।। प्रकाश कुमार राय ।।
तीन साल पहले शुरू हुई अरब-क्रांति की उम्मीदें समय के साथ कई आशंकाओं में बदल गयीं. मिस्र में राजनीतिक अस्थिरता और व्यापक हिंसा ने भविष्य के लिए कई सवाल पैदा किये.ऐसे में मिस्र में नये संविधान को पिछले दिनों जनता की स्वीकृति मिलने से यह आशा फिर से मजबूत हुई है कि देश अब लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ेगा. ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि से मिस्र अरब का सर्वाधिक प्रभावशाली देश है. आज के नॉलेज में मिस्र के ताजा हालात और नये संविधान के लिए जनमत संग्रह पर एक नजर.
मिस्र में 14-15 जनवरी को हुए दो दिवसीय जनमत संग्रह में नये संविधान को मंजूरी मिल गयी है.हालांकि, इस विवादास्पद प्रक्रिया में मुसलिम ब्रदरहुड के बहिष्कार और युवाओं की कम भागीदारी के कारण सिर्फ 38.6 प्रतिशत मतदाताओं ने ही हिस्सा लिया, जो सरकारी उम्मीद से काफी कम रहा. इनमें से 98 प्रतिशत से कुछ अधिक यानी लगभग दो करोड़ लोगों ने नये संविधान के पक्ष में मतदान किया.
इस मंजूरी के बाद अब वहां राष्ट्रपति और संसद के चुनावों का रास्ता साफ हो गया है. एक ओर जनमत संग्रह के परिणाम को सेना-समर्थित अंतरिम सरकार और सेना प्रमुख-सह-रक्षा मंत्री अब्दुल फतह अल-सीसी की मजबूत होती राजनीतिक पकड़ के संकेत के रूप में भी देखा जा रहा है. वहीं दूसरी ओर इससे देश में बड़े राजनीतिक विभाजन का भी पता चलता है.
नये संविधान की ओर कदम
पिछले साल जुलाई में तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी के विरुद्ध भारी विरोध प्रदर्शनों के बाद सेना ने हस्तक्षेप करते हुए मोरसी सरकार को भंग कर दिया था. तब अदली मंसूर के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ था. मोहम्मद मोरसी और उनके संगठन मुसलिम ब्रदरहुड ने इस कार्रवाई को तख्तापलट की संज्ञा देते हुए सत्ता छोड़ने से मना कर दिया था.
उसी समय से मोरसी और उनके कई समर्थक हिरासत में हैं. उन पर विरोधियों की हत्या करने, राजनीतिक-सामाजिक अस्थिरता फैलाने तथा फिलिस्तीनी संगठन हमास व लेबनानी संगठन हिज्बुल्लाह के साथ मिल कर मिस्र के खिलाफ आतंकी साजिश रचने के मुकदमे चलाये जा रहे हैं. मुसलिम ब्रदरहुड के विरुद्ध कार्रवाई करते हुए अंतरिम सरकार ने उसे आतंकवादी संगठन घोषित करके प्रतिबंधित भी कर दिया है.
मोरसी को अपदस्थ करने के बाद अल-सीसी ने जल्दी ही संसद के चुनाव कराने और मोरसी सरकार के संविधान को निरस्त कर नया संविधान लाने का वादा किया था. मुसलिम ब्रदरहुड और इसलामिस्ट पार्टी जैसे उसके सहयोगी संगठनों ने इस जनमत संग्रह को खारिज कर दिया है.
उनका कहना है कि इस प्रक्रिया में भाग नहीं लेनेवाले 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने इस संविधान को अस्वीकार कर दिया है. इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि दिसंबर, 2012 में मोहम्मद मोरसी की सरकार द्वारा तैयार संविधान पर हुए जनमत संग्रह में 32.9 प्रतिशत यानी लगभग एक करोड़ 67 लाख मतदाताओं ने ही भाग लिया था. इनमें से 63.8 प्रतिशत लोगों ने संविधान का समर्थन किया था. उस संविधान में राष्ट्रपति को दिये गये असीमित अधिकार और उसके इसलामी कानूनों पर आधारित होने के कारण उदारवादियों और युवाओं ने जनमत संग्रह का बहिष्कार किया था.
