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गणतंत्र के 64 साल,‘गण’ गायब सिर्फ ‘तंत्र’ बचा

देश मना रहा है आज 65वां गणतंत्र दिवसः क्या कहते हैं विशेषज्ञ गणतंत्र : ‘गण’ गायब सिर्फ ‘तंत्र’ बचा पूरा मुल्क आज 65वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. सरकारी प्रतिष्ठानों पर और अन्य जगहों पर तिरंगा लहरा रहा है. इस तिरंगे को देख कर बांछें खिल उठती हैं. देश भक्ति का जज्बा उभरता है. खुशी […]

देश मना रहा है आज 65वां गणतंत्र दिवसः क्या कहते हैं विशेषज्ञ

गणतंत्र : ‘गण’ गायब सिर्फ ‘तंत्र’ बचा

पूरा मुल्क आज 65वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. सरकारी प्रतिष्ठानों पर और अन्य जगहों पर तिरंगा लहरा रहा है. इस तिरंगे को देख कर बांछें खिल उठती हैं. देश भक्ति का जज्बा उभरता है. खुशी के फूल खिलते हैं. भारतीय गणतंत्र को और सजाने-संवारने में हिस्सा बनने का दिल करता है. 65 साल किसी भी समाज या मुल्क के लिए बहुत बड़ा वक्त है. भारतीय जम्हूरियत ने इन 65 साल में कई करवटें लीं. कई परिवर्तन देखे. तरक्की की मंजिलें तय की. पर कुछ कमी रह गयी है, ऐसा ख्याल भी बरबस मन को बोझिल कर देता है.

झारखंड के संदर्भ में देखें तो डायन और बाल विवाह जैसी कुप्रथा रुक नहीं रही हैं. इनके रोकथाम के लिए कड़े कानून भी बनाये गये हैं. पर इसका असर नहीं दिख रहा. सर्वे बताता है कि राज्य में प्रति वर्ष 60 महिलाओं की हत्या डायन बता कर की जा रही है. लेकिन अब तक किसी को दोषी तक करार नहीं दिया गया. गिरफ्तारियां हुई हैं, पर साक्ष्य के अभाव में अब तक सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है. कमोबेश यही हालत बाल विवाह की है. सर्वे के अनुसार, झारखंड में हर साल 1.80 लाख बाल विवाह होते हैं. पर अब तक सिर्फ चार मामले ही दर्ज हो पाये हैं. प्रस्तुत है दीपक की रिपोर्ट

हर साल मर रहीं 60 महिलाएं नहीं मिल रही किसी को सजा

रांचीः नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में 1991 से लेकर 2010 तक 1157 महिलाओं को डायन के नाम पर मार दिया गया. रांची में 250, पूर्वी सिंहभूम में 185 और बोकारो में 125 महिलाओं की हत्या की गयी. फ्री लीगल एड कमेटी (फ्लैक) संस्था के अनुसार, राज्य में प्रतिवर्ष 60 महिलाओं को डायन बता कर मारा जा रहा है. जबकि 600 महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है. यूनिसेफ व फ्लैक की ओर से 2002 में कराये गये सर्वेक्षण में पाया गया कि झारखंड के 32615 गांवों में औसतन 20 हजार महिलाएं डायन के नाम से प्रताड़ित की जा रही हैं.

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इस कुप्रथा को सामाजिक मान्यता भी मिल चुकी है. डायन कह महिलाओं को मारनेवाले 90 प्रतिशत लोग स्वीकार करते हैं कि महिला जादू-टोना, टोटका वगैरह करती है. यही नहीं, राज्य के कई इलाकों में पढ़े-लिखे लोग भी इस कुप्रथा पर विश्वास करते हैं.

डायन बिसाही

कानून : 2001 में झारखंड में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम को बिहार से अंगीकृत किया गया है. यह कानून सिर्फ प्रीवेंटिव लॉ है. दोष सिद्ध होने पर अभियुक्त को छह माह की सजा और दो हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान है.

क्या हो रहा है

डायन हत्या के मामले में गिरफ्तारी तो हो जाती है, पर साक्ष्य के अभाव में अधिकतर आरोपी बरी हो जाते हैं.

क्या है कारण

अंधविश्वास, अशिक्षा और सामाजिक जागरूकता का अभाव.

क्या हो रहा नुकसान

हर साल ग्रामीण इलाकों में 600 से अधिक महिलाएं प्रताड़ित की जा रही हैं. उनकी हत्या हो रही है.

क्या है निदान

सामाजिक जागरूकता फैलाने के लिए ग्रामीण स्तरों में अधिक प्रयास की आवश्यकता है.

प्रति वर्ष 1.80 लाख बाल विवाह, चार मामले ही दर्ज

रांची:यूनिसेफ, एनुअल हेल्थ सर्वे, सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे और एनएचएफएस के आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में 50 फीसदी बालिकाओं का विवाह 18 वर्ष से कम आयु में हो रहा है. राज्य में औसतन 3.50 लाख विवाह प्रत्येक वर्ष होता है. इसमें 1.80 लाख बाल विवाह के मामले हैं. राज्य सरकार ने सभी बीडीओ को निषेध पदाधिकारी मनोनीत किया है. झारखंड में बाल विवाह निषेध कानून भी लागू है. फिर भी यहां अब तक सिर्फ चार मामले ही दर्ज हो पाये हैं, वह भी वर्ष 2007 में.

बाल विवाह

कानून : बाल विवाह कराने पर 15 दिन की कैद या 1000 जुर्माना या दोनों हो सकता है. 21 वर्ष से ऊपर की आयु के पुरु ष का बाल विवाह करानेवाला को तीन महीने की साधारण कैद तथा जुर्माना दोनों हो सकता है.

