* विजयशंकर पांडेय ने अपने 30 साल के कैरियर में 48 ट्रांसफर झेले
।। रेहान फजल ।।
पिछले साल रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के बीच के विवादास्पद भूमि सौदे को रद्द करने के 24 घंटे के अंदर हरियाणा के आइएएस अधिकारी अशोक खेमका को लैंड होल्डिंग और रिकॉर्ड्स के महानिदेशक पद से हटा दिया गया. इस पद पर वो मात्र 80 दिनों तक रह पाये. उनकी जगह तैनात किये गये अधिकारी खेमका का ट्रांसफर आदेश उन तक पहुंचने से पहले ही अपना पद संभालने पहुंच गये. मजे की बात ये है कि खेमका से कहा गया कि वो इस आदेश को सरकार की वेबसाइट से डाउनलोड कर लें. बीस साल के उनके आइएएस कैरियर में ये उनका 40 वां ट्रांसफर था.
तीस साल में 48 तबादले: आइएएस में खेमका अकेले अफसर नहीं हैं, जिन्हें नौकरशाही की भाषा में पनिशमेंट पोस्टिंग से दो चार होना पड़ा है. 1979 बैच के ईमानदार अफसर विजयशंकर पांडेय ने अपने 30 साल के कैरियर में 48 ट्रांसफर झेले हैं. पिछले दो सालों से वो लखनऊ में राजस्व बोर्ड की पोस्टिंग पर हैं जिसे नेताओं की लाइन पर न चलने वालों के लिए डंपिंग ग्राउंड माना जाता है. ये वही विजयशंकर पांडेय हैं, जिन्होंने 1996 में राज्य के तीन सबसे भ्रष्ट अफसरों को पहचानने की मुहिम चलायी थी.
तमिलनाडु में कोऑपटेक्स के प्रबंध निदेशक डी सगयम ने पिछले साल 16,000 करोड़ के मदुराई ग्रेनाइट घोटाले का पता लगाया था. उनको भी पिछले 20 सालों में 18 बार ट्रांसफर किया गया है. एक और आइएएस ऑफिसर विजय सिंह दाहिया को गुड़गांव नगरपालिका के आयुक्त का पद भार लेने के 37 दिनों के अंदर स्थानांतरित कर दिया गया.
रिटायर्ड आइएएस ऑफिसर मनोहर सुब्रमणियम कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में एक जिला कलेक्टर का औसत कार्यकाल घट कर सिर्फ छह महीने रह गया है, जबकि देश में ये औसत नौ महीनों का है. एक जमाना था कि जिला कलेक्टर का कार्यकाल तीन साल और प्रधान सचिव का कार्यकाल दो साल हुआ करता था. आजकल तो क्लेक्टर को अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए, अगर वो एक जिले में कुछ महीनों से ज्यादा रह जाये.
मायावती-मुलायम सभी जिम्मेदार : उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव वीके मित्तल का मानना है कि हाल के सालों में राजनीतिक नेतृत्व का परिपक्वता स्तर कम हुआ है. नेता लोग अफसरों की बात सुनने को तैयार नहीं हैं, चाहे वो उनके व सार्वजनिक हित ही में क्यों न हो. आज ये मान कर चला जाता है कि अगर सरकार बदलती है तो नौकरशाही में भारी फेरबदल होना लाजिमी है. जब पिछले साल समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आयी, तो उसने सबसे पहला काम किया 279 आइएएस अधिकारियों का एक मुश्त तबादला.
साल 1997 में मुख्यमंत्री मायावती ने एक दिन में 229 अधिकारियों का तबादला किया था. वर्ष 2004 में अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने भी एक दिन में 150 अधिकारियों को बोरिया बिस्तर बांधने पर मजबूर कर दिया था. किसी आइएएस अधिकारी को नौकरी से निकालना एक जटिल प्रक्रि या होती है. ऐसे में अगर कोई नेता किसी अफसर को पसंद नहीं करता है, तो उसका तबादला कर उसे तंग और अपमानित करना उसके लिए अपेक्षाकृत आसान होता है.
