से 44.8 के बीच अंक प्राप्त किया है.

स्किन कैंसर में भारत की दयनीय दशा

भले ही वर्ष 1990 के 24.7 और 2000 के 28.0 एचएक्यू अंकों की तुलना में 41.2 अंकों के साथ 2016 में भारत ने अपनी स्थिति में सुधार किया है, लेकिन मृत्यु के 32 कारणों में से 24 में हमारे देश को 50 से भी कम अंक मिले हैं. स्किन कैंसर के मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है और यहां उसने महज 12 अंक ही प्राप्त किया है, जबकि हॉजकिंस लिम्फोमा के लिए 18 व नवजात मृत्यु के लिए उसे 24 अंक मिले हैं. टीबी, जो भारत के लिए चिंता का विषय है, उसके लिए 30 एचएक्यू अंक मिले हैं. इस अध्ययन के अनुसार, रुमेटिक हार्ट डिजीज, इस्केमिक हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, टेस्टिकुलर कैंसर, कोलोन कैंसर, क्रॉनिक किडनी डिजीज आदि बीमारियों को लेकर भारत का प्रदर्शन बेहद लचर है.

रिपोर्ट से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

ऐसा पहली बार हुआ है, जब लैंसेट ने एचएक्यू के आधार पर सात देशों- भारत, ब्राजील, चीन, इंग्लैंड, जापान, मेक्सिको व अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े आंकड़ों को प्रकाशित किया है.

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2000-2016 के बीच वैश्विक स्तर पर अनेक देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया है. इन देशों में कम व मध्यम आय वाले उप-सहारा मरुस्थल के अफ्रीकी देश व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ इथोपिया, रवांडा, इक्वेटोरियल गिनी, म्यांमार व कंबोडिया शामिल हैं. वहीं, अमेरिका और प्यूर्टोरिको, पनामा व मेक्सिको जैसे लैटिन अमेरिकी देशों की प्रगति स्वास्थ्य के मामले में थम सी गयी है या उसमें कमी आयी है.

आइसलैंड, नॉर्वे व नीदरलैंड स्वास्थ्य सेवा के उपयोग व गुणवत्ता के मामले में उच्चतम स्तर पर हैं जबकि सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिकन, सोमालिया और गिनी-बिसाउ न्यूनतम स्तर पर हैं.

42.2 एचएक्यू अंक था वर्ष 2000 में वैश्विक औसत, जो 2016 में बढ़कर 54.4 पर

पहुंच गया.

13.5 अंक प्राप्त हुआ था न्यूनतम सोमालिया को वर्ष 2000 में, जबकि आइसलैंड को अधिकतम 92.1 अंक प्राप्त

हुआ था.

18.6 अंक न्यूनतम हासिल हुए वर्ष 2016 में सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक को और आइसलैंड को अधिकतम 97.1 अंक मिले.

नोट : इन दोनों वर्षों में सबसे खराब व सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों के बीच अंकों का अंतर (वर्ष 2000 के 79.3 व वर्ष 2016 में 78.5 अंक) लगभग एक समान ही रहा.

बेहतर प्रदर्शन करनेवाले

शीर्ष पांच देश

देश अंक

आइसलैंड 97.1

नॉर्वे 96.6

नीदरलैंड 96.1

लक्जमबर्ग 96.0

फिनलैंड व ऑस्ट्रेलिया 95.9

सबसे खराब प्रदर्शन

करनेवाले पांच देश

सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक 18.6

सोमालिया 19.0

गिनी-बिसाउ 23.4

चाड 25.4

अफगानिस्तान 25.9

(नोट : प्रदर्शन एचएक्यू अंकों के आधार पर )

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