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श्री एम का साक्षात्कार : सृष्टि या संसार वही नहीं है, जो हम देखते-निरखते-परखते हैं

हरिवंश राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार पिछले वर्ष अहिंसा की मशाल लेकर कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पदयात्रा की श्री एम ने. मुमताज अली के नाम से पैदा हुए श्री एम की शख्सियत दिलचस्प और आकर्षक है. समाजसुधारक, शिक्षाविद, आध्यात्मिक गहराई वाले श्री एम का जन्म 6 नवंबर,1949 को केरल के तिरुअनंतपुरम में हुआ. बचपन […]

हरिवंश
राज्यसभा सांसद
और वरिष्ठ पत्रकार
पिछले वर्ष अहिंसा की मशाल लेकर कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पदयात्रा की श्री एम ने. मुमताज अली के नाम से पैदा हुए श्री एम की शख्सियत दिलचस्प और आकर्षक है. समाजसुधारक, शिक्षाविद, आध्यात्मिक गहराई वाले श्री एम का जन्म 6 नवंबर,1949 को केरल के तिरुअनंतपुरम में हुआ. बचपन का नाम मुमताज अली था. उनकी दादी सूफी विचारों से प्रभावित थीं. उन्हें सूफी कहानी सुनाया करती थी.
जब वह नौ वर्ष के हुए, तो हिंदुत्व और ईसाइयत के बारे में जानकारी हासिल की. उन्हें इस बात को लेकर हैरानी थी कि कैसे लोग एक दूसरे के धर्म को लेकर सशंकित रहते हैं. बचपन से ही उनके मन में हिमालय जाने को लेकर एक अजीब तरह का उत्साह था. नौ वर्ष की उम्र में उनकी पहली मुलाकात अपने गुरु बाबा महेश्वर नाथ जी से हुई. गुरु ने उनसे पूछा कि उन्हें कुछ याद है? उन्होंने कहा- नहीं. इस पर बाबा ने कहा कि बाद में सब याद आ जायेगा.
श्री एम का एक युवा से योगी बनने का सफर अचंभित करनेवाला है. 19 वर्ष की आयु में संत बनने की चाहत लिए उन्होंने हिमालय का दौरा किया.
इस दौरान कई साधु-संतों से मिले. यहीं उनकी मुलाकात बद्रीनाथ के पास एक गुफा में महेश्वरनाथ बाबाजी से हुई. उन्हें पहली मुलाकात की सभी बातें याद आ गयीं. उनके सान्निध्य में उन्होंने अध्यात्म को आत्मसात किया. तीन साल तक गुरु के साथ रह कर कई चीजें सीखीं. गुरु के साथ तिब्बत का दौरा किया. इसके बाद गुरु ने उन्हें जीवन के मिशन में आगे बढ़ने का आदेश दिया. हिमालय से लौटने के बाद नीमकरोली बाबा, लक्ष्मण जी और जे कृष्णमूर्ति जैसे संतों से मिले. काफी समय रामकृष्ण मिशन और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में बिताया. फिर, उन्होंने प्रवचन देना शुरू किया. श्री एम के दो बच्चे हैं. मौजूदा समय में आंध्रप्रदेश के मदनपल्ली में साधारण जीवन जी रहे हैं. सत्संग फाउंडेशन और मानव एकता मिशन को नयी दिशा देने के काम में जुटे हुए हैं. ‘एपरेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर’ : ए योगीज ऑटोबायोग्राफी उनकी बहुचर्चित आत्मकथा है. उनकी नयी पुस्तक ‘द जर्नी कांटिन्यूज’ (ए सीक्वेल टू एप्रेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर) अभी-अभी छप कर आयी है
वर्ष 2008 में श्री एम एक दल के साथ कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर गये थे. एक रात उन्हें अजीब अनुभव हुआ. वे लिखते है, ‘‘ऐसा लगा मैं कई ग्रहों की यात्रा कर रहा हूं और फिर एक सफेद क्रिस्टल महल में दाखिल हुआ, जहां भगवान शिव बैठे हुए थे. उनके अगल-बगल जीसस, गुरु नानक, गुरु रिनपोचे, गोरखनाथ और बाबाजी बैठे हुए हैं. ’’ वे लिखते हैं, “जिन लोगों को इन कहानियों पर भरोसा नहीं हो, वे सिर्फ बाबाजी की शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करें. ”
श्री एम ने देश में सामाजिक सौहार्द के लिए पिछले साल कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा की. इस दौरान दिल्ली में, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में जहां वह ठहरे थे, उनसे कई प्रसंगों पर बड़ी रोचक बातचीत हुई .
देश में एकता और सद्भाव बढ़ाने के लिए आपने पदयात्रा की है. इसकी क्या जरूरत थी?
हमारा राष्ट्र बड़ा यूनिक है. यहां इतनी भाषाएं और बोलियां हैं. इतने धर्म और उसमें इतने संप्रदाय. फिर भी देखा जाये, तो हम सब मिलकर ही रहते हैं. किसी से पूछिए तो बहुत गर्व से यह बतायेगा, यह सब हमारा पुराना संस्कार है. पर, मुझे लगता है कि यह कभी-कभी टूट जाता है. इधर यह बढ़ता जा रहा है. बहुत दर्द होता है कि जब धर्म या आइडियोलॉजी के नाम पर हिंसा होती है. लेकिन मैं विश्वास रखता हूं कि धर्म या आइडियोलॉजी को लेकर हिंसा नहीं हो रही है, बल्कि उसके नाम पर हो रही है.
उसके प्रसार को लेकर हो रही है. मैंने सोचा कि इसे होने ही न दिया जाये. एक बार आग लग गयी, तो उसे बुझाना मुश्किल होता है. जैसे भूकंप एक बार आ गया, तो बाद में उसके छोटे झटके आते ही रहते हैं. यदि इसे होने ही नहीं दिया जाये, तो कितना अच्छा होगा. यही सोच कर मैंने पदयात्रा आरंभ की. मैं लोगों को समझाता हूं कि देखो, हम सब मानव हैं. मां के गर्भ से सभी लोग पैदा होते हैं. कोई भी ऊपर से नहीं आता है. एक दिन इसी जमीन में जाना है, चाहे वह कब्रिस्तान हो या फिर श्मशान. इसलिए धरती पर शांति और सद्भाव को बना कर सभी लोग एक साथ रहें, तो इसमें क्या दिक्कत है? मैं यही लोगों को समझाने का प्रयास करता हूं. मैं गांव-गांव में गया हूं.
मैं यह कहना चाहता हूं कि कोई भी किसी भी हालत में अशांति पैदा नहीं करना चाहता है, लेकिन ऐसा हो जाता है. इसमें प्रिवेंशन ज्यादा अच्छा है. ठीक करने के बजाय बीमारी को ही न आने दिया जाय, यह सबसे बेहतर है. हमारा मकसद यही है. यदि डिफरेंसेज है, तो उसे खत्म किया जाये. हम घूम-घूम कर यही बात लोगों को बता रहे हैं. जहां मंदिर है, मसजिद है, चर्च है, गुरुद्वारा है, सब जगह हम जाते हैं. लोगों से पूछते हैं कि जिस मकसद के लिए हमलोग पदयात्रा कर रहे हैं, उस मकसद को देखते हुए आप आने देंगे, तो आऊंगा, नहीं आने देंगे, तो नहीं आऊंगा. लेकिन आज तक किसी ने नहीं रोका. इससे एक उम्मीद पैदा होती है. अभी यह शुरुआत है. मुझे लगता है कि यह और बड़े रूप में सामने आयेगा.
