जलवायु परिवर्तन की समस्या अब मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा संकट बन चुकी है. दुनियाभर में करोड़ों लोग बीमारियों के शिकार हैं, फसलों की उत्पादकता पर नकारात्मक असर हो रहा है और आम जन-जीवन में कई तरह की एलर्जी की अवधि बढ़ती जा रही है.
इसके बावजूद विभिन्न देशों ने इस चुनौती को लेकर लापरवाही का ही नहीं, बल्कि इसे नकारने तक की प्रवृत्ति अपनायी हुई है. संयुक्त राष्ट्र और लांसेट की दो अलग-अलग रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की विकरालता की ओर दुनिया का ध्यान खींचा गया है. इन रिपोर्टों की खास बातों तथा विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
डॉ गोपाल कृष्ण
पर्यावरणविद्
जलवायु संकट विषय पर संयुक्त राष्ट्र की ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ नामक अंतरराष्ट्रीय संधि का 23वां सम्मलेन ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज’ (सीओपी23) इस हफ्ते की छह तारीख से 17 नवंबर तक जर्मनी के बॉन शहर में होने जा रहा है.
इसी सम्मलेन को ध्यान में रखकर दो महत्वपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की गयी हैं जो जलवायु और मानव स्वास्थ्य से संबंधित हैं. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने 31 अक्तूबर को एक रिपोर्ट जारी किया, जिसमें राष्ट्रों द्वारा जलवायु संकट से जूझने के लिए लक्षित राष्ट्रीय निर्धारित अंशदान के तहत जो उम्मीद और प्रयास किये गये हैं, उसका आकलन मौजूद है.
साल 2010 से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर एक वैज्ञानिक आकलन रिपोर्ट जारी करता रहा है. इस साल की रिपोर्ट यह बात चिन्हित करती है कि लक्षित राष्ट्रीय निर्धारित अंशदान की नींव पर ही 2020 के बाद लागू होनेवाला पेरिस समझौता खड़ा है.
उठाने होंगे जरूरी कदम
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के इस 116 पन्ने की रिपोर्ट के 18वें संस्करण के अनुसार, पेरिस समझौते के तहत किये गये वादे से अत्यंत गंभीर जलवायु संकट के परिणाम से बचने के लक्ष्य का सिर्फ एक-तिहाई ही हासिल हो सकता है.
रिपोर्ट के अनुसार सरकारों, शहरों और गैर-सरकारी निगमों को नयी तकनीक को अख्तियार करना होगा, जिससे 2030 तक 36 गीगा टन उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है. मगर, इसके लिए जरूरी कदम नहीं उठाये जा रहे हैं. पेरिस समझौता वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक रोकना चाहता है और 1.5 डिग्री सेल्सियस की महत्वाकांक्षा भी रखता है. यदि ऐसा किया जा सकेगा, तो मानव स्वास्थ्य, जीविकोपार्जन और अर्थव्यवस्था पर जलवायु संकट के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है.
मगर, मौजूदा राष्ट्रीय निर्धारित अंशदान से 2100 तक वैश्विक तापमान का तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ना संभव है. इसलिए जरूरी है कि सरकारें और कंपनियां 2020 तक और ज्यादा महत्वाकांक्षी वादे करें. पेरिस समझौता के हिस्सा रहे अमेरिका की उदासीनता से समस्या और गंभीर होगी. रिपोर्ट खुलासा करती है कि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 2014 से स्थिर है. इसके लिए चीन और भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के प्रयोग का महत्वपूर्ण योगदान है. लेकिन मीथेन का उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है.
ढाई दशक की उदासीनता
इससे पहले चिकित्सा जगत की 1823 से प्रकाशित प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिका, दि लांसेट ने 30 अक्तूबर को 24 अकादमिक संस्थानों के साझा वैश्विक प्रयास से 50 पन्ने की एक रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव के प्रति 25 सालों की उदासीनता को उजागर किया गया है. यह रिपोर्ट मौसम संबंधी आपदा, परिवहन, शहरी प्रदूषण और कोयला आधारित कारखानों से मानव स्वास्थ्य के रिश्ते को चिन्हित कर यह अनुशंसा करती है कि चिकित्सा क्षेत्र को भी जलवायु संकट से जूझने के प्रयासों से जोड़ा जाये.
