आजादी के 67 साल बाद भी जब गांव की चर्चा होती है, तो उसकी उपेक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी की ही बात होती है. ग्रामसभा के अस्तित्व पर भी सवाल उठते हैं. ग्राम गणराज्य के नारे बार-बार उछलते हैं, लेकिन अबतक भी हमारे गांव गणराज्य नहीं बन सके हैं. गांधीजी के सपनों की ग्रामसभा के अधिकारों का बार-बार हमारी सरकारों ने हनन किया है या इसकी कोशिश की है. ग्राम गणराज्य व ग्रामसभा के सशक्तीकरण के सवाल पर पंचायतनामा के लिए इस बार विधानसभा अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता से मिथिलेश कुमार सिन्हा व प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता बीडी शर्मा की संस्था भारत जन आंदोलन की झारखंड इकाई के संयोजक जोनस लकड़ा से राहुल सिंह ने बात की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
मौजूदा व्यवस्था में गांव के मुद्दों व जरूरतों को हमारी सरकार कहां तक पूरी कर पाती है. चाहे वे सरकार किसी भी पार्टी की क्यों नहीं हो?
गांव का विकास हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. जब तक गांवों का विकास नहीं होगा, तब तक राज्य आर्थिक रूप से उन्नत नहीं हो सकता है और न ही बेरोजगारी की समस्या का हल हो सकता है. इसलिए कोई भी सरकार हो इस दिशा में उसे कदम उठाना ही होगा, तभी हमलोग राज्य के गांवों की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं और शहरों पर दबाव कम कर सकते हैं.
झारखंड एक प्रमुख खनिज उत्पादक राज्य है. क्या आपको नहीं लगता कि इसकी यह खासियत ही इसके लिए अभिशाप बन गयी है, औद्योगिक परियोजनाओं के कारण अब तक सैकड़ों गांवों का अस्तित्व खत्म हो गया. क्या उसकी जगह पर उसी तरह के गांव बसाये गये?
इस बात से 100 फीसदी सहमत हूं कि आज हमारा खनिज भंडार ही हमारे लिए अभिशाप बन गया है. सारा लाभ केंद्र सरकार व निजी क्षेत्र की बाहरी कंपनिया ले रही हैं और विस्थापन, पलायन, आर्थिक शोषण झारखंड के लोग भुगत रहे हैं. सैकड़ों नहीं हजारों गांव विस्थापित हुए. वहां के आधे से ज्यादा ग्रामीण लापता हो गये. रोजगार की खोज मे कहीं से कहीं भटक कर चले गये. केवल गड्ढे, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण ही हमारे हिस्से में रह गये. बड़ी-बड़ी सिंचाई योजना से जितने लोग विस्थापित हुए, उन्हें उस अनुपात में लाभ नहीं मिला.
जब तेज औद्योगिकीकरण हो रहा है, भूमंडलीकरण के कारण छोटे उद्योग, गांव के हस्तशिल्प व उनकी पहचान खत्म हो रही है. तो, ऐसे में गांव का अस्तित्व कैसे बचेगा?
ये बात सही हैं कि ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में छोटेउद्योगोंको बचाना चुनौती बन गयी है. आज कुम्हार के दीया की जगह चीन में बने बिजली की दीप दीवाली पर जलते हैं. देवी-देवताओं की मूर्तियां चीन से बन कर आ रही हैं. सरकार को इस दिशा में सजग होना पड़ेगा और पंचायत स्तर पर शिल्पकारों को संरक्षण व प्रशिक्षण देना होगा व उन्हें अनुदानित दर पर कच्च माल मुहैया कराना होगा. मेरे विधानसभा क्षेत्र(सारठ) के अम्बा एवं पहरूडीह गांव में हस्तकरघा उद्योग लगाया गया है. इसके परिणाम बेहतर आने लगे हैं. किसानों को बागवानी मिशन की ओर आकर्षित करना होगा, ताकि फलों की खेती से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके. आंध्रप्रदेश के तर्ज पर मत्स्य उद्योग के लिए भी यहां आधारभूत संरचना तैयार करनी होगी. इन उपायों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी सुदृढ़ होगी और हम ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव को नकार सकते हैं. भूमंडलीकरण आज एक सच्चाई है. अब इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. इस व्यवस्था के भीतर ही हमें खुद को मजबूत करना होगा.
गांव पहले उत्पादक हुआ करता था, आज भी उत्पादक है, लेकिन अनाज सब्जियों का. उसकी निर्भरता बड़ी कंपनियों के उत्पादों पर बढ़ रही है. क्या इसे रोकने की पहल नहीं होनी चाहिए. गांवों के आर्थिक स्वावलंबन को बढ़ाने के लिए क्या उपाय हो?
