।। नॉलेज डेस्क।।
इस वर्ष गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे होंगे. जापान के साथ भारत के संबंध पहले से भी मैत्रीपूर्ण रहे हैं, जिसमें अब और प्रगाढ़ता आ रही है. आज के नॉलेज में दोनों देशों के संबंधों में आ रही घनिष्ठता को समझने की कोशिश की गयी है..
जापान-भारत कूटनीतिक संबंधों की 60वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में जापान के सम्राट अकिहितो और महारानी मिचिको विगत माह यानी दिसंबर, 2013 में भारत दौरे पर आये थे. अब 26 जनवरी, 2014 को आयोजित होनेवाले गणतंत्र दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे होंगे. जानकारों का मानना है कि यह जहां भारत और जापान के बीच मजबूत होते आपसी रिश्तों का संकेत हैं, वहीं दोनों देशों के लिए इसमें कई अच्छे मौके छिपे हैं. भारत ने अकसर इस बात का जिक्र किया है कि दुनिया के सर्वाधिक सघन आबादीवाले लोकतांत्रिक देश जापान का महत्व उसकी भू-राजनीतिक स्थिति और आर्थिक क्षमता की वजह से महत्वपूर्ण है. उधर, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे भी भारत के साथ अपने मैत्रीपूर्ण संबंधों को इसलिए भी बढ़ावा देना चाहते हैं, ताकि एशिया में चीन के बढ़ते वर्चस्व को रोका जा सके. हाल ही में कुछ द्वीपों को लेकर उठे विवादों ने इस मामले को और भी तूल दिया है.
हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि जापान को कुछ हद तक इस मामले में राजनीतिक अवसरवादिता से इतर भारत का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए. उसके लिए बेहतर होगा कि भारत के साथ एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए अच्छे अवसर मुहैया करानेवाले सहयोगात्मक संबंध विकसित किये जाएं. पिछले वर्ष मई में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे और भारतीय प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के बीच आपसी रक्षा संबंधों की मजबूती के लिए व्यापक समझौता किया गया था. इसके तहत आपसी सैन्य अभ्यास समेत अन्य कई मामलों पर चरचा की गयी थी. दोनों देशों के बीच परमाणु ऊर्जा उत्पादन की तकनीकों समेत अन्य उपकरणों पर आदान-प्रदान करने के लिए भी समझौता किया गया.
सवा अरब आबादीवाले भारत की आर्थिक क्षमता बहुत ज्यादा है. हाल के वर्षो में देखा जा रहा है कि भारतीय बाजारों में प्रत्येक वर्ष सौ से ज्यादा जापानी कंपनियां आ रही हैं. जापान टाइम्स के मुताबिक, अब तक एक हजार से ज्यादा जापानी कंपनियां भारत में आ चुकी हैं. लेकिन उनका कहना है कि अपर्याप्त मूलभूत ढांचा, राजनीतिक लालफीताशाही और सुरक्षा संबंधी कारणों से भारत में विनिवेश का माहौल प्रभावित हो रहा है. उनका यह भी दावा है कि जापानी कंपनियां अल्पावधि फायदों के लिए भारतीय बाजार की ओर रुख नहीं कर रही हैं. ये कंपनियां भारत में सतत विकास कायम करते हुए कारोबारी गतिविधियों को अंजाम देना चाहती हैं, जिससे दोनों ही साङोदारों को फायदा पहुंचे.
आशंकित हो रहा चीन
भले ही भारत और जापान रक्षा व आर्थिक मामलों पर सहयोग के दृष्टिकोण से आपसी संबंधों को प्रगाढ़ बनाने में जुटे हों, लेकिन चीन के गले यह बात नहीं उतर रही है. चीन इस द्विपक्षीय संबंध को बेहद आशंकित नजरिये से देख रहा है. चीनी मीडिया (ग्लोबल टाइम्स) में तो यहां तक कहा गया है कि जापान के साथ कूटनीतिक सहयोग से भारत को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. दरअसल, भारत से जापान की निकटता को देखते हुए चीन को घबराहट हो रही है. एक चीनी अखबार के मुताबिक, जापान से ज्यादा रणनीतिक सहयोग दिखानेवाले भारत से निकट संबंध कायम करनेवाले पूर्वी एशिया के देशों से उनके संबंधों के बीच चुनौती पैदा हो सकती है.
मौजूदा हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चीन और जापान के बीच राजनीतिक और रणनीतिक मसलों पर तनाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. एशिया-पेसिफिक देशों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे अपनी क्षेत्रीय स्थिरता और समृद्धि के लिए एक साथ आएं और आपसी विकास में भागीदारी निभायें. एशिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के संबंधों से भविष्य में उसके कैसे परिणाम देखने को मिल सकते हैं, ये देश उन पर नजर रखे हुए हैं.
हाल ही में चीन-जापान के बीच कुछ द्वीपों के मालिकाना हक को लेकर विवाद पैदा हुए हैं. यह महत्वपूर्ण होगा कि वरिष्ठ नेता डेंग जियोपिंग के उस कथन की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि दो देशों के बीच की क्षेत्रीय समस्या को समाधान के लिए भावी पीढ़ी पर छोड़ा जा सकता है. हालांकि, चीन ने अन्य पड़ोसी देशों के साथ कई बार इस तरह का बरताव किया है, जिससे इन देशों की संप्रभुता का भी हनन होता है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संबद्ध देशों की ओर से मंजूरी मिलने में चीन को पक्षकार देश नहीं था.