तीन जुलाई, 2013 को मोरसी को अपदस्थ करने के साथ ही मिस्र की सेना ने इस संविधान को निलंबित कर दिया था. अंतरिम राष्ट्रपति ने 8 जुलाई, 2013 को घोषणा की थी कि जल्द ही एक संविधान समिति का गठन किया जायेगा, जो मौजूदा संविधान में उचित फेरबदल करेगी; जिसे जनमत संग्रह के माध्यम से स्वीकृति के लिए जनता के सामने रखा जायेगा.
तीन सितंबर को पूर्व मंत्री और राष्ट्रपति पद के पूर्व उम्मीदवार अम्र मूसा की अध्यक्षता में 50 सदस्यीय समिति गठित कर दी गयी. इसी समिति ने नया संविधान तैयार किया है, जिसमें राष्ट्रपति, संसद, प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के निर्वाचन, कार्यकाल और अधिकार निर्धारित होंगे.
मिस्र का राजनीतिक परिदृश्य
फरवरी, 2011 में कई सप्ताह के निरंतर विरोध प्रदर्शनों के बाद लगभग चार दशकों से मिस्र की सत्ता पर काबिज होस्नी मुबारक को पद छोड़ना पड़ा था. तब फील्ड मार्शल मोहम्मद हुसैन तंतावी के नेतृत्व में सैन्य बलों की सर्वोच्च परिषद् ने सत्ता संभाली थी. लोकतंत्र की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों ने सैन्य शासन पर चुनाव कराने का दबाव बनाये रखा, जिसके चलते मई, 2012 में देश में पहली बार स्वतंत्र चुनाव हुए.
धार्मिक संगठन मुसलिम ब्रदरहुड की राजनीतिक शाखा फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार के रूप में मोहम्मद मोरसी राष्ट्रपति चुने गये. मोरसी ने कई शासनादेशों और संवैधानिक व्यवस्था के माध्यम से इसलामी कानून लागू करना शुरू कर दिया. ब्रदरहुड और मोरसी की मनमानी ने न सिर्फ सेक्युलर और उदारवादी खेमों को नाराज किया बल्कि अन्य इसलामी संगठन भी उनसे किनारा करने लगे.
30 जून, 2013 को मोरसी के कार्यकाल के साल भर पूरा होने के अवसर पर तमाम विरोधी संगठनों ने देशव्यापी प्रदर्शन आयोजित किया. प्रदर्शनकारियों की मांग थी कि राष्ट्रपति इस्तीफा दें. इन प्रदर्शनों की प्रतिक्रया में अगले दिन मोरसी समर्थकों ने भी धरने शुरू कर दिये. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सेना ने हस्तक्षेप करते हुए राष्ट्रपति मोरसी को दो दिनों के भीतर पद छोड़ने और अंतरिम सरकार के गठन का फरमान जारी कर दिया.
सेना की इच्छा थी कि संविधान में बदलाव हो और सालभर के अंदर चुनाव हो. लेकिन जनता द्वारा चुने जाने का हवाला देते हुए राष्ट्रपति ने अपने पद से इस्तीफा देने से मना कर दिया. तीन जुलाई को सेनाध्यक्ष अल-सीसी ने मोरसी को हटा कर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अदली मंसूर को अंतरिम राष्ट्रपति घोषित कर दिया. मंसूर ने जल्दी ही इस कार्रवाई का समर्थन कर रहे दलों और व्यक्तियों के साथ एक मंत्रिमंडल का गठन कर दिया और कुछ दिन बाद संविधान सभा की घोषणा कर दी.
मोरसी सहित कई प्रमुख नेताओं को हिरासत में रखने और संगठन को प्रतिबंधित किये जाने से बौखलाये ब्रदरहुड के कार्यकर्त्ता और समर्थक लगातार विरोध कर रहे हैं. हिंसक झड़पों में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. जनमत संग्रह के परिणामों के बाद अमेरिका सहित अनेक देशों ने मिस्र की सरकार से यह अपील की है कि देश में राजनीतिक सामंजस्य की प्रक्रिया शुरू की जाये, ताकि देश में और अरब क्षेत्र में बेहतर वातावरण बन सके.