दोहा अमेंडमेंट टू क्योटो प्रोटोकॉल
गौरतलब है कि साल 2020 तक क्योटो प्रोटोकॉल ही एक मात्र जलवायु संबंधी अंतरराष्ट्रीय कानून है. क्योटो प्रोटोकॉल की प्रथम प्रतिबद्धता अवधि 2012 में समाप्त हो गयी, उसके बाद प्रोटोकॉल में द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि 2012-2020 तक के लिए दोहा में संशोधन किया गया.
दोहा अमेंडमेंट टू क्योटो प्रोटोकॉल के कानून बनने के लिए 144 देशों की सहमति चाहिए, मगर अभी तक केवल 83 देशों ने इस पर सहमति प्रदान की है. इनमें से 37 देशों के लिए बाध्यकारी लक्ष्य है. गौरतलब है कि गैर-बाध्यकारी और कमजोर पेरिस समझौते के रहनुमा जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने अभी तक दोहा अमेंडमेंट पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं.
इसके कारण एक मात्र जलवायु कानून ‘दोहा अमेंडमेंट टू क्योटो प्रोटोकॉल’ द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि के लगभग पांच साल बीत जाने के बाद भी अभी तक लागू नहीं हो सका है. इससे जलवायु संकट के प्रति अमेरिका के अलावा अन्य विकसित देशों के असली रुख का पता चलता है. दरअसल, क्योटो प्रोटोकॉल, 2005 और पेरिस समझौता, 2016 दोनों यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के ही अंग हैं. और इसी कन्वेंशन की 23वीं बैठक जर्मनी में होने जा रही है.
इसी बीच इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने खुलासा किया है कि बच्चों में कुपोषण की उच्च दर से भारत में भूख का स्तर इतना गंभीर है कि देश 100वें स्थान पर पहुंच गया है. पिछले वर्ष देश वैश्विक भूख सूचकांक में 97वें स्थान पर था.
ऐसे संदर्भ में अगर लोकतांत्रिक संस्थानों को लगातार कमजोर होने से बचाया नहीं गया तो, आर्थिक संस्थानों के निरंतर मजबूत होने से जन-स्वास्थ्य का संकट और विकराल रूप लेगा.
और भी हैं खतरे
जलवायु परिवर्तन के कारण नियमित वर्षा चक्र भी प्रभावित हुआ है, जिससे स्वच्छ जल की उपलब्धता चुनौती बनती जा रही है.
अल्प वर्षा से भूजल की कमी हो जाती है, जिससे सूखा और अकाल पड़ने का खतरा बना रहता है.
बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा भी हमारा कम नुकसान नहीं कर रही हैं. स्वच्छ जल की कमी और दूषित जल का प्रवाह बढ़ेगा, जिससे जल जनित और कीटजनित बीमारियां बढ़ेंगी.
तापमान के बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के कारण खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा, िजससे कुपोषित लोगों की संख्या में इजाफा होगा.
संयुक्त राष्ट्र की ‘इमीशन गैप’ रिपोर्ट ने फिर चेताया
अगले हफ्ते जर्मनी में प्रस्तावित जलवायु सम्मेलन से पहले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) ने ‘इमीशन गैप’ नाम से रिपोर्ट जारी कर ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर एक बार फिर चेताया है. रिपोर्ट के मुताबिक तापमान वृद्धि के जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए और प्रयास की जरूरत है. निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए विकासशील देशों में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के निर्माण के बजाये दीर्घ अवधि के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ानी होगी.
तापमान वृद्धि रोकने की बड़ी चुनौती
वर्ष 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते से पैदा हुई प्रतिबद्धता और जागरूकता की लहर धीमी पड़ती नजर आ रही है. दरअसल, औद्योगीकरण काल के तापमान के मुकाबले वर्ष 2100 में तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लक्ष्य पर दुनियाभर के तमाम देश सहमत हुए थे. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा 2017 की अध्यक्षता कर रहे कोस्टा रिका के पर्यावरण मंत्री एगर गुटेरेज एस्पिलेटा ने पेरिस जलवायु समझौते के बाद बने संवेग के धीमे पर पड़ने पर चिंता जतायी.