चीन की दादागीरी
हाल के वर्षो में जापान और भारत दोनों को चीन की दादागीरी का सामना करना पड़ा है. पिछले 50 वर्षो से चीन भारत की काफी जमीन हड़पे हुए है और यह झूठा भरोसा दे रहा है कि सीमा विवाद पर दोनों देशों के प्रतिनिधि मिल-बैठ कर बात करेंगे और समस्या का समाधान हो जायेगा. यह केवल आंखों में धूल झोंकने जैसी बातें हैं.
विगत वर्ष भी जब चीन के प्रधानमंत्री ली भारत आये थे तो भारतीय प्रधानमंत्री ने उनसे लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ की बात कही थी. परंतु ली ने वही पुराना आश्वासन दिया कि दोनों देशों के प्रतिनिधि मिल-बैठ कर सीमा विवाद को तय कर लेंगे. सैकड़ों वर्षो से चीन का यह इतिहास रहा है कि वह पड़ोसी देशों के जिस क्षेत्र को हथिया लेता है, उसे जल्दी खाली नहीं करता. इसलिए चीन चाहे लाख भरोसा दे, इतना तय माना जाना चाहिए कि वह हमारी हड़पी हुई जमीन को आसानी से खाली नहीं करेगा. ‘साउथ चाइना सी’ और ‘इस्ट चाइना सी’ में चीन अब भी अपनी दबंगई कर रहा है. ‘साउथ चाइना सी’ में पड़नेवाले देश वियतनाम, मलयेशिया, फिलिपींस, ताइवान आदि के पास जो द्वीप हैं उन पर इन देशों का आधिपत्य सदा से रहा है. हाल में व्यापक सर्वे के बाद यह पता चला कि इन द्वीपों में तेल और गैस के विशाल भंडार हैं. अब चीन दादागीरी दिखा कर इन सभी देशों से कह रहा है कि ‘साउथ चाइना सी’ में पड़नेवाले सारे द्वीपों पर उसका अधिकार है. जापान ने चीनी युद्धपोतों को उस इलाके से हटाते हुए उसका झंडा भी वहां से उखाड़ कर फेक दिया. इसके बाद चीन ने इन द्वीपों पर अपने लड़ाकू हवाई जहाजों को भेजा. जापान ने इन जहाजों को भी खदेड़ दिया.
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे का कहना है कि हम चीन की दादागीरी को आखिर कितने दिनों तक बरदाश्त कर सकते हैं. इसलिए भारत के लिए रणनीतिक तौर पर बेहतर यही होगा कि वह जापान के साथ मजबूती से खड़ा हो, ताकि चीन उसे आंख नहीं दिखा सके.
भारत के लिए मौका
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे भारत के अच्छे मित्र रहे हैं. पहली बार जब वे प्रधानमंत्री बने थे, तो भारत में संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को संबोधित किया था. उन्होंने कहा था कि यदि जापान और भारत अभिन्न मित्र बन जाएं तो दोनों देशों का आर्थिक विकास तेजी से हो सकता है और सुरक्षा के मामले में कोई भी तीसरा देश उन्हें आंखें नहीं दिखा सकता है. काबिलेगौर है कि भारत और जापान दोनों ही देशों को चीन से खतरा है. इसलिए यह भारत के हित में है कि वह जापान के साथ अपने संबंधों को मजबूत करे. जापान की जनता कर्मठ है और प्राकृतिक आपदाओं से छिन्न-भिन्न होने के बावजूद वे फिर से अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हालत खराब हो गयी थी, लेकिन कुछ ही वर्षो के बाद जापान की गिनती दुनिया के विकसित देशों में होने लगी. सूनामी के चलते जापान के अनेक परमाणु बिजलीघर तबाह हो गये और विकिरण के चलते हजारों लोग मारे गये. मालूम हो कि जापान को बिना परमाणु बिजलीघरों के सस्ती बिजली उपलब्ध नहीं हो सकती है.
इस मुश्किल हालात में भारत के प्रधानमंत्री ने जापान को आश्वासन देते हुए कहा था कि वह राजनीति, सुरक्षा और ऊर्जा के क्षेत्रों में जापान के साथ भारत के संबंध मजबूत करने का प्रयास करेंगे. शिंजो एबे ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ही कहना शुरू कर दिया था कि चीन की टेढ़ी नजरों को देखते हुए सुरक्षा के मामले में जापान को आत्मनिर्भर होना होगा और 1947 के संविधान में परिवर्तन कर जापान की थल, वायु और नौसेना को बहुत मजबूत करना होगा. उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन खराब हो रही है. सुरक्षा के मामले में जापान अब ज्यादा दिनों तक अमेरिका का मुंह नहीं ताक सकता है. शिंजो एबे का यह भी कहना है कि जापान यदि सुरक्षा के मामले में एक मजबूत देश बन गया तो एशिया के वे अन्य देश भी जापान के साथ खड़े हो सकते हैं, जिन्हें चीन डरा-धमका रहा है.
कुल मिला कर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जापान और भारत की मित्रता से एशिया में राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा. दोनों देशों के लिए यह एक अवसर है कि दोस्ती की डोर को मजबूत किया जाये.