अब तो सरकारों की पहचान जातियों से होने लगी है इसलिए वो अपने समर्थकों को ये जतलाना चाहते हैं कि उनकी जाति के लोगों को अच्छी पोस्टिंग दी जा रही है. ऐसा भी होता है कि जब राजनीतिज्ञ जनता से किये हुए अपने वादे पूरे नहीं कर पाते तो वो अफसरों को बलि का बकरा बनाते हैं. एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी नाम न बताये जाने की शर्त पर कहते हैं, वो ये दिखाना चाहते हैं कि फलां अफसर ढंग से काम नहीं कर पाया इसलिए उसे हटाया जा रहा है.
महाराष्ट्र के अतिरिक्त मुख्य सचिव (राजस्व) स्वाधीन क्षत्रिय कहते हैं कि उनके राज्य में अब राजनीति के आधार पर आइएएस अधिकारियों के तबादले नहीं किये जाते. महाराष्ट्र शायद देश का अकेला राज्य है जहां ये कानून है कि हर अधिकारी का किसी पद पर सामान्य कार्यकाल तीन वर्षों का होगा. लेकिन इसके बावजूद आठ साल पहले मनीषा वर्मा को सोलापुर के जिला कलेक्टर के पद से हटा दिया गया था.
उनकी गलती थी कि उन्होंने पता लगा लिया था कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को बिना प्रशासनिक स्वीकृति के चलाया जा रहा था और उन ग्रामीणों के नाम पर पैसा लिया जा रहा था जो या तो मर चुके थे या बहुत पहले ही गांवों से जा चुके थे. आदर्श घोटाला सामने आने के बाद उस समय महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री विलास राव देशमुख ने अपने करीब के कुछ आइएएस अधिकारियों को बचाने की कोशिश की थी.
राजनीतिक दल पहले से ही उन पार्किंग स्थलों को चुन लेते हैं, जहां बात न मानने वाले आइएएस अधिकारियों को पटका जायेगा. एक दशक पहले तक बहुत से सामाजिक क्षेत्र के मंत्रालय इस तरह के पार्किंग स्थलों में आते थे. लेकिन अब नेता भी समझने लगे हैं कि इन क्षेत्रों में अच्छा काम उनके लिए वोट ला सकते हैं. एक और आइएएस अधिकारी नाम न बताये जाने की शर्त पर कहते हैं, इसके लिए सिर्फ नेताओं को ही दोष देना ठीक नहीं होगा. वरिष्ठ अधिकारी ख़ुद ही आगे बढ़ कर वो सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं जो नेता उनसे कराना चाहते हैं.
अगर नेता अपने हरम में नंगे नाचना भी चाहते हैं तो वफादार आइएएस अधिकारी उसकी व्यवस्था भी करवाने के लिए तैयार रहते हैं. एक और आइएएस अधिकारी का मानना है कि सरकार में रहने वालों और आम आदमी के ईमानदारी के पैमाने में फर्क है. वे कहते हैं, नेताओं की नजर में वो अधिकारी बेईमान नहीं है जो अपनी आंखें बंद रखता है.
एक और अधिकारी के अनुसार नेता और नौकरशाह के बीच एक अलिखित समझौता होता है कि वो सरकारी भूमि पर हर गैरकानूनी अतिक्र मण की तरफ से आंख मूंद लेगा. जब नेताओं को लगता है कि इस समझौते का पालन नहीं किया जा रहा, अफसर उसकी निगाहों से उतर जाता है और दोनों के बीच तनाव शुरू हो जाता है. एक और अधिकारी यहां तक कहते हैं कि कई राज्यों में तो बाकायदा ट्रांसफर उद्योग चल रहे हैं. उन्होंने गोपनीयता के साथ बताया, कुछ पदों की तो बाकायदा बोली लगायी जाती है. कुछ पद अपने करीबियों को दिये जाते हैं.
कार्मिक विभाग के सचिव पद का काबलियत से कोई लेना-देना नहीं होता. वो पद हमेशा राजनीतिक होता है क्योंकि वो राजनीतिक आकाओं की मनमर्जी को पूरा करता है. मजे की बात ये है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा हलफनामा दायर कर कहा हुआ है कि वो आइएएस और पीसीएस अधिकारियों का दो साल का कार्यकाल रखने के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन ये प्रतिबद्धता सिर्फ कागजों पर ही सीमित रही है.
नोएडा के डीएम रविकांत सिंह का तबादला इसका ताजा उदाहरण है. उनको चार्ज संभालने के कुछ महीनों को अंदर उनके पद से सिर्फ इस लिए स्थानांतरित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपनी मातहत एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल को क्लीन चिट देने की जुर्रत की थी.
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