।। अरुण भोले ।।
किसी बुजुर्ग की दी सलाह है- कौर उतना ही बड़ा काटो जितना चबाया जा सके. अरविंद-मंडली इस ताकीद का ख्याल रखे, तो उसका भी भला हो और देश का भी. दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिल गयीं.
क्यों मिलीं, कैसे मिलीं, पक्के तौर पर किसी को पता नहीं. मतगणना के दिन अरविंद केजरीवाल इससे ज्यादा कुछ नहीं बता पाये कि एक चमत्कार हुआ. लेकिन उस चमत्कार के भरोसे अगली लोकसभा की तीन सौ सीटों पर ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) चुनाव लड़ने का मंसूबा रखता हो, तो जरूर याद रखे – चमत्कार बार-बार नहीं होता. अगली बार बंटाधार भी हो सकता है.
लिहाजा, बेहतर होगा कि अभी आप मुस्तैदी से दिल्ली की ही सेवा करें. जनता के साथ किये गये वायदे पूरा करने में विफल हुए, तो न घर के न घाट के. उतने बड़े पैमाने पर लोकसभा चुनाव की तैयारी में व्यस्त हो जाने का सीधा नतीजा होगा, दिल्ली उपेक्षित रह जायेगी.
और शुरुआती दौर में ही समस्याओं तथा प्रशासन पर पकड़ ढीली पड़ गयी, तो हालात आगे बेकाबू होते जायेंगे. बुद्धिमानी इसी में है कि फिलहाल आप अपने हौसलों को लगाम दें और संसद की ओर आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाएं.
एक राजनीतिक दल के नाते महज ‘खेल-बिगाड़ू’ की भूमिका अदा करना ही उत्तम मान लिया हो, तब सिर्फ तीन सौ ही क्यों? लोकसभा की सभी 543 सीटों पर ताल ठोक दें. चिंता की कोई बात नहीं. विज्ञापन निकलने भर की देर है. कनॉट प्लेस से कौशांबी तक लंबी कतार लग जायेगी और ऐसी मूसलाधार धनवर्षा होगी कि छत टूटने लग जाये. लेकिन दूरगामी राजनीति की चिंता हो, तो संभल कर चलें.
सच पूछें तो एक नयी उम्मीद जगाने के सिवा आम आदमी पार्टी ने अब तक तो कुछ खास किया नहीं. आगे का नहीं जानते, अभी तो वह मीडिया प्रसारित बस एक बैंड-पार्टी हैं बजने वाले, सुनाने वाले, दोनों खुश. अन्ना ने प्रशासनिक कुरीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो तेज तूफान खड़ा किया था, उसे ही एक राजनीतिक मोड़ देते हुए अरविंद-मंडली ने ‘पॉलिटिकल-कल्चर’ सिरे से संवारने का एक मजबूत हौसला जगाया.
लोगों में उम्मीद बंधी है कि दलगत राजनीति के प्रचलित तौर-तरीके खत्म कर सार्वजनिक जीवन को मर्यादित किया जायेगा और एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था कायम की जायेगी, जिसमें काफी हद तक आम आदमी की भागीदारी मुमकिन हो. निश्चय ही यह एक निर्मल, किंतु निहायत नाजुक सपना है जिसके टूटने से रंज-वो-मायूसी के ऐसे खतरनाक हालत पैदा हो सकते हैं कि कुछ न पूछिए.
अरविंद-मंडली में उनके एक चिंतक सहयोगी हैं, योगेंद्र यादव. वे इस उमड़ते सैलाब को सावधानी से समझने की कोशिश करें, जो आगामी लोकसभा चुनाव के मद्दे-नजर आप की ओर उमड़ा चला आ रहा है.
ये कौन लोग हैं जो अचानक देश सेवा के लिए बेताब हो उठे हैं? कहीं ये वही लोग तो नहीं जिनके खिलाफ लड़ाई लड़नी है? इस उफान में क्या आप को पॉलिटिकल शेयर बाजार के नये निवेशकों और कॉरपोरेट घरानों के चट्टे-बट्टे नजर नहीं आते जिन्होंने मौके की नजाकत भांप आप की टोपी पहन ली है? लोग कहते सुने जा सकते हैं : ‘दौर-ए-इनकलाब का मंजर तो देखिए, मंजिल पै वे आगे मिले जो शरीकै सफर न थे.’ उन्हें ठीक से जांचने-परखने का कोई आजमाया हुआ भरोसेमंद तरीका आप के पास न हो, तो अच्छा होगा सार्वजानिक तौर पर जाने-पहचाने फकत दो दर्जन वैसे लोग, जिनकी मौजूदगी से सदन की गुणवत्ता और गरिमा बढ़ती हो, उन्हें आरजू कर चुनाव मैदान में उतारें और उनके पीछे सारी शक्ति झोंक दें. वे चंद कामयाब लोग दीपस्तंभ का काम करेंगे.