अब जो भी लोग खेती पर निर्भर हैं, उन्हें खेती को उद्योग जैसा मानना होगा. खेती केवल अन्न उपजाने के लिए ही नहीं बल्कि व्यवसाय के लिए करनी होगी. अब फल, सब्जियों के संरक्षण के लिए गोदाम व शीतगृह की व्यवस्था करनी होगी. ताकि उसका भंडारण एवं अनुरक्षण की क्षमता बढ़े. ताकि समय पर उसका विपणन कर किसान अधिक से अधिक लाभ कमायें. महाराष्ट्र का किसान सिंडिकेट प्याज पर कंट्रोल कर पूरे देश को प्रभावित कर देता है. पश्चिम बंगाल के किसान झारखंड की रसोई को आलू विहीन कर देते हैं, क्योंकि उनके पास भंडारण की क्षमता है. झारखंड के किसान अपने उत्पादन को आरंभ में ही औने-पौने में बेच कर आर्थिक नुकसान को स्वीकार कर लेते हैं. हम भी किसानों के लिए ऐसे उपाय कर उन्हें आगे ला सकते हैं. छोटानागपुर की सब्जी, जैसे : गोभी, बिंस जो वर्षा के दिनों में भी होती है, संताल परगना की इमली आदि की दक्षिण के राज्यों में काफी मांग है. सही विपणन के अभाव में हमारी अर्थव्यवस्था सुधर नहीं पा रही है. झारखंड के मत्स्य उद्योग 13 साल में तीन गुणा हो चुका है. अगर रफ्तार बढ़ती रही तो झारखंड पूरे देश को मछली खिला सकता है.
संसद हो या विधानसभा वहां गांव के मुद्दे पर कितनी बात हो पाती है. क्या ऐसा नहीं लगता है कि ग्रामीण मुद्दों पर हमारी विधायिका को और अधिक संवेदनशील व गंभीर होना चाहिए. अपने क्षेत्र से निर्वाचित होकर आने वाले बहुत सारे सांसद-विधायक पूरे कार्यकाल में क्षेत्र की कोई समस्या नहीं उठाते. ऐसा क्यों?
यह सवाल पूरी तरह गलत है. विधानसभा सदस्य एवं विधानसभा अध्यक्ष होने के नाते देखता हूं कि झारखंड के विधायक अपने-अपने क्षेत्रों की समस्याओं को बहुत ही गंभीरता से उठाते हैं. भले ही उनकी बातें(मांगें) सरकार संसाधन के अभाव में समय पर पूरा नहीं कर पाती हैं. लेकिन जनप्रतिनिधि इस मामले में अन्य मामले से ज्यादा संवेदनशील हैं. कुछ अपवाद हो सकते हैं. हां, लोकसभा या राज्यसभा के बारे में हमें पता नहीं है.
गांव की जमीन का जिस तरह अधिग्रहण हो रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं. जबकि इसके लिए ग्रामसभा की अनुमति ली जानी चाहिए. झारखंड में तो यह और भी जरूरी इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां पेसा कानून लागू है?
भूमि अधिग्रहण का नया कानून बना है. उसमें स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि कृषि भूमि यथासंभव अधिगृहीत नहीं की जाये. भूमि अधिग्रहण में ग्रामसभा की सहमति अत्यावश्यक है एवं किसानों से बातचीत के बाद ही कोई भूमि अधिग्रहीत करने की कार्रवाई की जाये, लेकिन यह भी सच है कि विकास के लिए जमीन चाहिए. अभी हमें मीलों दूर जाना है. हमें डॉक्टर चाहिए, इंजीनियर चाहिए, रोजगार के लिए छोटे-छोटे कारखाने, विकास के लिए बिजली चाहिए और इन सब के लिए जमीन की जरूरत होती है. जनता के कष्ट को यथासंभव कम से कम करते हुए जमीन अधिग्रहण करना ही होगा, ताकि विकास की आधारभूत संरचना पड़े.
लघु खनिज, लघु वनोपज व हाट बाजार का हक ग्रामसभा या ग्राम पंचायत को देकर क्यों नहीं उसे स्वावलंबी बनाया जाये. क्या आप इसके समर्थन में हैं और एक संवैधानिक पद पर होने के नाते आपका क्या मत है?
लघु वनोपज पर ग्रामसभा का अधिकार होना चाहिए. सरकार इस वास्तविकता को स्वीकार कर रही है. इस पर जल्द ही कानून बनेगा. मैं जिस संवैधानिक पद पर हूं, वहां से मेरा पूरा सपोर्ट व समर्थन इसके प्रति रहेगा. ये चीजें ग्रामसभा के अधिकार क्षेत्र में होनी ही चाहिए.
आम आदमी पार्टी जिस तरह मुहल्ला सभा व ग्रामसभा की बात कर रही है, क्या इससे लगता है कि आने वाले महीने या सालों में झारखंड व देश के दूसरे हिस्सों में अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी ग्रामसभा-मुहल्ला सभा की पैरोकारी करना व उन्हें अधिकार देना मजबूरी हो जायेगी?
अभी आम आदमी पार्टी अपने शैशव काल में है. मैं दिल्ली में उनकी सफलता के लिए बधाई देता हूं, लेकिन पूरे देश में स्थायी आधार बनाने के लिए लंबी दूरी तय करनी होगी. मैंने 1977 में जनता पार्टी का उफान देखा है. जितनी तेजी से उफान आया उतनी तेजी से शांत भी हुआ.
शशांक शेखर भोक्ता
अध्यक्ष, झारखंड विधानसभा