क्या हो रहा है

वर्तमान में करीब 50} शादी बाल विवाद के दायरे में आती है. पर कार्रवाई नहीं होती. थाने में इसकी सूचना तक नहीं दी जाती. अब तक सिर्फ चार मामले दर्ज किये गये हैं.

क्या है कारण

अशिक्षा, सामाजिक व्यवस्था व गरीबी ही सबसे बड़ा कारण.

क्या हो रहा नुकसान

मातृ मृत्यु, शिशु मृत्यु दर, कुपोषण बढ़ा है

क्या है निदान

बालिकाओं को बुनियादी शिक्षा

दिये जाने से इस अपराध का निदान हो सकता है

अभी लड़नी है कई अधिकारों की लड़ाई

-राहुल सिंह-

देश में संविधान लागू होने के 63-64 वर्षों के बीच नागरिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए कई कानून बने. आम लोगों को सूचना, रोजगार, शिक्षा, भोजन सहित कई तरह के अधिकार मिले. इसके बावजूद अभी कई ऐसे अधिकार हैं, जो लोगों को मिलने बाकी हैं.

एक पारदर्शी, ईमानदार व समान अधिकार एवं अवसर वाली व्यवस्था में एक नागरिक को और भी कई तरह के अधिकार चाहिए. मसलन, अपने जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार, तय समय सीमा के अंदर न्याय पाने का अधिकार, स्थानीय योजनाओं में ग्रामसभा और मुहल्लासभा की सीधी भागीदारी व मशविरा का अधिकार, प्रदूषण से बचाव का अधिकार ऐसे कानून हो सकते हैं, जिस पर अबतक देश में व्यापक बहस नहीं छिड़ सकी है.

मौजूदा व्यवस्था में कई राज्यों में ऐसे प्रावधान हैं, जिसके तहत आप निर्वाचित शासन इकाई की सबसे पहले प्रमुख मुखिया को उसके पद से वापस बुला सकते हैं. यानी अगर किसी पंचायत की जनता अपने क्षेत्र में किसी को मुखिया चुनती है और एक समय के बाद वह महसूस करती है कि पंचायत के विकास में लोगों की समस्या को सुनने व सुलझाने में उसका महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहा तो जनता मतदान प्रक्रिया के तहत उसे पद से वापस बुला सकती है.

इस व्यवस्था का विस्तार विधायक व सांसदों के निर्वाचन में क्यों नहीं किया जा सकता? हां, विधानसभा या लोकसभा की निर्वाचन इकाई बड़ी होती है, इसलिए वहां इस तरह की व्यवस्था बनाने में तकनीकी दिक्कतें आयेंगी, पर इस तरह के व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए विधानसभा या संसद एक कानून के माध्यम से ऐसी व्यवस्था बना सकती है. हमारे यहां अदालतों में मामले लंबे समय तक चलते हैं. लोगों को साधारण मामलों का कानून सम्मत ढंग से अदालत से समाधान पाने में वर्षों लग जाते हैं.

इसका बड़ा कारण न्यायपालिका के ही लोग बार-बार अदालतों पर क्षमता से अधिक मुकदमों के बोझ को बताते हैं. ऐसे में यह सरकार की जिम्मेवारी हैं कि वह एक ऐसा तंत्र बनाये जिससे अलग-अलग तरह के मामलों में तय समय सीमा के अंदर फैसले आयें. हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व में कहा गया है कि हर नागरिक को सभी का समान न्याय मिले और उसे नि:शुल्क विधिक सहायता भी मिले, ताकि वह न्याय से वंचित नहीं रह जाये. जबकि आज भी आम आदमी को ससमय न्याय पाने में दिक्कतें हो रही हैं.

लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊंची ग्रामसभा का लाख नारा लगाने के बाद भी हमारे यहां सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर योजनाओं को लागू करने में फिलहाल ग्रामसभा और मुहल्लासभा की कोई सक्रिय भागीदारी नहीं है. नीतिगत मामलों को अगर छोड़ भी दिये जायें तो ऐसी योजनाएं जो स्थानीय लोगों से जुड़ी हैं, उनमें ग्रामसभा व मुहल्लासभा को महत्व दिया जाना चाहिए. हमारे देश में प्रदूषण को लेकर स्पष्ट मानक नहीं हैं.

शहरों में वाहनों की बढ़ी संख्या व औद्योगिक के कारण प्रदूषण होना तो जगजाहिर है, लेकिन गांवों में वहां स्थापित औद्योगिक इकाई के द्वारा तय मानक से कई गुणा अधिक और खतरनाक किस्म का प्रदूषण फैलाने के कारण वहां के लोगों के जीवन पर खतरा उत्पन्न हो रहा है. यह एक तरह से जीने का अधिकार छीनने की तरह है. इसके खिलाफ भी संघर्ष की जरूरत है, ताकि लोगों की जिंदगी से अधिक महत्वपूर्ण किसी का आर्थिक लाभ नहीं हो. जब हम स्वच्छ वातावरण की मांग करते हैं तो इसमें सिर्फ हवा ही नहीं, बल्कि मिट्टी और पानी भी आता है. संविधान में उल्लेखित मौलिक कर्तव्य में भी स्वच्छ पर्यावरण बनाये रखने की चर्चा है.

गणतंत्र दिवस के मौके पर विशेषज्ञों की राय जानने के लिए यहां क्लिक करें-

देश मना रहा है आज 65वां गणतंत्र दिवसः क्या कहते हैं विशेषज्ञ

गणतंत्र : ‘गण’ गायब सिर्फ ‘तंत्र’ बचा

Prabhat Khabar Digital Desk
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