राजनीतिक रूप से चंद्रशेखर जी ने भी कन्याकुमारी से दिल्ली की यात्रा की. आप जहां-जहां से गुजरे, क्या उम्मीद बढ़ाने वाले अनुभव हुए? इस विपरीत दशा में भी ऐसा क्या अनुभव हुआ, जिससे लगे कि भारत अक्षुण्ण है, मजबूत है और बेहतर रहेगा?
कहीं भी हम जाते हैं और लोगों से बात करते हैं, तो अलग-अलग तरह के लोग मिलते हैं. सब काम करते हैं. हम जहां भी गये, उन राज्यों के मुख्यमंत्री आये. कोई पार्टी नहीं होती है. सबलोग इसको अच्छा समझते हैं.
हालांकि, इसे लागू करते हैं या नहीं यह अलग बात है, लेकिन सोचते जरूर हैं. कभी-कभी जब गरीब लोगों का रिस्पॉन्स आता है, तब मुझे लगता है कि यह पूरा होगा. शाम को रिक्शा चलानेवाले भी आते हैं. दिन में वे लोग जीविकोपार्जन के लिए रिक्शा चलाते हैं. 100 रुपये की कमाई होने पर वे लोग कार्यक्रम में हिस्सा लेने आ जाते हैं. यह 100 रुपया करोड़ों से ज्यादा है. उन पर चीजों का प्रभाव पड़ता देखता हूं, तो लगता है कि अच्छा जरूर होगा. ऐसे लोगों को जब देखता हूं, तो मेरी आशा भी बढ़ जाती है. वैसे भी मैं तो इसको छोड़ने वाला हूं नहीं. जितना मुझसे होगा, उतना करूंगा. एक बार हमलोग यात्रा कर रहे थे. काफी गर्मी थी. रास्ते में एक तरबूज वाला दिखा. वह मुसलमान था टोपी लगा कर बैठा था. उस समय हमारे पास 200-300 लोग थे. खाने की बात पूछी तो, उन्होंने कहा कि हो जाएगा.
लेकिन पैसे की बात करते ही वह नाराज हो गया. बोला, आपने जो दिया वह पर्याप्त है. अच्छा काम कई लोग कर रहे हैं, तो हमें भी उनका सहयोगी बनने दीजिए. उन्होंने कहा कि यदि आप पैसे की बात करेंगे, तो हम फिर नहीं दे पायेंगे. उसने सभी को तरबूज खिलाया. फिर चाय भी पिलायी. यानी एक आदमी को भी यह बात समझ में आ रही है, लेकिन नेताओं को यह बात कब समझ में आयेगी पता नहीं?
आपका अगली योजना क्या है ?
कुछ दिनों का एकांत चाहिए, क्योंकि काफी दिनों से घूम रहा हूं. हो सकता है हिमालय में जाऊं. उसके बाद बैठ कर सोचेंगे कि क्या किया जाये. उसके बाद फॉलोअप की जरूरत होगी. अभी तो हम सिर्फ बीज बो रहे हैं. बीज बोने के दूसरे दिन तो पेड़ नहीं बड़ा हो जाता. उसकी देखभाल करनी होती है. फिर हम हर जगह जायेंगे. लेकिन अब पैदल नहीं जायेंगे. गाड़ी से जायेंगे. हमने बहुत लोगों को चिह्नित कर रखा है.
उनसे बात करेंगे और एक नेशनल चेन बनायेंगे. एक लिंक बनायेंगे और दिल्ली में एक ऐसी चेन बनाने की सोच रहा हूं, ताकि हमसे जुड़े सभी लोगों को बुला कर एक काफ्रेंस बुलायी जाये. फिर वहां एक्शन क्या होगा? लोगों के विचार क्या आयेंगे, उसके बाद अगले काम की तैयारी करेंगे. एक-डेढ़ साल बाद, जिन जगहों की यात्रा छूट गयी है, वहां जायेंगे. यात्रा कन्याकुमारी से ही आरंभ करेंगे. आंध्रप्रदेश से होते हुए ओड़िशा, बंगाल, बिहार, झारखंड होते हुए पूर्वोत्तर तक जायेंगे. ये हमारा अगला प्लान है. मुझे लगता है कि यह हो सकता है.
उसके पहले बहुत सारा फॉलोअप हो जायेगा. जहां कहीं भी ऐसी समस्या होगी, वहां हमलोग जायेंगे और पदयात्रा करेंगे. सभी जगहों पर एक लोकल कमिटी का गठन किया जायेगा. वहां पर लोगों को समझायेंगे कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है. आखिर जो नुकसान होता है, वह हम लोगों की ही प्रॉपर्टी है. हिंसा से कितना नुकसान होता है? लोगों को इस दिशा में कुछ गंभीर प्रयास करना होगा. खासकर राजनेताओं के मन में यदि अच्छी बात आ जाये, तो समाज में बहुत कुछ अच्छा हो सकता है. हमलोग ज्यादा क्या कर सकते हैं? पदयात्रा कर सकते हैं. लोगों को समझा सकते हैं.
आपसी भाईचारे, प्रेम और सद्भाव की बात सिखा सकते हैं. होडल से हमने हरियाणा में प्रवेश किया था. होडल में एक चौधरी साहब हैं, हर्ष कुमार चौधरी. वह हरियाणा सरकार में मंत्री रहे हैं. उन्होंने वहां हमलोगों का स्वागत किया. वहां खाप के लोग भी आये और मेवात के मुसलमान भी आये. सबसे बात करायी और सभी को खाना भी खिलाया. शाम को जंतर-मंतर पर आकर उन्होंने बताया कि ये भी जाट हैं और वो भी जाट हैं.
ये कहने के लिए कि हमारे यहां पर जो विरोध-प्रदर्शन हुआ उसमें सरकारी संपत्ति को कोई नुकसान नहीं हुआ. क्योंकि मैंने जाटों से कहा कि अभी श्री एम आये थे और वे क्या-क्या बातें बता कर गये हैं. यदि हमलोग उन बातों का अनुसरण नहीं करेंगे, तो इसका क्या फायदा? सत्याग्रह कीजिए, लेकिन लोगों को तकलीफ मत दीजिए. इतना सुनने के बाद मुझे लगता है कि कुछ तो अच्छा हो रहा है. अब ऐसी बातें सुनते हैं तो मुझे लगता है कि कुछ तो अच्छा हुआ है.
आपने इस यात्रा की तीन साल तक तैयारी की थी. इसके बारे में कुछ बतायें?
पहले मुझे लगा कि यह काम नहीं कर सकते हैं. इतनी लंबी यात्रा. दूसरी चिंता यह थी कि इतने लोग हमारे पास आयेंगे, तो उन्हें कैसे ले जायेंगे? खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी? सोने की व्यवस्था कैसे होगी?
फिर मैंने कहा कि अकेले चलूंगा, तो परेशानी कम होगी. मगर मुझे लगा किअकेले चलने से यह नहीं होगा. मिल कर चलना होगा. तो हमसे जो लोग जुड़े थे, उन्हें पदयात्रा के विषय में बताया. फिर उन्होंने तत्काल कहा कि हम भी आयेंगे. हमलोग चलते रहे बीच-बीच में सत्संग होता रहा. यहां से लेकर पंजाब तक बहुत लोग हैं, जिन्हें मैं जानता हूं. 18 से 20 किलोमीटर हमलोग चलते हैं. फिर कहां रुकेंगे, खाना कहां मिलेगा, यह सब एक से डेढ़ साल तक चलता रहा. फिर एक रफ प्लान बनाया. फिर हमने उस प्लान को अंजाम दिया और कई जगह पर ऐसा हुआ कि स्थानीय लोगों ने कहा कि हमलोग खर्चे उठा लेंगे.
