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याद है आपको ‘जीनियस इन ट्राइबल डांस’ जुलियस तिग्गा
कोरनेलियुस मिंज झारखंड में एक कहावत है- “चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत.” इसे मुंडारी में कहा जाता है सेनगे सुसुन काजी गे दुरंग. उरांव समुदाय के लोग कहते हैं “एकना दिम तोकना और बअना दिम पाड़ना.” डॉ रामदयाल मुंडा कहते थे- “जे नाची से बांची.” इस कहावत को जुलियस तिग्गा ने अपने […]
कोरनेलियुस मिंज
झारखंड में एक कहावत है- “चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत.” इसे मुंडारी में कहा जाता है सेनगे सुसुन काजी गे दुरंग. उरांव समुदाय के लोग कहते हैं “एकना दिम तोकना और बअना दिम पाड़ना.”
डॉ रामदयाल मुंडा कहते थे- “जे नाची से बांची.” इस कहावत को जुलियस तिग्गा ने अपने जीवन में पूरी तरह से उतारा. नृत्य कला में उनकी गहरी रुचि थी. नृत्य की सभी विधाओं में पारंपगत थे. उन्होंने ही सबसे पहले अपनी टीम के साथ आजादी के बाद उरांव लोक नृत्य को 26 जनवरी के दिन दिल्ली में प्रस्तुत किया था. जुलियस तिग्गा लोक नृत्य में इतने माहिर थे उन्हें जीनियस ऑफ ट्राइबल डांसर कहा जाता था. ऐसे महान हस्ती को आज आदिवासी समाज बिसरा दिया है. उन्हें अब याद भी नहीं किया जाता है.
अब की पीढ़ी उन्हें याद भी नहीं करती. जुलियस तिग्गा रांची जिला के मुड़मा के नजदीक ब्राम्बे गांव के रहने वाले थे. उनका जन्म 13 अक्टूबर 1903 को हुआ था. इसके बाद गोस्सनर मिडल स्कूल रांची में अध्ययन किया.
उनके माता-पिता गुमला में रहते थे इसलिए उनकी प्रारंभिक शिक्षा गुमला में हुई. वर्ष 1926 में रॉबिन शॉ कॉलेज, कटक ओड़िशा से दर्शनशास्त्र में स्नातक किया. बचपन से ही धर्म, संस्कृति, परंपरा के प्रति उनका रुझान रहा था. यही कारण है कि आदिवासी गीत-संगीत और नृत्य में उनकी अच्छी पकड़ हो गयी थी.
वे उरांव समाज में एक अच्छे लोक कलाकार में रूप जाने जाते थे. आदिवासी समाज की संस्कृति के अच्छे जानकार थे. उन्हें ‘जीनियस इन ट्राइबल डांस’ कहा जाता था. उनके नेतृत्व में तीन बार 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर अखिल भारतीय राष्ट्रीय लोक नृत्य प्रतियोगिता में आदिवासी नृत्य दिखाने के लिए टीम गयी थी. तीनों बार नृत्य दल को पुरस्कार मिला. वर्ष 1954 में झारखंड के आदिवासी नृत्य दल को दूसरा स्थान मिला था. यह नृत्य दल सपारोम गांव का था.
दूसरे वर्ष 1955 में रांची के निकट कांजो बड़गाईं गांव के नृत्य दल को प्रशिक्षित किया और दिल्ली गणतंत्र दिवस में लोक नृत्य के लिए उतारा. इस बार इस टीम को प्रथम पुरस्कार मिला. वर्ष 1956 में तीसरी बार रांची जिला के रानी खटंगा की टीम को नृत्य के लिए तैयार किया.
इस टीम ने भी दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर शानदार नृत्य की प्रस्तुति दी. इस नृत्य दल को दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था. जुलियस तिग्गा ने उरांव आदिवासियों की लोक नृत्य कला को दुनिया के सामने लाने का काम किया. इनके पहले किसी ने राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का प्रदर्शन नहीं किया था.
जुलियस तिग्गा काफी सजग और जागरूक व्यक्ति थे. आदिवासी समाज के प्रति हमेशा गंभीर चिंतन करते थे.उन्होंने आदिवासी समाज के लिए अपनी पत्रिका या अखबार का होना जरूरी समझा. इसके कारण उन्होंने 1931 में ‘आदिवासी’ नामक पत्रिका निकाली. वह कुुशल और निर्भीक पत्रकार थे. अपनी निर्भीक पत्रकारिता के लिए वे जाने जाते थे. वह निर्भीक होकर आदिवासियों के पक्ष में कलम चलाते थे. उनके इस तरह के लेख पर आपत्ति जताते हुए उनके खिलाफ केस भी किया गया था, जिसके कारण 30 सितंबर 1939 में जुलियस तिग्गा को जेल जाना पड़ा था. इसके बावजूद आदिवासियों के पक्ष में लिखना नहीं छोड़ा.
