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संविधान में गांव की परिभाषा भी नहीं

आरके नीरदभारत के संविधान में गांव की कोई परिभाषा नहीं है. जब गांव ही नहीं है, तो ग्राम गणराज्य भी नहीं है. यह बड़ा विरोधाभास है. महात्मा गांधी गांव गणराज्य की बात करते थे. वे आजादी का असली अर्थ गांवों की समरसता, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र में जन भागीदारी को मानते थे. देश आजाद हुआ और […]

आरके नीरद
भारत के संविधान में गांव की कोई परिभाषा नहीं है. जब गांव ही नहीं है, तो ग्राम गणराज्य भी नहीं है. यह बड़ा विरोधाभास है. महात्मा गांधी गांव गणराज्य की बात करते थे. वे आजादी का असली अर्थ गांवों की समरसता, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र में जन भागीदारी को मानते थे. देश आजाद हुआ और गणतंत्र भारत के लिए अपना संविधान बना, लेकिन इसमें गांव की परिकल्पना शामिल नहीं हो सकी. सब ने कहा, यह देश गांधी का, लेकिन इसका संविधान गांधी का नहीं. गांधी जी की हत्या के बाद संविधान के नीति निदेशक में पंचायत को जोड़ा गया. इसे कोई अनुच्छेद नहीं दिया गया. सच तो यह है कि गांव गणराज्य को लेकर संविधान निर्माताओं ने कोई ठोस पहल नहीं की. गांवों के गणतंत्र के लिए पंचायतों को सशक्त करना था. इसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारें विफल रहीं हैं. पंचायतों को लेकर संवैधानिक प्रतिबद्धता भी सुनिश्चित नहीं हुई. नतीजा हुआ कि पंचायतों का चुनाव कराना राज्य सरकारों की मरजी पर निर्भर कर गया. दो-दो दशक तक राज्य में पंचायत चुनाव नहीं हुआ. यह गांवों को गणतांत्रिक ताकत देने शासन और संविधान की विफलता रही.

73वें संविधान संशोधन द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया. इसका उद्देश्य पंचायतों को लोकतांत्रिक अधिकार देना और गांवों को हर तरह से सशक्त बनाना था, लेकिन इसमें भी कमी नहीं. यह कमी या तो चूक थी या फिर अधिकार के विकेंद्रीकरण से इनकार था. इस संशोधन ने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने की संवैधानिक व्यवस्था की, लेकिन इसे लागू करने की जिम्मेवारी राज्य सरकारों पर डाल दी गयी. इसमें पंचायतों के लिए 29 विभागों के कार्य और अधिकार की चर्चा गयी, लेकिन यह केवल सूची के रूप में सीमित रह गयी.

राज्य सत्ता को गांव के लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है. उसे पंचायती राज व्यवस्था के तहत चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों की क्षमता और ईमानदारी पर संदेह है. इस ने ग्राम गणतंत्र की अवधारणा को पूरी तरह कमजोर किया है. इसलिए पंचायती राज संस्थानों को अब तक उन सभी 29 विभागों के कार्य और अधिकार नहीं मिले, जिसकी वकालत संविधान संशोधन करता है.

घोटाले का खतरा और लोकतंत्र
राज्य सत्ता में बैठे लोगों और नौकरशाहों को यह संदेह है कि गांव-पंचायत को अधिकार मिलने से सरकारी धन का घोटाला होगा. पंचायतों को अधिकार देने के पक्षधर और गांधी विचारधारा से जुड़े विशेषज्ञ इस आशंका को खारिज करते हैं. उनकी राय है कि राज्य और केंद्र की सरकार और सत्ता में चुन कर जाने वाले प्रतिनिधियों और नौकरशाहों ने अब तक जितने घोटाले किये हैं, पंचायतों में इतना घोटाला नहीं हो सकता. उनका तर्क है, केंद्र के घोटाले का आकार राज्य के घोटाले से कई गुना बड़ा है. इसकी बड़ी वजह यह है कि बड़े स्तर पर होने वाले घोटाले के विरोध में जनता की एकजुटता में ज्यादा समय और ज्यादा ताकत लगती है. इसकी तुलना में पंचायत स्तर पर होने वाले गड़बड़ियां आसानी से उजागर हो जाती हैं. गांवों में प्रतिरोध की ताकत ज्यादा है. इसी ताकत ने देश की आजादी के लक्ष्य को पूरा किया. गांधी जी इसकी ताकत को समझते थे, लेकिन उसके बाद के नेताओं ने इसे समझने में चूक की.