राजनीतिक इसलाम व लोकतंत्र
होस्नी मुबारक के विरुद्ध क्रांति में भाग लेने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्वीकार करने के मुसलिम ब्रदरहुड के फैसले को बहुत सकारात्मक पहल तथा अरब में लोकतंत्र और राजनीतिक स्थिरता के नये युग की शुरुआत के रूप में देखा गया था.
लेकिन इसलामी संगठनों ने चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के बावजूद लोकतंत्र के चरित्र को समझने और अपनाने में संकीर्णता का परिचय दिया. राजनीतिक विरोधियों को सशंकित करने के अलावा ये संगठन आपस में भी एका नहीं रख सके. लेकिन इन संगठनों की गलतियों और असफलताओं के बावजूद यह भी स्वीकार करना होगा कि उन्हें शासन चलाने का समय नहीं दिया गया.
पद से हटाये जाने के समय मोहम्मद मोरसी का चार साल का कार्यकाल शेष था. यह कह पाना मुश्किल है कि मुसलिम ब्रदरहुड और सलाफियों को ठीक से कानून बनाने और देश चलाने का अवसर मिला होता तो तस्वीर क्या होती. 30 जून के प्रदर्शनों में अगर सेना का दखल न होता तो राजनीति की दिशा क्या होती?
अब जबकि मिस्र में उदारवादियों ने इसलामवादियों को हाशिये पर धकेल दिया है, लेकिन उनके समर्थकों में एक बड़ी संख्या ऐसी है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर ही आशंकित है और मानने लगी है कि गैर-राजनीतिक तरीकों से ही सत्ता लेना सही है. ध्यान रहे मिस्र समेत अनेक देशों में पिछले कुछ सालों में इसलामवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही चुने गये हैं.
मिस्र में तो मुसलिम ब्रदरहुड देश के इतिहास के पहले स्वतंत्र चुनाव में निर्वाचित होकर सत्ता में आयी थी. यह देखना दिलचस्प होगा कि लोकतंत्र समर्थकों का मिस्र में सेना और मुबारक की तानाशाही से जुड़े तत्वों से गंठजोड़ मुबारक विरोधी क्रांति और मोरसी को हटाने के आंदोलन से उपजी उम्मीदों को कहां ले जाती है.
अल-सीसी होंगे मिस्र के अगले राष्ट्रपति!
जनमत संग्रह के बाद यह सवाल स्वाभाविक है कि मिस्र का अगला राष्ट्रपति कौन होगा. उदारवादी खेमे और सेना से नजदीकी संबंध रखनेवाले संगठन और लोग कई महीनों से यह कह रहे हैं कि मौजूद रक्षामंत्री और सेना प्रमुख अब्दुल फतह अल-सीसी इस पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हैं. मिस्र की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा यह मानता है कि अल-सीसी ने देश को मुसलिम ब्रदरहुड के चंगुल से बचाया है और वही देश को राजनीतिक स्थिरता की ओर ले जा सकते हैं.
59 वर्षीय अल-सीसी 1977 से सेना में कार्यरत हैं. अगस्त, 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी ने अल-सीसी को जनरल की पदोन्नति देते हुए मोहम्मद हुसैन तंतावी की जगह सेना प्रमुख और रक्षा मंत्री बना दिया. तब अल-सीसी को मोरसी और ब्रदरहुड के समर्थक के रूप में देखा जाता था.
लेकिन 30 जून के विरोध प्रदर्शनों के बाद उनके द्वारा मोरसी को अल्टीमेटम देने और फिर पद से हटाने के बाद ब्रदरहुड विरोधियों ने उन्हें पूरा समर्थन दिया है. हालांकि, अल-सीसी ने सीधे सत्ता की कमान अपने हाथ में नहीं ली, लेकिन अंतरिम सरकार पर उनका पूरा नियंत्रण है और नये संविधान के पीछे उनकी बड़ी भूमिका रही है. अपने नियंत्रण को मजबूत करते हुए उन्होंने कुछ महीने पहले रक्षा मंत्री के अलावा प्रथम उप-प्रधानमंत्री का पद भी ग्रहण कर लिया था.
मिस्र में पिछले कुछ समय से अल-सीसी के चित्रों वाले पोस्टर जगह-जगह दिखने लगे हैं और सरकार लगातार लोक कल्याणकारी योजनाएं लागू करने लगी है. अल-सीसी को खाड़ी देशों और सऊदी अरब का महत्वपूर्ण समर्थन भी प्राप्त है.
