न कानून का भय रहा. न लोकलाज का डर. न शर्म, न संकोच और न ही मूल्य. चौतरफा पाशविक प्रवृत्तियां उभार पर हैं, तब समाज इनकी गिरफ्त से कैसे बाहर निकले? अच्छाई सिसक रही है.
बुराई अट्टहास कर रही है. ईमानदारी, त्याग, चरित्र, श्रम, निष्ठा, मूल्य आदि फालतू-बोझ मान लिये गये. ‘आप’ का राजनीतिक उदय भी धूमिल हो रहा है. ऐसे में बदलाव-परिवर्तन के स्रोत कहां हैं? पढ़िए आध्यात्मिक चिंतक, तपस्वी, प्रचार से नितांत दूर, अकेले साधना में लगे उदय राघव जी के विचार.
ना नुपमृद्य प्रादुर्भावात् योगवाशिष्ठ का सूत्र है. महर्षि वशिष्ठ श्री रामचंद्र को उपदेश दे रहे हैं. उपमर्दन के बिना प्रादुर्भाव संभव नहीं. चने का बीज मिट्टी में डाल दो, पानी डाल दो. पुराने बीज को नष्ट कर नया अंकुर जन्म लेता दिखेगा. पुराना नये को शुरुआती पोषण देकर नष्ट हो जाता है. यह विज्ञान है. जब नया अपने बलबूते खड़ा हो जाता है तो फलता है, फूलता है.
वैसे भी इस दुनिया में कुछ भी हमेशा एक जैसा रहता नहीं, परिवर्तनशील जगत है यह. कोई फूल सुबह खिल कर शाम को मुरझाता है, कोई कुछ दिन टिकता है, कोई कुछ महीने तो कोई कुछ साल. हमारा भी जन्म होता है, मृत्यु होती है.
रूस के जार को अपदस्थ कर, नष्ट कर साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना हुई. दुनियाभर में गरीबों की बांछें खिल गयीं उस समय. लगा एक नयी सुबह आयी, नया युग आया. मुश्किल से साठ-सत्तर बरस टिक पाया. सोवियत-संघ टूट गया. अन्य देशों में भी साम्यवादी व्यवस्था, बाजारवादी व्यवस्था से परास्त हो गयी. हमारे यहां जयप्रकाश जी के आंदोलन से पैदा हुई आशा चंद महीने ही टिक सकी.
यहां कुछ भी टिकता नहीं. इस परिवर्तन के साथ हम अपने को एडजस्ट करते हैं. सभ्यताएं और संस्कृतियां कुछ सौ-हजार वर्ष टिकती हैं. लेकिन वे भी मरती हैं, वे भी जाती हैं. सनातन नित्य-नूतन होकर खड़ा रहता है.
सड़े हुए पुरातन से चिपके रहना मोह है मित्रों! चारों तरफ से दुर्गंध आ रही है. समाज-व्यवस्था हो, शासन-व्यवस्था हो, शिक्षा-व्यवस्था हो, चिकित्सा व्यवस्था हो. हर तरफ से सड़ांध की बदबू आ रही है. यहां तक कि रिश्तों से भी, परिवार और परिवार के सदस्यों से भी. कितना भी ढकने-दबाने-छिपाने का प्रयास करो, सड़ी हुई भ्रष्ट व्यवस्था सभी सीमाओं को पार कर हमारी आंखों के सामने स्पष्ट है.
समाज की धरती सड़ चुकी है. पुराने की अच्छाई मर चुकी है. गंदगी बच गयी है सिर्फ जो जहर घोल रही है. विषाक्त कर रही है वातावरण को. ‘विजन’ के अभाव में इस सड़े हुए पुराने से ‘कम्प्रोमाइजेज’ कर हम काम चला रहे हैं. वह भी किसी तरह.
तोड़ने के लिए तोड़ना सेंसलेस डिस्ट्रक्शन है, निर्थक संहार है. लेकिन नया बनाने के लिए पुराने को तोड़ना निर्माण है, सृजन की प्रक्रिया है.
नया बने तो पुराना टूटेगा ही. लेकिन यह टूटना मीनिंगफुल है, सेंसिबल है. तोड़ने के उपकरण अलग होते हैं, बनाने के अलग. ताकत दोनों में चाहिए. तोड़ने और बनाने, दोनों में ताकत की जरूरत पड़ती है. लेकिन बनाने के लिए जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत होती है वह है विजन, नये की रूपरेखा.