कई जगहों पर ऐसा नहीं हुआ, तो दूसरे लोगों से बात करके उस खर्च को पूरा किया गया. पैसा तो हमलोगों के पास नहीं था. कभी लगता कि यह बंद हो जाएगा. आगे क्या होगा? लेकिन फिर कोई न कोई सामने आ जाता. इस तरह से दूसरे के सहयोग से यह कार्यक्रम चला. हां, कॉरपोरेट के साथ हम अभी तक नहीं गये.
इस यात्रा के दौरान क्या आपको लगा कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव की कमी है ?
हां है. हमारा संस्कार ऐसा है कि हमलोग मिल कर रहते हैं. लेकिन वह बीच-बीच में टूट जाता है. इसको जोड़ने की जरूरत है. जहां मैं रहता हूं वहां हिंदू हैं. बगल में मुसलमान रहता है. इस घर से नमक उस घर में जाता है, लेकिन अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि हम एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं. इसका कारण ढूंढ़ने की जरूरत है. यह सब कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण होता है. अंगरेज जिस तरह से ‘डिवाइड एंड रूल’ करते थे, वह आज भी है. अभी हमारे यहां से यह नहीं गया है.
मौजूदा दौर में अध्यात्म के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है. यह फिर से कैसे बहाल किया जाये?
एक सत्संग करते हैं. लोगों को कहते हैं कि देखिए आपके पास जो पैसा है, धन है, इससे अच्छी चीज शांति है. और शांति के लिए अध्यात्म जरूरी है. हम जहां जाते हैं, वहां यदि आप आयेंगे, तो पता चलेगा कि लोग क्या समझते हैं. इसलिए मैं लोगों को समझाता हूं. लोग मुझे योगी समझते हैं. वो पीपल के पेड़ के नीचे आकार बैठ जाते हैं.
पैर पकड़ लेते हैं और बड़ी मुश्किल से जाते हैं. जब वह बैठते हैं, तो मैं बैठ कर उनसे बात करता हूं. बाद में उन्हें भी महसूस होता है कि शांति से बढ़ कर दूसरी कोई चीज नहीं है. उन्हें यह लगता है कि जब इन्हें शांति मिल सकती है, तो हमें क्यों नहीं मिलेगी? कोई फकीर पेड़ के नीचे बैठा है. उनके पास सिर्फ भिक्षा पात्र है, लेकिन लोग बीएमडब्ल्यू कार में उनके पास जा रहे हैं. उनसे क्या मांगेंगे? उनके पास तो कुछ है ही नहीं? लेकिन उनके पास शांति है, जो इन लोगों के पास नहीं है. ज्यादा लोगों के पास शांति नहीं है, समाधान नहीं है. और ये सब अध्यात्म से ही होगा. हमारे भारत में अध्यात्म की कमी नहीं है. पर वह थोड़ा कॉमर्शियल हो गया है.
किताब में क्या है
एपरेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर : ए योगीज ऑटोबायोग्राफी
1968 में तिरुअनंतपुरम से 19 वर्षीय युवा घर छोड़ कर हिमालय चला जाता है. हरिद्वार,ऋषिकेश और बद्रीनाथ की यात्रा करते हुए यह बालक व्यास गुफा पहुंचता है. यह गुफा तिब्बत की सीमा से सटे एक भारतीय गांव में स्थित है. ऐसी मान्यता है कि पांडव स्वर्ग की यात्रा के दौरान इस गांव से होकर गुजरे थे. व्यास गुफा में इस बालक की मुलाकात महेश्वरनाथ बाबाजी से होती है, जो इसे अपने शरण में लेते हैं.
फिर होती है साढ़े तीन साल की कठिन साधना की ट्रेनिंग. इस किताब में मुमताज अली के केरल से बर्फीले हिमालय के दौरे और फिर वापसी की कहानी का विस्तृत ब्यौरा है. किताब में एक पारंपरिक मुसलिम परिवार में पैदा हुए लड़के के योगी बनने के सभी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया गया है. आज दुनिया उन्हें श्री एम के नाम से जानती है. 1960 के दशक में हिमालय में कुछ अतिविशिष्ट लोगों से मुलाकात के कारण उपनिषद पर उनकी पकड़ काबिले-तारीफ है.
वे याद करते हुए कहते हैं कि एक दिन भागीरथी नदी के किनारे बैठ कर बाबाजी अपने पूर्व के जीवन की एक दुखद घटना के बारे में बता रहे थे. मुमताज अली का तब नाम मधुकरनाथ था. वे लिखते हैं, “एक दिन मुझे लगा कि तेज आंधी आयी है और मेरी नींद खुली और देखा कि बाबाजी आसन लगा कर बैठे हुए हैं. पीछे देखा तो बादलों के बीच से चांद के बराबर के आकार की वस्तु निकलती दिखी. जैसे-जैसे वह आगे बढ़ रही थी, वह आग की तरह चमक भी रही थी. फिर वह गुफा की ओर आने लगी और धुनी पर जाकर बैठ गयी. मई इतना डर गया था कि सही तरीके से बैठ नहीं पा रहा था, लेकिन बाबाजी बिल्कुल शांत बैठे हुए थे. दो फीट के आकार वाले आग के गोले के बीच से फन निकाले एक बड़ा सांप निकला.
मेरा डर उस वक्त समाप्त हो गया, जब मैंने देखा कि सांप बाबाजी के पैर छू रहा है. बाबाजी ने सांप को उसका फन छूकर आशीर्वाद दिया. मैं दोनों के बीच हो रहे संवाद को देखकर हैरान था. फिर बाबाजी ने मुझे बुलाया और कहा कि सर्पलोक के उपप्रमुख से मिलो. उन्हें प्रणाम करो. मैंने सांप को प्रणाम किया. कुछ देर बाद वे गायब हो गये. मैंने बाबाजी से कहा कि अगर इस घटना के बारे में किसी को कुछ कहूंगा, तो वे मुझे पागल समझेंगे. मुझे इस बारे में कुछ बतायें.
उन्होंने कहा कि आकाशगंगा में सात ग्रह और 18 चांद होते हैं. इसमें से एक सर्पलोक है, जिसमें सांप रहते हैं. तुम जिस सांप से मिले, वे नागराज के नीचे हैं. हजारों साल पहले जब मानवता शुरू हो रही थी, उस समय सर्पलोक से लगातार संपर्क होता था. कुंडलिनी उर्जा की शिक्षा मानव को सांपों से ही मिली है. लेकिन जब मानव अधिक शक्तिशाली और स्वार्थी हुआ, तो नागराज ने सांपों को सर्पलोक बुला लिया. कुछ बीमार और आदेश का पालन नहीं करनेवाले सांप रह गये और आज जो सांप हैं, वे इन्हीं के वंशज हैं. ”
आपकी किताब आयी, जिसे-तीन चार वर्ष पहले ही पढ़ चुका हूं. आपके अनुभव प्रामाणिक हैं, जो बताते हैं कि जीवन सिर्फ वही नहीं है, जो हम जीते हैं. आपने किताब में अनेक योगियों की चर्चा है. शुरू में योगी गोपाल स्वामी, कलारी स्वामी अच्युतानंद आदि. . . . . क्या वह विरासत अब भारत में कम हो रही है?
दुःख की बात है कि वह विरासत कम हो रही है. ऐसे योगी ज्यादातर बाहर निकल गये, वो छुप कर रहते हैं. क्योंकि ऐसे योगी से सब कोई लेना चाहता है. कोई देना नहीं चाहता. लेकिन वो आज भी हैं. मेरा विश्वास है कि हर समय पर कहीं न कहीं योगी विद्यमान होते हैं. आपको पता भी नहीं चलेगा, फिर भी होते हैं.
