– रेहान फजल –
अफसरशाही-6 : बिशन टंडन से इंदिरा ने लिया बदला
वर्ष 1969 से 1976 तक का समय भारतीय जनतंत्र के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण समय माना जाता है. इस दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत बिशन टंडन ने जिस साफगोई से उस जमाने का चित्रण अपनी किताब ‘आपातकाल एक डायरी’ में किया है, उससे उनकी निर्भीकता का पता चलता है.
टंडन के जमाने में पीएमओ काफी छोटा था, लेकिन कैबिनेट सचिवालय से ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका था. पीएन हक्सर इसका नेतृत्व करते थे और वो विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. उनकी गिनती भी उस जमाने के सबसे बौद्धिक, न्यायप्रिय, निर्भीक और तेज-तर्रार अफसरों में होती थी. 1970 में जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर पीएन धर भी इंदिरा गांधी की टीम में शामिल हो गये.
बिशन टंडन अपनी किताब में प्रोफेसर धर को उद्धृत करते हुए लिखते हैं, ‘कैबिनेट सचिवालय की महत्ता कम होने का कारण इंदिरा गांधी का स्वभाव और कार्यशैली थी. वे संकोची स्वभाव की थीं. उनमें आत्मविश्वास की कमी थी और उनकी संवाद क्षमता बहुत अपर्याप्त थी.
विस्तृत विचार-विनिमय में खासकर जहां जटिल तर्क-वितर्क होता था वह विशेष योगदान नहीं कर पातीं थी. वह अपने वरिष्ठ अधिकारियों से भी सहज वार्तालाप में कठिनाई अनुभव करतीं थी.’ हालांकि इंदिरा गांधी कैबिनेट सचिव को भी मंत्रणा के लिए कम ही बुलाती थीं.
जिसकी वजह से इस पद की महत्ता घटती चली गयी. बिशन टंडन इस आकलन से पूरी तरह सहमत नही हैं. वो कहते हैं,’जब इंदिरा गांधी बात करने पर आती थीं तो हर तरह की बात कर सकती थीं. वो अक्सर मुझे प्रधानमंत्री निवास पर होनेवाले रात्रि भोजों में बुलाती थीं, लेकिन मैं कभी गया नहीं. एक बार उन्होंने पीएन धर से कहा कि यह साहब कभी आते ही नहीं.
इस पर धर ने कहा कि मैं उनसे कहूंगा कि इस बार आपने खासतौर पर बुलाया है. अगली बार जब भोज का आयोजन हुआ, तो मैं गया. उसमें मेरी पत्नी भी मेरे साथ थीं. डिनर के दूसरे दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहने लगीं,’यू हैव अ वंडरफुली ब्यूटीफुल वाइफ.’ कहने का मतलब यह कि जब वो बात करना चाहती थीं तो किसी भी तरह की बात कर सकतीं थीं.
इंदिरा का स्वभाव बदला
एक बार राज्यपालों की नियुक्ति हो रही थी, जिसे टंडन हैंडल कर रहे थे. इंदिरा गांधी ने उनसे कहा कि – मैंने आपके लिये बहुत अच्छा आदमी ढूंढ़ा है. बेहतर हो आप उनसे मिल लें. टंडन उनसे मिलने गये और लौट कर उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा- ‘आपकी च्वॉइस बिल्कुल गलत है.
ये साहब आठवां दर्जा पास हैं. कुछ उर्दू में शायरी कर लेते हैं. अगर आप उन्हें कुछ देना ही चाहती हैं तो पार्टी में दे दीजिए.’ टंडन का कहना मानते हुए इंदिरा गांधी ने उन साहब को राज्यपाल नहीं बनाया.
लेकिन 1974 के बाद इंदिरा गांधी के व्यवहार में परिवर्तन होना शुरू हो गया. इसका मुख्य कारण क्या रहा होगा. इस सवाल के जवाब में टंडन कहते हैं, ‘इसका मुख्य कारण था कि उनके पुत्र ने बहुत सारी चीजें अपने हाथ में ले ली थीं. पहले फाइलें इंदिरा गांधी के पास जाती थीं, तो एक दिन में वापस आ जाती थीं, निर्देश के साथ कि क्या करना है. लेकिन फिर उसमें विलंब होने लगा.’
बिशन टंडन के मुताबिक, सबकी सब फाइलें ‘कुंवर साहब’ के पास भेजी जाने लगीं और उनकी राय भी मायने रखने लगी. उनकी देखरेख में सारी नियुक्तियां की जाने लगीं और हर जगह चुने हुए ‘लचीले’ अफसर नियुक्त किये जाने लगे.’
मैंने बिशन टंडन से पूछा कि इंदिरा और जयप्रकाश नारायण के संबंध शुरू से ही खराब थे या बाद में खराब होने शुरू हुए. टंडन ने इसका जवाब विस्तार से बताया जिसके मुताबिक इंदिरा और जेपी के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहते थे.
1969 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद जेपी ने इंदिरा को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उन्हें बधाई देने के साथ-साथ उनकी आलोचना भी की. इंदिरा गांधी ने जवाब में जो पत्र उनको लिखा, उसका आशय कुछ इस प्रकार था, ‘राष्ट्रपति चुनाव के समय का मेरा आचरण आपको पसंद नहीं आया, पर आपने यह भी स्वीकार किया कि मेरे राजनीतिक जीवन के लिए ये आवश्यक था.मुझे पढ़ कर दुख हुआ और विशेष कर ये जानकर कि आप मुझे कितना कम जानते और समझते हैं.’
इंदिरा हुईं नाराज
टंडन के मुताबिक इसके बाद 1972 और 1973 में लगभग डेढ़ साल दोनों के संबंध काफी अच्छे रहे. डाकू समर्पण और मृत्युदंड को लेकर दोनों के बीच पत्रचार होता रहा. 1973 में जब सुप्रीम कोर्ट में तीन वरिष्ठ जजों के ऊपर एएन राय को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया, तो इंदिरा-जेपी के संबंधों में तल्खी आनी शुरू हो गयी. इसके बाद गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन में जेपी की भूमिका के कारण उनके संबंध इंदिरा गांधी से बिगड़ते ही चले गये.
1977 में चुनाव हारने के बाद मारु ति प्रकरण की जांच के लिए जब गुप्ता आयोग बनाया गया, तो टंडन ने संजय गांधी के खिलाफ गवाही दी. 1980 में सत्ता में वापस आने के बाद इंदिरा गांधी उनसे इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने तय किया कि केंद्र में न तो उन्हें कोई पदोन्नति मिलेगी और न उनकी कोई नियुक्ति होगी.
यही नहीं, उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को भी अलिखित आदेश दिये कि उन्हें कोई पदोन्नति न दी जाये. बिशन टंडन ने जब स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति लेने का आवेदन दिया, तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र ने उन्हें बुला कर कहा, ‘मैं तो इसे उनका दुर्भाग्य मानता हूं, जिन्होंने ये फैसला किया है कि आपका यथोचित उपयोग न किया जाये.’