उल्लेखनीय है कि अरब देशों में मुसलिम ब्रदरहुड आठ दशकों से सक्रिय है और उसके संबंध हर सरकार से खराब रहे हैं. 2011 में मिस्र समेत अरब के कई देशों में सत्ता-परिवर्तन के लिए हुए प्रदर्शनों के बाद अनेक देशों में संगठन पर से प्रतिबंध हटाया गया था, जिसे खाड़ी के देशों और सऊदी अरब ने पसंद नहीं किया था.
ऐसे में ब्रदरहुड के विरुद्ध अल-सीसी के कदमों का उनका समर्थन मिलना स्वाभाविक था. उदारवादी खेमा भी उनके साथ है, क्योंकि उसे यह भय है कि अगर सेना का दखल नहीं रहेगा तो ब्रदरहुड की वापसी हो सकती है.
अब तक अल-सीसी ने अपनी उम्मीदवारी के बारे में कुछ नहीं कहा है, लेकिन उनके पक्ष में चल रहे प्रचार और कई दलों समेत महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा उनके नाम के समर्थन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनकी उम्मीदवारी की घोषणा सिर्फ औपचारिकता ही है.
मौजूदा राजनीतिक हालात में अल-सीसी की जीत भी सुनिश्चित मानी जा सकती है और यह भी उम्मीद की जा सकती है कि उनके नेतृत्व में मिस्र राजनीतिक स्थिरता की ओर अग्रसर होगा. लेकिन नया संविधान और नयी सरकार जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं पर कहां तक खरे उतर पायेंगे, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा.
राष्ट्रपति: निर्वाचन और अधिकार
– राष्ट्रपति का कार्यकाल चार वर्ष होगा और कोई भी व्यक्ति दो बार से अधिक इस पद पर नहीं रह सकता है.
– राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की उम्र कम-से कम 40 वर्ष होनी चाहिए.
– राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को मनोनीत करेगा.
– संसद के बहुमत की स्वीकृति के साथ राष्ट्रपति सरकार को भंग कर सकता है.
– संसद भंग करने से पूर्व राष्ट्रपति को जनमत संग्रह के द्वारा जनता की मंजूरी लेनी होगी.
सेना
– सेना प्रमुख अनिवार्य तौर पर रक्षा मंत्री होगा. उसके मनोनयन की स्वीकृति सैन्य बलों की सर्वोच्च परिषद करेगी.
– सेना प्रमुख का कार्यकाल चार वर्ष का होगा और वह अधिकतम दो बार इस पद पर रह सकता है.
– सेना के बजट का निर्धारण राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद द्वारा होगा.
– सेना के विरुद्ध किये गये अपराधों के लिए आम नागरिकों के विरुद्ध सैन्य न्यायालयों में मुकदमा चलाया जा सकता है.
धर्म
– इसलाम राजकीय धर्म होगा और शरिया के आधार पर कानून बनाये जायेंगे.
– शरिया की व्याख्या का अंतिम अधिकार सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय के पास होगा.
– मिस्र के ईसाइयों और यहूदियों के व्यक्तिगत और धार्मिक मामलों का निर्धारण उनकी धार्मिक मान्यताओं और व्यवस्थाओं के अनुसार होगा.
– इसलाम के सैद्धांतिक और आध्यात्मिक व्याख्याकार के रूप में प्रतिष्ठित अल-अजहर विश्वविद्यालय की स्वायत्तता बनी रहेगी.
नागरिकों के अधिकार
– धर्म, संप्रदाय, लिंग और क्षेत्र के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन नहीं किया जा सकता है.
– राजनीतिक दलों के पास किसी तरह के हथियारबंद तत्व नहीं होंगे.
– राजनीतिक दलों को भंग करने का अधिकार सिर्फ न्यायालयों को होगा.
– सार्वजनिक जीवन में स्त्री और पुरुष को बराबर अधिकार होंगे. संसद में स्त्रियों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने की व्यवस्था होगी.
– नागरिकों को धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता होगी. उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से संगठित होने और प्रदर्शन करने का अधिकार होगा.
– नये संविधान के अनुरूप निर्वाचित पहली संसद में किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था होगी.