इन योगियों में कॉमन क्या लगा? इनमें क्या अलग-अलग स्पार्क थे. इनमें किसने ज्यादा प्रभावित किया?
अलग-अलग तरह के थे ये योगी, लेकिन उन सभी में एक चीज कॉमन थी कि साथ बैठे तो मन शांत हो जाये. जैसे एक मैगनेट रखा हो. साथ बैठनेवाला लोहे की चीज हो, जो थोड़ी देर बाद खुद शांत हो जाये. उनके पास आने पर अपनी ओर खींचता हो. साथ बैठने वाला भी कुछ देर बाद खुद ही खिंचा चला जाये. ऐसे बहुत से संतों को मैंने देखा है. उनके साथ बैठा हूं.
उनमें से गोपाल स्वामी थे, जो बिलकुल अलग ही किस्म के थे. वे वेदांत के ज्ञाता थे. वह अवधूत किस्म के थे. वो ज्यादा कुछ किसी को सिखाते नहीं थे. वह कपड़े भी नहीं पहनते थे. कुत्तों के साथ कन्याकुमारी में जीते थे. मगर उनमें कुछ था. कोई सही लोग जाते, तो जेनुइनली उन्हें पता चल जाता था. दूसरे लोग जाते, तो कुत्ते सामने खड़ा होने नहीं देते. यदि उनको लगता था कि सच में यह साधक है, तो वह समझ जाते थे. कई बार उनके साथ बैठा हूं.
जहां तक मुझे स्मरण है, आप डिवाइन लाइफ सोसायटी में भी रहे. जहां स्वामी शिवानंद जी रहे, फिर स्वामी चिदानंद जी भी. उनकी क्या खासियत रही है ?
तब उस आश्रम में स्वामी चिदानंद जी रहते थे. जिस दिन मैं वहां गया, शाम को उस दिन सत्संग चल रहा था. स्वामी जी बैठ कर सत्संग कर रहे थे. मैं भी बैठ गया. वो बोले – हरिओम. सोचा, कैसे बात होगी. पता नहीं बात होगी या नहीं. उन्होंने भोजन कराने के लिए किसी को कहा. कहा, सत्संग कल भी सुन सकते हो. हर रोज वहां योगासन ध्यान आदि चलता था. जब मैं जाने लगा, तो उन्होंने रोका और कहा कि खाना खाकर जाना.
मैं वहां से जाना चाह रहा था. उन्होंने कहा कि कल सुबह आना. मैं दूसरे दिन गया. फिर, उन्होंने सबकुछ पूछा. कहां रहते हो, क्या करते हो, क्या करना है? सभी चीज पूछने के बाद उन्होंने कहा कि तुम्हारा मन यहां नहीं लग रहा है. तुम्हारा मन हिमालय की चोटियों पर है. पर, एक बात ध्यान रखना, जब यहां से जाना हो, तो बता कर जाना. वहां रहा एक महीना. हर रोज वहां योगासन, ध्यान आदि होता. बहुत अच्छा था. लेकिन जैसा उन्होंने कहा कि मेरा मन वहां लगा नहीं. वैसे भी मैं आश्रम में रहने के खिलाफ था, जहां बहुत सारे लोग हों. मैं अकेले रहना चाहता था. एक दिन उनसे कहा कि मैं यहां से दो तीन दिन में चला जाऊंगा. उन्होंने कहा कि ठीक है. लेकिन एक बात. यह नहीं सोचो कि योगी हो गये. संभल कर रहना.
मेरा मन नहीं लगता था. एक दिन स्वामी जी को कहा कि अब मैं यहां नहीं रहूंगा. हिमालय जाऊंगा. तो उन्होंने कहा कि जाओ, लेकिन यह नहीं सोचना कि हिमालय में सारे संत ही रहते हैं. वहां फ्रॉड भी होते हैं. संभल के रहना. देखूंगा मैं तुझे. स्वामी जी किसी को प्रणाम करने नहीं देते थे. कोई करता तो वह पीछे हट जाते थे. एक दिन किसी ने प्रणाम किया, तो वह एकदम पीछे हो गये और गिर गये. मैंने उन्हें बचाया.
आपके गुरु जी महेश्वर जी तथा उनके गुरु जी महावतार बाबा जी ही परमहंस योगानंद जी के गुरु थे?
परमहंस योगानंद ने एक ऑटोबायोग्राफी लिखी. उसके बाद लोगों को महावतार बाबा जी के विषय में ज्यादा जानकारी मिली. ऐसा नहीं था कि इनके विषय में किसी को जानकारी नहीं थी. बहुत कम लोगों को उनके विषय में जानकारी थी. जो उन्होंने लिखा, बाबाजी जिनको हम श्रीबाबा जी कहते हैं, वे श्यामाचरण लहरी के गुरुजी थे. और भी उनके शिष्य थे.
लेकिन श्यामाचरण लहरी उनके प्रथम शिष्य थे. योगानंद जी ने महावतारका नाम इसलिए दिया कि अवतार आते-जाते हैं, लेकिन महावतार तो कभी-कभी आता है. इसलिए उन्होंने महावतार नाम दिया. हालांकि उनकी परंपरा में महावतार नहीं कहते हैं. लेकिन फिर भी उन्हें नाम दिया. नाथ संप्रदाय में श्रीबाबा का नाम दिया जाता है. हमलोग उन्हें श्रीबाबा ही कहते हैं या नित्य नाथ कहते हैं. गोरखनाथ की लिखी हुई कोई भी किताब पढ़ें, तो उसमें ओम श्रीगुरुदेवय नम: से ही शुरू होता है. अंगरेजी पढ़ने वाले सभी ‘महावतार’ के नाम से ही जानते हैं, लेकिन हमलोग उन्हें ‘श्रीबाबा’ही कहते हैं.
आपकी और उनकी दोनों की पुस्तक से लगता है कि ये सारे अवतारपुरुष हैं, जो जब चाहें, जहां चाहें जन्म ले सकते हैं. हमारे समाज को देने में उनकी भूमिका क्या है?
वह कभी-कभी पीछे से बैठकर अपना काम करते हैं. जैसा कि भगवान हैं, लेकिन कहीं नहीं दिखते हैं, लेकिन पूरी दुनिया चल रही है. ठीक उसी तरह से हम जैसे लोगों को वह काम देकर भेज देते हैं. श्रीगुरु बाबा जी ही नहीं, बहुत सारे बाबा हैं, जो समाज देश के लिए काम कर रहे हैं. जो बाबा जी की स्पेशलिटी है, वह अपना रूप नहीं दिखाते हैं. वह मैटेरियल दिखाने के लिए नहीं हैं, बल्कि लोगों की सेवा और समाज के उत्थान के लिए है.
दुनिया के ऐसे विशिष्ट लोगों के साथ आपको रहने का सौभाग्य मिला. ऐसे लोग दुनिया के बारे में क्या सोचते हैं. जीवन के बारे में क्या सोचते हैं. मनुष्य क्यों पैदा होता है, उसका काम क्या है आदि. . . . .
जीवन एक तपस्या है. दुःख में सिमरन(सुमिरन) सब करे,सुख में करे न कोई. इसलिए सिमरन के लिए दुःख जरूरी है. इसलिए दुःख नहीं होगा, तो कोई टिकेगा नहीं. देखिए हर आदमी क्या खोजता है-सुख. आत्महत्या क्यों करता है? सोचता है कि इससे दुःख खत्म हो जायेगा.