क्या है गांव और शहर के वर्गीकरण का मापदंड
जनगणना आकार एवं जनसंख्या के घनत्व के आधार पर तीन तरह के क्षेत्रों का निर्धारण किया जाता है. इसमें नगर और गांव के अलावा कसबा भी शामिल है.

नगर : वह आवास, जिसकी आबादी 1,00,000 या उससे अधिक हो, नगर कहा जाता है. इसके अलावा वहां की 75 प्रतिशत जनसंख्या गैर कृषि कार्य में लगी हो तथा जनसंख्या का घनत्व कम-से-कम 400 व्यक्ति प्रति किलोमीटर हो.

कसबा : ऐसे आवास क्षेत्र, जहां की आबादी 5,000 या उससे अधिक हो, कसबा माना जाता है.

गांव : आबादी वाला ऐसा क्षेत्र, जहां की जनसंख्या 5000 से कम हो, गांव कहा जाता है. इसमें चिरागी और बेचिरागी दोनों तरह के गांव आते हैं. साथ ही 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी परंपरागत पेशे, खेती और इस तरह के अन्य व्यवसाय सु जुड़ी है.

ये आधार भी हैं शामिल
इसके अलावा आकार, घनत्व, व्यावसायिक संरचना और प्रशासनिक व्यवस्था को भी आधार बनाया जाता है, जो सेकेंड्री होता है. नगर और गांव की प्रशासनिक व्यवस्था अलग होती है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत नगर की प्रशासनिक जवाबदेही नगरपालिका या नगर पर्षद की तथा गांवों की प्रशासनिक जिम्मेवारी ग्राम पंचायत की होती है.

गांव या ग्राम छोटी-छोटी मानव बस्तियों को कहते हैं, जिनकी जनसंख्या कुछ सौ से पांच हजार के बीच होती है तथा जहां की बड़ी आबादी खेती और अन्य परंपरागत पेशे से जुड़ी होती है.

जनगणना निदेशालय
जनगणना में पूरे देश को दो समूहों में रखा जाता है. नगर और ग्रामीण क्षेत्र. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरकार की अलग-अलग योजनाएं हैं. दोनों क्षेत्र की जनसंख्या के लिए सरकार की सेवा और जमीन के टैक्स की दर भी अलग-अलग है. दोनों की प्रशासनिक व्यवस्था भी अलग-अलग है. भारतीय दंड संहिता में कुछ ऐसे अपराध हैं, गांव और शहर के आधार पर अलग-अलग दृष्टि से देखा गया है, लेकिन जनसंख्या में इस वर्गीकरण का कोई प्रशासनिक या कानूनी पक्ष नहीं होता है. यह सामाजिक मानकों को संस्कृति के संदर्भ में समझने और विकास सूचकांक की तुलनात्मक स्थिति को दर्शाने में मददगार होता है.

राजस्व विभाग
राजस्व विभाग की सूची में दो तरह के गांव हैं. एक चिरागी और दूसरा बेचिरागी. चिरागी को आबाद और बेचिरागी को अनाबाद भी कहते हैं. चिरागी का मतलब है, जिस गांव में चिराग जलता हो यानी जहां आबादी हो. बेचिरागी का मतलब है, ऐसा गांव, जहां चिराग नहीं जलता है, यानी जो आबाद नहीं है.

ग्राम गणराज्य में ही प्रभावी होंगी योजनाएं
ग्राम गणराज्य के सपने को पूरा करने का एक बड़ा जरिया पंचायतों का सशक्तीकरण हो सकता है. पंचायती राज व्यवस्था को कानूनी ताकत देने की जरूरत है. अगर सूचना का अधिकार की बात करें, तो इसे लागू करना सभी राज्यों की कानूनी जवाबदेही है. यही बात शिक्षा के अधिकार कानून या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम के साथ भी है. इन्हें लागू करने से सरकारें भाग नहीं सकतीं. अगर पंचायतों को 29 विभागों के अधिकार और सौंपने का कोई कानून बने, तो पंचायती राज संस्थानों को सशक्त करने में मदद मिल सकती है. अभी ऐसा नहीं है. संघीय सूची का विषय होने के कारण राज्य सरकारों की मरजी इसमें ज्यादा अहम है. राज्य सरकार, राजनीतिक दल और नौकरशाह ग्राम गणराज्य के पक्ष में एक सीमा से ज्यादा नहीं जा सकते. नौकरशाह अधिकार छोड़ना नहीं चाहते, जबकि सरकार और राजनीतिक दल ग्रामीण क्षेत्र के मतदाताओं को अपने