आप के द्वारा अब तक की गयी कवायदों का उत्साहवर्धक पक्ष यह जरूर है अन्य दलों में भी सुधार की सुगबुगाहट होने लगी है. लेकिन असर गहरा और टिकाऊ बने यह बहुत हद तक आम आदमी पार्टी के दैनिक आचरण पर निर्भर करता है.
उसके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण से सत्ता-राजनीति के चरित्र में वांछित सुधर आ जाये, तो इसे आप की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जायेगी. दिल्ली की सरकार चला लेना अपेक्षाकृत आसान काम है, क्योंकि उसे मुख्यत: जनसुविधा और कानून व्यवस्था की स्थानीय समस्याओं को ही संभालना पड़ता है. लेकिन भारतीय गणराज्य की केंद्रीय सत्ता संभालना निहायत मुश्किल जिम्मेदारी है.
भारत सरकार की समस्याएं जितनी बहुमुखी हैं, उतना ही विकराल भी. उसे गंभीर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करना होता है. उन सबसे सफलतापूर्वक निबटने के लिए हमें मजबूत इरादों वाली वैसी सरकार चाहिए जिसके मंत्रीगण न केवल ईमानदार हों, बल्कि उनमें पर्याप्त अनुभव और निपुणता भी हो. हमें इनकार नहीं कि अरविंद-मंडली के लोग ईमानदार, लगनशील और उत्साही हैं.
लेकिन जब पूर्वानुभव का अनिवार्य प्रश्न सामने आता है, तो हम जरूर ठिठक जाते हैं. अनुभवहीनता के कारण दिल्ली की वर्तमान सरकार अपने प्रारंभिक प्रयोगों में भूल-चूक कर भी बैठे, तो बहुत चिंता नहीं. क्योंकि उसके कुप्रभाव सीमित और अस्थायी होंगे. किंतु केंद्रीय सरकार की गलतियां बड़े व्यापक रूप में और लंबे काल तक हमें परेशान रखेंगी. चीन, कश्मीर और उससे जुड़े आतंकवाद के मसले इसके उदाहरण हैं. राष्ट्रीय स्तर पर किये गये अटपटे प्रयोगों का जोखिम हम हरगिज उठा नहीं सकते. मरहूम मौलाना अबुल कलाम आजाद साहब का कहा याद आता है : ‘सियासत तिफ्लै नादानी का शगल नहीं कि घरौंदे बनाये और तोड़ डाले.’
आगामी संसदीय निर्वाचन राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जायेगा. चुनाव मैदान में राष्ट्रीय स्तर की सिर्फदो पार्टियां होंगी- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी. कांग्रेस अखिल भारतीय संगठन है, साथ ही देश की सबसे पुरानी पार्टी भी. भाजपा का प्रसार सर्वदेशीय तो नहीं किंतु, उत्तर पश्चिम और मध्य भारत में उसकी पकड़ काफी मजबूत है.
दक्षिण भारत के कुछ-एक राज्यों में भी उसकी अच्छी पहचान बनी है और खास कर नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी से मतदाताओं को एक विचारणीय विकल्प दिखने लगा है. जनता चाहेगी कि देश में स्वच्छ, मजबूत और टिकाऊ सरकार बने. अनुभव बताता है कि क्षेत्रीय दलों के सहारे बनी सरकार पाक-साफनहीं रह सकती. उसे घटक दलों के कुकर्मों की अनदेखी मजबूरन करनी पड़ती है.
कांग्रेस की बदनामी में कमोबेश उन सब का हाथ है जिन्होंने सरकार चलाने में अंदर या बाहर से उसकी मदद की. घोटालों में कलंकित गैर कांग्रेसियों की ओर निगाह डालें तो बात साफ हो जायेगी. सेकुलरिज्म का सिक्का काफी घिस चुका है और जल्द ही चलन से बहार भी हो जायेगा.
मुसलमान धीर-धीरे यह समझने लगे हैं कि राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा के साथ जुड़ने में उनका ज्यादा फायदा है तथा आर्थिक-शैक्षणिक पिछड़ापन या गरीबी-बेरोजगारी जैसे सार्वजनिक मुद्दों को मुसलमान के बजाय एक भारतीय के नाते समझने-सुलझाने में वे सहायक बनें तो सुख-चैन से बसर के लिए हिंदुस्तान से उम्दा दूसरी जगह नहीं है. इन सब हकीकतों के मद्देनजर आम आदमी पार्टी फैसला करे कि आगामी लोकसभा चुनावों में उसकी रचनात्मक भूमिका क्या होनी चाहिए.
अगर होश के बजाये वह जोश के बहकावे में निकल पड़ा, तो हमें डर है कि चुनाव अभियान के दौरान हर जगह गली-बाजारों में उसे यह मुनादी सुननी पड़ जायेगी : ‘खबरदार, होशियार! हाथ में थामे झाड़ू आ-धमका खेल बिगाड़ू.’
(लेखक स्वराज और समाजवादी आंदोलन से जुड़े बिहार के जाने-माने जनसेवी और विचारक हैं.)