इसलिए सोचता है कि दुःख खत्म होगा, तो सुख होगा. इसलिए भगवान ने सबके अंदर एक भावना दी है. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि सुख बाहर मिलेगा. एक स्वामी जी थे. उनकी समाधि हरियाणा में है. वे पटियाला के महाराज थे. वे 140 साल जिंदा रहे. एक दिन उन्हें लगा कि हमें अपनी रियासत-राज को और बड़ा बनाना चाहिए. मुगल सुप्रीमेसी थी. उस समय बहादुरशाह जफर बादशाह थे. पटियाला नरेश से मिलने दिल्ली आये. बादशाह ने कहा कि अगर तुम्हें अपना क्षेत्र बड़ा करना है,तो करो. मैं इसके लिए सेना भेज सकता हूं. एक पठान जनरल को भेज दूंगा, लेकिन अगर उसके बाद वो बोलेगा कि मैं यहां का राजा हूं,तो तुम क्या करोगे? ऐसे किस्म के भी लोग होते हैं, जिसे लालच हो जाता है.
उन्होंने पूछा कि क्या आपको लगता है कि पटियाला को थोड़ा बड़ा कर देने से आपको खुशी मिल जायेगी? यहां से नीचे देखो, उस पेड़ के नीचे बैठे लोग कितने खुश हैं. खुशी चेहरे पर झलकती है. उनकी बात से वे काफी प्रभावित हुए और फिर पटियाला जाने के बजाय सीधे हरिद्वार पहुंच गये. उनके लोगों ने काफी दिन इंतजार किया कि महाराज वापस नहीं आये. कहां चले गये? उनका छोटा भाई कुछ साल बाद तीर्थयात्रा पर आया. महाराज जब तीर्थयात्रा पर जाते, तो सब लोग उनके साथ जाते. बद्रीनाथ जाने की योजना बनायी. किसी ने कहा कि यह काफी खतरनाक रास्ता है.
लक्ष्मण झूला के पास गुफा में एक योगी है. अगर उनका आशीर्वाद लेकर जाये, तो अच्छा रहेगा. वह गये योगिराज के पास, बोले, महाराज बद्री जा रहा हूं, आपका आशीर्वाद चाहिए. महाराज बोले- तथास्तु. बोले- ये तो मेरे भाई की आवाज है, फिर आंख में देखा तो तो बोले हां, मैं तुम्हारा भाई हूं. बोले,आप पटियाला वापस आइए. मुझे इसमें दिलचस्पी नहीं है. महाराज ने कहा कि मैं पूरे संसार का महाराज हूं. तुम्हारे पटियाला कौन जायेगा? सब लोग खोजते हैं, लेकिन प्रव्रीती मार्ग में ढूंढ़ते हैं. प्रव्रीती मार्ग में कौन जायेगा? उन्हें शांति और पूर्णता मिलनेवाली नहीं है. जिसे अंदर शांति मिल गयी, आत्मविभोर हो गया, वह बाहर भी काम कर सकता है.
नीम करोली बाबा के बारे में भी आपने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है. उनके बारे में अपना अनुभव बतायें?
वे बड़े अवधूत थे. योगी थे. समाधि वृंदावन में है. नीमकरोली बाबा के बारे में कई कथाएं हैं. मैं उनको शरीर छोड़ने से दो साल पहले वृंदावन में मिला.
वे जहां जाते थे, लंगर खुल जाता था. कहीं जाते थे, तो बहुत बड़ा हनुमान रखते थे. एक बार गया, तो वहां लंगर चल रहा था. कई लोग थे, मैं पीछे खड़ा हो गया. देख रहा था, क्या हो रहा है. पीछे खड़े एक आदमी ने कहा- आगे जाओ, वहां जाओ. बाबा कंबल ओढ़ के रहते थे. उन्होंने मुझे देखते ही बोला- आओ, आओ. 22 साल की उम्र थी, बैठते ही मुझे गर्मी लगने लगी. सारा शरीर गरम हो गया. जोर से मेरे पीठ पर मुक्का मारा और हंसने लगे. कहा- बाबाजी का बच्चा आया है. फिर कंबल में हाथ डाल कर एक सेव दिया. सेव इतना खराब था मतलब आखिरी हालत में. बोले खाओ. कैसे खायें. फिर गुस्से से बोले- खाओ. फिर मैंने खाया. बोले- आओ,भोजन करने के बाद जाना. मैं जाने लगा, तो एक आदमी ने पकड़ कर कहा कि जब बोले हैं, खाके जाओ, तो खाकर जाना. बस इतना मुझे याद है.
आपकी पुस्तक में ऋषिकेश की एक घटना का उल्लेख है. एक अमेरिकी महिला गंगा के किनारे घूम रही थी जो कैंसर से ग्रस्त थी, फिर वह नहीं रही, आपने उसकी मदद अपने गुरु से करायी?
आत्मा का न कास्ट है न रिलीजन है, आत्मा में तो ऐसा कुछ है ही नहीं. आज ब्राह्मण के शरीर में जो आत्मा है, वह कल दलित के शरीर में होगी. जो दलित के शरीर में आत्मा है, वह कल ब्राह्मण के शरीर में हो सकती है.
यह सब अपने अपने कर्म के हिसाब से होता है. आदमी के जीवन कई हैं, एक नहीं है. मैं यही कहता हूं. आत्मा की न जाति है न धर्म है. आत्मा शरीर में है. ब्राह्मण में पैदा हुआ ब्राह्मण, क्षत्रिय में पैदा हुआ क्षत्रिय. आत्मा तो ऐसा कुछ नहीं है. अगर आपको विश्वास है, तो ऐसा हो सकता है. अगर आप कहेंगे कि नहीं, तो आपको विश्वास नहीं है. सोचिए. कैसे हो सकता है. अपने आप में कर्म के हिसाब से आत्मा लौटती है.
एक सामान्य व्यक्ति के लिए मुक्ति का रास्ता क्या है? क्या योगी हमें वह रास्ता दिखायेंगे ?
मुक्ति का रास्ता योगी तब दिखायेंगे, जब हमें यह समझ में आयेगा कि जो हम ढूंढ़ रहे हैं, वह यहां नहीं है. इस आत्मानुभव के लिए इतनी प्यास और भूख लगनी शुरू हो जाती है कि लगेगा कि रास्ता यही है. तब उस समय गुरु होता है. तब गुरु प्रत्यक्ष होता है. गुरु ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है. जब हम इस स्तर पर पहुंच जाते हैं, तब गुरु अपने आप प्रत्यक्ष हो जाते हैं. फिर वहां से रास्ता बनाते हैं. इसे कोई बना नहीं सकता. अपने अनुभव से ही इसे हासिल कर सकते हैं.
भाग्य व कर्म क्या अलग-अलग हैं? क्या इंसान पुरानी डेस्टिनी लेकर पैदा होता है, क्या उसे बदल सकता है?
आप आत्मा की बात छोड़िए ,पहले शरीर की बात करिए. हजारों साल के जेनेटिक रिवोल्यूशन का रिजल्ट हैं हम. हमारे अंदर कितने जीन हैं और कब से हैं? हमारे अंदर जो जीन शुरुआत से है, वे बदले हैं क्या? उसका जो कंबिनेशन है, वह हैं हम. उसे कैसे बदल सकते हैं? यह जेनेटिक रिवोल्यूशन है.