अरविंद यदि बनाने के लिए तोड़ रहे हैं तो सहयोग देना चाहिए उन्हें. निर्माण की प्रक्रिया में सबको सहयोग देना चाहिए. अगर आपका विश्वास हो कि तोड़ने के लिए नहीं तोड़ा जा रहा, बनाने के लिए तोड़ा जा रहा तो हमको, आपको और सारे समाज को यह काम करना चाहिए. अपना तात्कालिक फायदा देखने की आदत बहुतों को है. इसलिए पुराने से चिपके रहने में जिन्हें फायदा है वे तो तोड़ने का विरोध करेंगे ही.
और अगर नयी व्यवस्था से साधारण निरीह लोगों को फायदा होनेवाला हो तो वे थोड़े से लोग जिनके हाथ में सत्ता है, धन-संपत्ति केंद्रित है, विरोध करेंगे ही. अभी हाल में ही ‘इंटरनेट’ पर पढ़ा कि मात्र पच्चासी लोग पृथ्वी की आधी संपत्ति के मालिक हैं. विश्व की प्रसिद्ध डेवलपमेंट संस्था ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट है यह.
शीर्षक है ‘वर्किग फॉर द फ्यू. जिस व्यवस्था के फलस्वरूप ऐसा असंतुलन (इम्बैलेंस) खड़ा हुआ है उसे तो मुहूर्त्त भर के लिए भी सहन नहीं करना चाहिए. जड़ से निर्मूल कर, उखाड़ कर ऐसी व्यवस्था को फेंक देनी चाहिए कि भविष्य में दुबारा ऐसी गलती हमसे न होने पाये.
1947 का अनफिनिश्ड एजेंडा है मित्रों. उस समय आजादी की लड़ाई से थके-मांदे लोग पुराने को ही स्वीकार कर, दक्षिण एशिया की अपनी सामाजिक विशिष्टताओं की उपेक्षा कर तात्कालिक संतुष्टि को ही प्राथमिकता दे बैठे. नये के निर्माण की जद्दोजहद नहीं उठा सके. शायद थक गये थे वे लोग.
आजादी की लड़ाई थकाने वाली हो गयी थी. गांधी-विनोबा की बातें भी अनसुनी हो गयी. 1952 के प्रथम आम चुनाव ने नरेंद्रदेव, जयप्रकाश, लोहिया, रामनंदन जैसे परिवर्तन के नायकों को रिजेक्ट कर दिया था. सोशलिस्ट पार्टी जिसके पास नये का विजन-डॉक्युमेंट था, रिजेक्ट हो चुकी थी. तब से 66 साल बीत चुके हैं. हम कॅम्प्रोमाइजेज करते गये. अपने संविधान और व्यवस्था में चिप्पियां लगाते गये. लेकिन मौलिक रूप से ढांचा वही पुराना था.
नयी समाज-व्यवस्था, नयी शासन-व्यवस्था, नयी शिक्षा-व्यवस्था, सब कुछ नया. पुराने को अलविदा कहना ही होगा मित्रों. पुराना अब किसी काम के लायक ही नहीं रहा. इतना ही नहीं, पुराना जहर घोल रहा है.
सब कुछ नया हो, मंगलकारी हो सबके लिये, इसका उत्साह आपके दिल में हो मित्रों. पुराने को तोड़ कर नया बनाने के लिए विश्वास की जरूरत होगी और आवश्यकता पड़ेगी आपसी भाईचारे की, प्रेम-स्नेह और संवेदनशीलता की. जगत का नाथ जगन्नाथ हमारे अंतर में हो तो उसकी ताकत के सहारे हम नया बना लेंगे.
और, सिर्फ अपने समाज, देश को बदलने की बात नहीं, सिर्फ अपने यहां नये को निमंत्रण देने की बात नहीं है. विनोबा का नारा था ‘थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली’. अपना घर नया कर लें. फिर पूरी दुनिया बदलनी होगी न. शेष दुनिया भी तो नया खोज रही है मित्रों.
लेकिन, फिलहाल अपना घर, अपना समाज, अपना देश. नये प्रारूप को अपने यहां स्थापित कर लें. फिर पूरी दुनिया को देंगे वह प्रारूप. पुराना तोड़े बिना नया बनता नहीं. पुराने से मोह न करें मित्रों, वह सड़ चुका है.