लक्ष्य के लिए मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत
यूएनइपी की रिपोर्ट की मुताबिक यदि देश मौजूदा राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में सफल भी हो जाते हैं, तो भी सदी के अंत तक औसतन तापमान वृद्धि 3 डिग्री सेल्सियस तक हो जायेगी. ऐसे में जब सरकारें वर्ष 2020 में समीक्षा के लिए आयेंगी, तो उन्हें कहीं अधिक मजबूती इच्छाशक्ति दिखानी होगी. ट्रंप प्रशासन के सत्ता में आने के बाद अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर जाने का निर्णय कर चुका है, ऐसे में 2020 की तस्वीर धुंधली होनी स्वाभाविक ही है.
भारत-चीन की पहल सराहनीय
‘रैपिडली एक्सपेंडिंग मिटिगेशन एक्शन’ का जिक्र करते एजेंसी ने स्वीकार किया है कि वर्ष 2014 से कॉर्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में स्थिरता आयी है. रिन्यूएबल एनर्जी कार्यक्रमों को तेजी से लागू कर रहे भारत और चीन की इसमें बड़ी भूमिका रही है. लेकिन, रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं आयी है, बल्कि इनका उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है.
जलवायु परिवर्तन से बीमारियां और आपदाएं
दुनियाभर में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा दुष्प्रभाव पड़ रहा है. ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट की हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु में बदलाव के कारण गर्म हवाएं, मच्छरजनित बीमारियां बड़े स्तर पर लोगों को चपेट में ले रही हैं और मौसम आपदाओं की बारंबारता बढ़ रही है. रिपोर्ट के मुताबिक जहां एक ओर लोग गरीबी, जल की कमी और मकानों के अभावों जैसे समस्याओं से जूझ रहे हैं, वहीं जलवायु परिवर्तन जीवन की दुश्वारियों को और बढ़ा रहा है. इससे पहले वर्ष 2009 में जारी रिपोर्ट में लांसेट ने माना था कि जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे बड़ी वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती है.
जानलेवा होतीं गर्म हवाएं
वर्ष 2000 से तापमान में 0.75 डिग्री फॉरेनहाइट का अंतर आया है. इससे दुनिया के तमाम हिस्सों में तापांतर बढ़ रहा है और लाखों लोग गर्म हवाओं की चपेट में आ रहे हैं. वर्ष 2000 से 2016 के बीच 12.5 करोड़ लोगों पर गर्म हवाओं का खतरा बढ़ा है. वर्ष 2015 में रिकॉर्ड 17.5 करोड़ लोग तपते मौसम से परेशान रहे.
25 वर्षों में आपदाओं से पांच लाख मौतें
बाढ़ और तूफान जैसे मौसम जनित आपदाओं से होनेवाली मौतों का आंकड़ा साल-दर-साल बढ़ रहा है. वर्ष 2007 से 2016 के बीच दुनियाभर में सलाना औसतन 300 प्राकृति आपदाएं आयीं, जो 1990 से 1999 के दशक से 46 प्रतिशत अधिक थीं. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 25 वर्षों में इन आपदाओं में पांच लाख मौतें हुई हैं.
बढ़ते तापमान से बढ़ रही हैं बीमािरयां
बीते 130 वर्षों में धरती के तापमान में लगभग 0.85 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है. हवा में आेजोन और दूसरे प्रदूषक तत्वों की वृद्धि हो रही है. लगभग 300 मिलियन लोग दमा से प्रभावित हो सकते हैं.
3 गुना ज्यादा बढ़ गयी है वैश्विक स्तर पर बाढ़, सूखा, तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की संख्या 1960 से लेकर अब तक.
60,000 से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है प्रति वर्ष इन अापदाओं के कारण विकासशील देशों में.