हम तो कुछ भी नहीं कर सकते हैं. इसलिए जब बच्चा पैदा होता है, तो कई जीन सब में होते हैं, कुछ अलग-अलग होते हैं. इसलिए जीन का अलग-अलग कंबिनेशन है, ब्रेक है, कॉमन भी होते हैं. तो इसलिए एक लिमिट तक हम कर सकते हैं. ब्लूप्रिंट के अंदर काम कर सकते हैं, ब्लूप्रिंट के ऊपर कुछ नहीं कर सकते हैं. हम कैसे डिसाइड कर सकते हैं कि जेनेटिक कंबिनेशन क्या है? हम यह नहीं कर सकते हैं? वह अपने आप बाहर आ रहा है. देखिए, शरीर की बात है, हमारा जो ब्रेन है, वह एक मिलियन वर्ष के इवोल्यूशन के बाद आया है.
जेनेटिकली, तो जरूर हमारा और आपका अलग-अलग रहेगा. कॉमन फीचर तो रहेगा, लेकिन अलग-अलग रहेगा. यह हम नहीं बदल सकते. मैं यह डिसाइड नहीं कर सकता हूं कि कौन-से माता-पिता के घर पैदा लूं. यह डेस्टिनी है. उसके बाद मेरे सामने जो अवसर है, उसमें क्या अच्छा है, यह तय करने के लिए हमें भेज दिया गया है.
नहीं तो इसकी क्या जरूरत है? ऊपर से सब कुछ शुरू हो जाता है. मैं यह विश्वास करता हूं, इसलिए मेरे लिए यह ब्लूप्रिंट है. हमें सोचने की एक क्षमता दी गयी है, जिससे हम निर्णय ले सकते हैं. अगर आप सौ बार कोशिश करें, नहीं मिला तो समझिए, बैन है, नहीं मिलेगा. इसलिए हम कुछ नहीं करेंगे, ऐसा नहीं होता. भूख लगती है, तो आदमी खाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है, वह यह नहीं कहता है कि वह नहीं खायेगा. ऐसा तो नहीं हो सकता है.
जीवन में लगातार मिलनेवाले दुःख और निराशा को आदमी कैसे कम करे? दुखों को कम करने का आध्यात्मिक रास्ता क्या है ?
बहुत रास्ते हैं. जब उसे पता चल जाता है कि मन शांत होता है तो उसका जो आनंद है, वह हमारे अंदर है. उसे आदमी एक बार चख लेगा, तो उसे कोई दिक्कत नहीं है. काम करता रहेगा. अगर वह हो जाये, तो थोड़ा भी चख लेगा, तो उसे पता चल जायेगा कि बाहर ऐसी कोई चीज नहीं है, जो उसे मिलने वाली है. उसे कोई दिक्कत नहीं होगी. उसका तनाव कम हो जायेगा, क्योंकि वह सुख को बाहर नहीं ढूंढ़ रहा है. जब आप कुछ काम करते हैं, तो जो थोड़ा आनंद है, उसे थोड़ा बांटें, इतना ही काम है.
आप इतनी जगह घूम कर आये, फिर जे कृष्णमूर्ति के संपर्क में आये. उनके बारे में क्या राय है.बाबाजी ने बोला उनके पास जाओ. मैं उनसे मिला. उन्होंने कहा थोड़े दिन यहां रहो और कृष्णमूर्ति के बारे में जानो. उसके पहले भी पढ़ा था उन्हें. उपनिषद में जो है, उसे अच्छी तरह समझना थोड़ा मुश्किल है. उसके कई सोल्यूशन मुझे कृष्णमूर्ति से मिले. जो पंडित या योगी से नहीं मिल सकता था. उनको भी मैं योगी समझता हूं. उनके बहुत सारे कार्य हैं.
ईशोपनिषद में कहा गया है, जो अविद्या की आराधना करता है, वह अंधेरे में जाता है. अथर्ववेद के कई श्लोकों में भी इसी तरह की बात कही गयी है कि जो अविद्या की आराधना करता है, वह अंधेरे में चला जाता है और जो विद्या की आराधना करता है वह और घोर अंधेरे में चला जाता है.
बाबाजी से मैं पूछा तो उन्होंने कहा कि जब तुम कृष्णमूर्ति के पास जाओगे, तब सभी बात समझ में आ जायेगी. फिर मुझे धीरे-धीरे समझ में आया कि बात क्या है. जिसे लोग अविद्या कह रहे हैं, वह अपरविद्या है और जिसे विद्या कह रहे हैं वह पराविद्या है. मैं स्वामी चिन्मयानंद जी के पास गया और इस विषय में उनसे पूछा, तो उन्होंने कहा कि यह कहां लिखा हुआ है. मैंने बताया कि यह उपनिषद की बात है, तो उन्होंने कहा कि मैं तो उपनिषद पढ़ा नहीं हूं. फिर मैंने बोला, उपनिषद पढ़े नहीं हैं इससे क्या होता है, इस बारे में आप जानते हैं.
आपको अनुभव है. इसलिए बताइए. तब उन्होंने इसका दो मतलब बताया, जो समझता है अपने आप को कि वह विद्या का आराधक है, तो उसका अहंकार इतना बढ़ जाता है कि असल में सत्य उसके पास नहीं रह पाता है. वह सत्य को कभी पकड़ नहीं पाता है. क्योंकि उसे लगता है कि उन्हें सब कुछ पता है. इसलिए वह सत्य को कभी पकड़ नहीं सकता है.
दूसरा, उन्होंने कहा, जो सत्य ढूंढ़ रहे हैं, जिनको परमब्रह्म कहते हैं, उसमें कोई पुरानी चीजें नहीं है. जब भी हम किसी चीज के बारे में कहते हैं कि इस विषय में हमें ज्ञान है, इसका मतलब यह है कि पहले मैं इस चीज के बारे में नहीं जान रहा था,अभी इसकी जानकारी मिली. उस जानकारी को मेमोरी ने स्टोर कर लिया और जब चाहूं तब उस स्टोर से मेमोरी को खींचकर ला सकता हूं. यही हर विद्या के बारे में है.
चिन्मयानंद जी ने कहा कि मेमोरी पास्ट (भूत) में है, प्रेजेंट (वर्तमान)में तो है नहीं, लेकिन सत्य, ब्रह्म प्रेजेंट में है. इसलिए कोई भी विद्या उसे पकड़ नहीं सकती है. जब हम विद्या को जानने की बात करते हैं, तो उस सत्य ब्रह्म को पकड़ना मुश्किल हो जाता है. क्योंकि विद्या से हम पास्ट की बात करते हैं, जबकि सत्य-ब्रह्म को प्रेजेंट में पाना होता है. बाद में शिरडी साईं बाबा के सत्य साईं में बैठना हुआ. वह तो फकीर थे. कृष्णमूर्ति तो पढ़े-लिखे थे.
एक दिन किसी ने आकर कहा कि अज्ञान, ज्ञान है और विज्ञान उससे भी खराब चीज है. तब उन्होंने बहुत ही साधारण ढंग से समझाते हुए कहा- देखो, तुम रास्ते में चल कर जा रहे हो और कांटा लग गया, दर्द हो रहा है, तो वह अविद्या है. उस कांटे को निकालने के लिए दूसरे कांटे को लगाया, वह विद्या है. लेकिन अविद्या के कांटे को फेंक कर विद्या के कांटे को लगा लोगे क्या? यानी दोनों कांटों को फेंकना होगा.
अपनी पुस्तक के बारे में कोई रोचक या खास बातें बतायें.
हम लोग जब भी ऋषिकेश जाते थे, तो वहां पर नीलकंठ के नीचे रहते थे. नीलकंठ के नीचे मौनी बाबा की कुटी थी. जब हमारे बाबाजी आते, तो मौनी बाबा उस कुटी को खाली कर ऊपर नीलकंठ चले जाते थे. एक बार जब हम वहां थे, तो बैरागी बाबा आकर हमारे बाबाजी को कंप्लेन किये कि एक हाथी मदमस्त हो कर कई लोगों को मार दिया है.