प्रभाव और पक्ष में रखने के लिए वहां
कोई गणतांत्रिक एकजुटता के पक्ष में नहींजा सकते. इसलिए 73वें संविधान संशोधन के आधार पर भले झारखंड में एक बार और बिहार में तीन बार पंचायती राज संस्थानों का चुनाव हुआ हो, उन्हें पूर्ण अधिकार नहीं मिला. अभी हाल में लघु खनिजों को लेकर जिस तरह से बिहार और झारखंड में हो-हंगामा और कोर्ट-कचहरी की कार्रवाई हुई, उससे साफ है कि गांवों की गणतांत्रिक शक्ति के रूप में पंचायती राज संस्थानों को उभरने देने के पक्ष में राज्य सरकारें नहीं है.

अधिकार के विकेंद्रीकरण से
सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, काम का बोझ दोनों पर बहुत अधिक है. भारत एक कल्याणकारी राष्ट्र है, इस अवधारणा को पूरा करने के लिए ग्राम विकास को गति देना पहली जरूरत है. इस जरूरत को पूरा करने के लिए सरकारों ने भारी-भरकंप तंत्र खड़ा कर रखा है. इसमें उत्तरदायित्व का विंदु गुम हो गया है. गांधीवादी विचार डॉक्टर रामजी सिंह बड़े स्पष्ट स्प से कहते हैं कि इसने भ्रष्टाचार को जन्म दिया, उसे बढ़ाया और उसकी जड़ों को मजबूत किया. अब तो यह भी पता नहीं चलता कि सरकारी तंत्र और योजनाओं का असली जिम्मेवार व्यक्ति कौन है, मंत्री, अफसर या कर्मचारी?

दूसरी ओर सरकार सरकारी तंत्र विकास और कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी रूप में लागू करने में तेजी से विफल हो रही है. इसलिए पीपी मॉडल को सरकारी व्यवस्था में शामिल किया गया है. इसमें सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने में निजी कंपनियों को उतना ही भागीदार बनाया जा रहा है, जितनी सरकारी तंत्र की संवैधानिक रूप से भागीदारी तय है. तीसरी ओर सरकार अब कर्मचारी से ले कर अधिकारी वर्ग के पदों पर अनुबंध पर युवाओं को बहाल कर रही है. इन कर्मियों को लेकर सरकार कोई दायित्व लेने को तैयार नहीं है. अब तक प्रयोग में यह साफ हुई है कि यह प्रयोग बहुत सफल नहीं रहा है. इसमें कार्य की गुणवत्ता और कर्मियों के काम की काम के प्रति संवेदनशीलता की दर कम है. ऐसे कर्मियों में काम को लेकर संतोष नहीं है.

ग्राम पंचायत से खुल सकता है रास्ता
इस स्थिति में ग्राम गणराज्य बड़ा रास्ता दे सकता है. स्कूल, अस्पताल, पेयजल, सिंचाई, कृषि, कुटीर उद्योग जैसे विषयों को सीधे तौर पर ग्राम पंचायतों को अगर सौंपा जाता है, तो सरकार का बोझ कम होगा और नतीजे भी अच्छे आयेंगे. गांवों में प्रतिरोध की ताकत ग्राम पंचायतों की कार्यशैली की सही निगरानी कर सकेगी. डा रामजी सिंह तो यहां तक कहते हैं कि अगर प्रधानमंत्री की कुरसी से इंदिरा गांधी को हटाने के लिए जयप्रकाश नारायण या दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से शीला दीक्षित को हटाने के लिए अरविंद केजरीवाल सफल आंदोलन (परिणाम की दृष्टि से) कर सकते हैं, तो पंचायत सरकार के खिलाफ भी वहां की जनता धारदार आंदोलन कर सकती है. इस आंदोलन के शुरू होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, क्योंकि सत्ता की छोटी इकाई होने के कारण वह जनता के ज्यादा करीब होती है. वे यह भी कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा से बड़ी ग्रामसभा है. उसे एक-दो बार प्रयोग का अवसर मिलना चाहिए. इससे शुरू में भले थोड़ी परेशानी पैदा होगी. वित्तीय गड़बड़ी भी होगी, लेकिन उनके संभलने, आगे बढ़ने और मजबूत होने की संभावना ज्यादा है.

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