आदिवासियों के बारे में लिखे गये गलत अवधारणाओं का वह जोरदार खंडन करते थे. उन्होंने 1961 में ‘अबुआ झारखंड’ पत्रिका में एक लेख लिखा था, जिसमें इस तरह की गलत धारणाओं को खंडन किया है. आदिवासियों में प्रारंभिक राजनीतिक रुचि और जागरूकता पैदा करने में जुलियस तिग्गा की महत्वपूर्ण भूमिका रही. झारखंड आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया. बाद में वह आदिवासी महासभा और झारखंड पार्टी के महासचिव भी रहे. उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा और इग्नेस बेक के साथ झारखंड पार्टी को मजबूत करने में अपनी महती भूमिका निभायी.
उरांव संस्कृति को जीवित रखने के लिए उन्होंने कांके में धुमकुड़िया स्कूल खोला था. इसमें भाषा की जानकारी के साथ बच्चों को परंपरा, नेग-दस्तूर भी बताते थे. कांके का उनका धुमकुड़िया स्कूल काफी लोकप्रिय हुआ था. जुलियस तिग्गा ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने आदिवासी नृत्य कला और संगीत को बचाने के लिए प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही देना उचित समझा.
इसी उद्देश्य से उन्होंने कांके रांची में धुमकुड़िया नाम स्कूल 1944 में खोला. पहली से मैट्रिक तक सब विषयों की शिक्षा दी जाती थी. आदिवासी संगीत, नृत्य,कला और संस्कृति पर शिक्षा दी जाने लगी.
इस स्कूल को तत्कालीन बिहार के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, शिक्षा विभाग के अधिकारी, भारतीय सेना के चीफ जनरल करियप्पा, विदेश के कुछ राजदूत देखने भी आये थे. जुलियस तिग्गा स्कूल के संस्थापक संचालक और सचिव रहे. उन्होंने 1959 तक इसे संभाला.
27 जुलाई 1957 को आकाशवाणी रांची की स्थापना हुई, जिसमें जुलियस तिग्गा बतौर कार्यक्रम अधिशासी के रूप में कार्य करने लगे. उन्होंने हमारी दुनिया कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की थी. इस कार्यक्रम छोटानागपुर के गीत, संगीत, संस्कृति, भाषा-साहित्य को जगह दी गयी.
यह कार्यक्रम पहले देहाती दुनिया के नाम से प्रसारित होता था,जो जुलियस तिग्गा की परिकल्पना थी. आकाशवाणी में काम करते हुए अपने कार्यकाल में उन्होंने कई लोक कलाकारों को आकाशवाणी रांची से जोड़ा. यहां की भाषा संस्कृति को बढ़ावा देने में उनका अहम योगदान रहा.
उन्होंने कुड़ुख में लेखन कार्य भी किया. उनकी कई कहानियां जो आदिवासी समाज का मार्ग दिखाने का काम करती है. उनकी एक कहानी पुस्तक है ‘कुड़ुख सन्नी खीरी’. इस कहानी पुस्तक में कई कहानियां हैं.
उनकी कहानियों में कइलस अरा बंक्की, सरू कुंवारस आदि को स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है. जुलियस तिग्गा की कहानी ‘पद्दा कमना’ समाज को दिशा दिखाने वाली है. इस कहानी में पूर्वजों की तरह काम नहीं कर सकने की पीड़ा दिखाई देती है. गांव की बिगड़ती स्थिति और हालातों पर चिंता प्रकट की गयी है. 68 वर्ष की आयु में 1971 में उनका निधन हुआ.
आखिर में पढ़िए उनका एक कुड़ुख गीत:
चिहुट नना खने समुदर उटरोओ
हो होरे संगी भाई
नुकुरोओ परता–सगरे।।
पोलना करने अमा मना सन्नि
हो होरे संगी भाई
कोलरोओ पन्ना बली।।
चिहुट तंगआ संवग कही भट्ठी
हो होरे संगी भाई
धरमे अदिन पत्तई।।
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