बाबा ने कहा कि पहले फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को बताओ, मैं क्या फॉरेस्ट डिपार्टमेंट का आदमी हूं. तब बैरागी बाबा ने कहा कि मदमस्त हाथी ने दो साधुओं को भी मार दिया है. आप कुछ कीजिए. हमारे बाबा ने पूछा कि हम क्या कर सकते हैं? तब उन्होंने बताया कि यह मुझे पता नहीं है, लेकिन आप कुछ कीजिए. बाबा ने कुटी से सभी को बाहर जाने को कहा. आधी रात को उन्होंने मुझे उठाया और कहा कि चलो, चलते हैं. मैं सोचने लगा कि इस आधी रात को हमें कहां ले जा रहे हैं?
मैं उनके साथ चल दिया. गोपा और नीलकंठ के बीच में एक रास्ता है. बीच में घाटी है. हम दोनों जाकर वहां बैठ गये. बाबा जी ऊपर और हम नीचे. बैठने के बाद घाटी के दूसरी तरफ देखा कि एक चीता हमलोगों के पास आ रहा है. वह समीप आकर इधर-उधर टहलने लगा. मुझे कुछ क्षण के लिए लगा कि मेरा काम तो आज तमाम है. लेकिन वह चीता देखकर चला गया. दूसरी ओर घना पेड़ और जंगल भी था. हाथी जब पेड़ या जंगल के बीच में छुपा होता है, तो कुछ भी आवाज नहीं करता है, जबकि हाथी के आसपास किसी के होने पर उसे पता चल जाता है.
मैं जहां बैठा था, उसके आसपास बड़े-बड़े पेड़ थे. वहां से आवाज आयी और मदमस्त हाथी मेरे तरफ सूंढ़ हिलाता हुआ आने लगा. मैंने बाबा जी का हाथ पकड़ा और हाथ पकड़ कर ओम नमः शिवाय का जाप करने लगा. फिर अचानक से हाथी की चाल कम हो गयी. जैसे ब्रेक लग गया हो. हाथी बाबाजी के पास पहुंच गया. आगे का पेड़ उठाकर वह बाबाजी के पास झुक गया. बाबाजी उसके पास गये और कान में बोलने लगे कि जंगल में हाथी ऐसे जीता है क्या? ऐसे लग रहा था जैसे हाथी उनकी बात को समझ रहा हो.
मैं अवाक् था. फिर बाबाजी ने मुझे कहा कि मेरा हाथ पकड़ो और आगे बढ़कर हाथी को प्रणाम करो. मैंने कहा कि ऐसा नहीं करूंगा, पता नहीं वह हाथी क्या करेगा? लेकिन बाबाजी के आदेश के बाद मैं हाथी को प्रणाम किया. प्रणाम करते ही हाथी मुझे सूंघकर बैठ गया. कुछ देर बैठने के बाद फिर वह चला गया. बाबाजी ने कहा कि पूर्व जन्म के कर्म के कारण हाथी बन गया है. उसके बाद वह मदमस्त हाथी कुटी के आसपास कभी नहीं दिखा. हाथी के जाने के बाद वैरागियों का कुटी में आना-जाना शुरू हो गया. तब, मैंने पहली बार देखा कि योगियों के अंदर कितनी शक्ति होती है.
साधक एम की नयी किताब
द जर्नी कांटिन्यूज: ए सेक्वेल टू एप्रेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर
सितंबर 2011 में साधक श्री एम की पुस्तक ‘अप्रेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर (ए योगी’ज ऑटोबायोग्राफी) मिली. 2010 में छपी थी. पुस्तक में 50 अध्याय हैं. अंतिम अध्याय है, ‘द जर्नी कांटिन्यूज’ (यात्रा जारी है).
एक सप्ताह पहले, दिल्ली स्थित अपनी परिचित पुस्तक दुकान ‘बाहरी एंड संस’ (खान मार्केट) जाना हुआ. पहली बार यहां 1991 में आया था, तो दिलीप कुमार को बैठा, पढ़ता पाया. इसलिए स्मृति में है. वहीं श्री एम की दूसरी पुस्तक ‘द जर्नी कांटिन्यूज’ (ए सीक्वेल टू एप्रेंटिस्ड टू ए हिमालयन मास्टर) मिली.
अभी-अभी छप कर आयी है. लगभग 220 पन्नों की किताब की कुछ पंक्तियां हैं. पुस्तक का सार. वह कहते हैं, मस्तिष्क को झकझोर देनेवाली सूचनाएं,जो आधुनिक विज्ञान की अतिक्रमण करती हैं. उसमें चेतना और मस्तिष्क के अज्ञात संसार की बाते हैं. 24 अध्ययाय के ये अनुभव, सामान्य लोक संसार की मान्यताअों-धारणाअों पर सीधे अाघात-प्रहार है. यकीन न आनेवाली बातें.
पर आज से 30-40 वर्षों पूर्व मोबाइल पर किसे यकीन था? सूचना क्रांति, रोज नये अनुसंधान, ग्लोबल विलेज (डेथ ऑफ डिस्टैंस), अब भविष्य की ट्रेन ‘द हाइपरलूप’ (गति 1200 किमी प्रति घंटा, जो धरती पर हवाई जहाज से तेज गति से चलेगी) पर काम! विज्ञान ने कैसे असंभव को संभव बनाया. जो कल्पना से परे चीजें थी, उन्हें साकार कर दिखाया. कर रहा है.
उसी तरह साधक मानव चेतना की बात करते हैं. इनर्जी (ऊर्जा) और कांससनेस (चेतना) ही सृष्टि के मूलाधार माने जाते हैं. इनर्जी पर खूब शोध हुआ, पर चेतना तो अज्ञात है. भारत के ऋषि, तपस्वी, साधक, इसी चेतना की तलाश में रहे. इस रूप में जैसे विज्ञान अज्ञात रहा. उसके संसार से एक से एक स्तब्धकारी अनुसंधान निकले और उन्होंने दुनिया बदल दी. प्रचार से दूर रहनेवाले साधक कहते हैं, यह चेतना भी अज्ञात पथ है.
आज भी मानव चेतना अज्ञात है. उसकी दुनिया में कितनी अंजान चीजें हैं, कौन जान सका है? असल अध्यात्म इसकी तलाश है. श्री एम की इस नयी पुस्तक में ऐसे ही उनके स्वअनुभव हैं, जिन पर परंपरागत मन, मस्तिष्क और सोच यकीन ही नहीं करता.
श्री एम, कोई साधारण इंसान नहीं हैं. दुनिया के जानेमाने लोगों के बीच उनकी जगह है. गूगल से लेकर हर महत्वपूर्ण जगह वह सुने-पढ़े जाते हैं. पुस्तक आरंभ में कुछ साधकों की दुर्लभ तस्वीरें हैं. बाबाजी का स्केच कैसे तैयार हुआ, उसका दिलचस्प प्रसंग है. कैसे बिन बताये बाबाजी की तसवीर लेने की उनकी योजना विफल हुई, इसका वर्णन है. बाबाजी को बिन बताये कैसे यह सब पता चला, इसका ब्योरा है. ‘माइंड एंड मैटर’ (मस्तिष्क और धड़) की परंपरागत मान्यताअों ढांचे-सोचे सेआगे बढ़ कर.
पर, इसे पढ़ने से पहले इस पुस्तक के आरंभ में उनकी बातें ही जान लें. वह कहते हैं, इसे आप कपोल-कल्पना कह खारिज कर सकते हैं. शुद्ध झूठ मान सकते हैं या यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मैं भटक चुका हूं.
पर यह हकीकत है कि आज का तार्किक मस्तिष्क जो मानता-देखता-सोचता है, चेतना की अज्ञात दुनिया, उसके बहुत पार है. माना भी जाता है, सच, कल्पना से भी विचित्र होता है. हमारे योगी-ऋषि तो कह भी गये, यह ठोस संसार कुछ और नहीं माया है. मस्तिष्क की बनावट.
साधक श्री एम की ये बातें, ध्यान में रख कर आप यह पुस्तक पढ़ेंगे, तो शायद इसकी बातों-अनुभवों को साझा कर पायेंगे.
मौत की प्रतीक्षा करती लड़की से मुलाकात
धक श्री एम की पुस्तक के कई प्रसंग अविश्वसनीय लग सकते हैं. पर, अध्यात्म का एक पहलू है अज्ञात को जानना, कोलंबस-वास्कोडिगामा की खोज, भटकाव, पीड़ादायक समुद्री यात्रा के बाद पता चला कि दुनिया-सृष्टि का स्वरूप भिन्न है. उसी तरह साधना, तप, आत्मखोज की अज्ञात-अनजान दुनिया है.
पुस्तक में एक मार्मिक प्रसंग है. साधक श्री एम अपने गुरु बाबाजी (श्री महेश्वरनाथ बाबाजी) के साथ, ‘मुनी की रेती’ ऋषिकेश की गुफा में रह रहे थे. साधना और खाली समय में गंगा की अविरल प्रवाह देखना, घंटों-घंटों गंगा तट पर बैठ कर गंगा की लहरों, ध्वनियों, प्रवाह, वेग, गति, लय और एकांत से एकलीन होना. ऐसा था दैनिक जीवन. जिन लोगों ने दो दशकों पहले यहां पर गंगा का अक्षत सौंदर्य और प्रकृति की छटा-विशालता देखी होगी, वे ‘ईश्वरप्रिय हिमालय’ की झलक से परिचित होंगे.
वहीं, एक दिन, गंगा, निहारते, कुछ दूरी पर बैठी एक लड़की दिखाई दी. दूर से लगा वह यूरोप या अमरीका की है. रह-रह कर वह ‘वामिट’ (वमन) कर रही थी. लगा, अति पीड़ा में है. जब वामिट रुकता था, फ्लास्क से घूंट-घूंट पानी ले रही थी. अचानक उसकी निगाह साधक श्री एम पर गयी. उसका चेहरा पीला-कमजोर था. पीड़ा की वेदना, आंखों में थी. श्री एम खुद को रोक नहीं पाये. जा कर पूछा, क्या कोई मदद कर सकता हूं. उसने कहा, चाहती तो हूं, कोई मदद कर पाता, पर कुछ भी संभव नहीं है.
आग्रह पर उसने बताया. वह फिलाडेल्फिया (अमरीका) से थी. पढ़ाई-पेशे से माइक्रोबायोलाजिस्ट. चार वर्ष पहले हरिद्वार, ऋषिकेश आयी. अज्ञात कारणों से वह गंगा-ऋषिकेश से बंध गयी. हर साल आना, महीनों रहना, पर किसी गुरु या आश्रम या अध्यात्म से कोई सरोकार नहीं. प्रकृति, दृश्य अौर गंगा का अविरल प्रवाह उसे खींच ले जाते. पर, छह माह पहले उसकी दुनिया पलट गयी. काफी जांच के बाद पता चला, उसे कैंसर है.
पेट (कोलोन) में अंतिम स्टेज में. महज दो माह जीने का समय, अमरीकी डॉक्टरों ने बताया वह अपने प्रिय जय आ गयी. उसे लगा, रोग शरीर को खत्म करेगा, पर मन को जो चैन, सुकून और शांति, ऋषिकेश में गंगा किनारे मिलता है, वह तो अंतिम क्षण पा लें. घरवालों ने मना किया, पर वह अपनी जिद से आयी. स्वर्गआश्रम में कमरा लिया. बहुत पीड़ा, कुछ भी पचा न सकने की स्थिति, खून का वामिट. अकेलापन, मौत की प्रतीक्षा, यही था उसका जीवन.
उस अमरीकी युवती की बात सुन, साधक श्री एम की संवेदना-करुणा जगी. उसे वहीं रोका. कुछ दूर स्थित अपनी गुफा गये, वहां बाबाजी थे. दौड़ कर गये थे. हांफ रहे थे. उन्होंने पूछा, क्या हुआ. इनका जवाब था, एक अमरीकी युवती बड़ी कष्ट में है. उसे आपके पास लाने की अनुमति चाहता हूं.
बाबाजी ने पहले मना किया. फिर सहमति दी. वह आयी. कमजोर थी. चल नहीं पा रही थी. बाबाजी ने देखते ही कहा, कमंडल का पानी दो. बैठाया. बाबाजी ने आशीर्वाद दिया. उस युवती ने अपनी पूरी पीड़ा बतायी. कहा, डॉक्टरों ने कह दिया है, डेढ़-दो माह ही समय है. बाबाजी ने समझाया. कुछ आसान साधना पद्धति बतायी. आशीर्वाद दिया. उसे धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी व वामिट कम हुआ. वह अमरीका लौट गयी. संपर्क टूट गया. साधक श्री एम साधना की अपनी दुनिया में रम गये.
पुन: तीन वर्षों बाद उसी जगह एक शाम अचानक पुन: वह लड़की मिली. स्वस्थ व सुंदर. उसने बताया कि कई बार वह गुफा में बाबाजी और साधक श्री एम को तलाशने गयी. पर वहां कोई अन्य साधु मिले. उस मुलाकात और बाबाजी के आशीर्वाद के बाद, अमरीका लौटी. धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गयी. कैंसर खत्म. परिवार-डॉक्टर स्तब्ध. वह पुन: ऋषिकेष आयी, बाबाजी व साधक एम को आभार प्रकट करने. संयोग से मुलाकात हो गयी. वह दूसरे दिन वापस अमरीका लौट रही थी.
अचानक इस मुलाकात से प्रसन्न थी, पर बाबाजी से मिल कर आशीर्वाद चाहती थी. पता चला वह कैलास-मानसरोवर की यात्रा पर हैं. उस युवती ने इस बार साधक एम का पता, टेलीफोन नंबर लिखा. वह लौट गयी.
दो माह बाद, उस लड़की के भाई का पत्र साधक श्री एम के पास आया. लिखा था. भारत से लौटने के बाद 16 अक्तूबर की रात वह युवती नहीं रही. डॉक्टरों के अनुसार गहरी नींद में, हृदय गति रुकने से उसकी मौत हो गयी. पर मरने से पहले उसने उसने एक पत्र आपको लिखा था. वह भेज रहा हूं.
उस पत्र में उस अमरीकी युवती ने लिखा, अचानक तीन वर्षों बाद, पुन: उसी जगह मिलना, बड़ा सुखद रहा. यकीन है, बाबाजी के प्रति मेरा आभार बताया होगा. उस दिन, उनसे मिलने के बाद कुछ विचित्र घटा. मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गयी. पुन: जिंदा, उत्साह और ऊर्जा से भरपूर. कल रात बाबाजी को सपने में देखा… … पूरा अनुभव लिखा है.
इसके बाद सपने में बाबाजी से मुलाकात-उनकी बातों-संकेतों का उल्लेख है. उस सपने से साफ हो गया कि धरती पर उसका समय पूरा हुआ. अब एक नयी यात्रा पर निकलना है.
इसके एक दिन बाद ही वह नहीं रही.
साधक श्री एम के ऐसे अनुभव बांधते हैं, बताते हैं कि सृष्टि या संसार वही नहीं है, जो हम देखते-निरखते-परखते हैं.

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