सुभाष चंद्र बोस के बारे में जितना जाना जाये, जितना पढ़ा जाये वो कम लगता है. बचपन से ही प्रतिभा के धनी सुभाष ‘सिंपल लिविंग एंड हाइ थिंकिंग’ विचारधारा को मानते थे. गरीबों और मित्रों के मदद को वे सदा तत्पर रहते. पिता की इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने ‘आइसीएस’ का एग्जाम भी पास किया. 23 जनवरी, 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में जन्में नेताजी के जन्म दिवस पर प्रस्तुत है यह आलेख. इसमें हमने कोशिश की उनके जीवन के रोचक पहलुओं को उभारने की.
सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद के परम भक्त थे. समाज सेवा और देशभक्ति में युवाओं के योगदान पर उन्हें भी बहुत भरोसा था. वे जब भी असमंजस की स्थिति में आते विवेकानंद के आदर्शो और विचारधारा को फॉलो करते थे. स्वामी जी को ही वे अपना मार्गदर्शक भी मानते थे.
स्कूल ड्रेस पहनने की खुशी
सुभाष पांच साल के थे जब उन्हें बताया गया कि अब वो भी अपने बड़े भाई-बहनों के साथ स्कूल जायेंगे. 14 भाई-बहन में उनका नंबर 9वां था. सबसे ज्यादा खुश वे इसलिए थे कि उनके लिए भी नये स्कूल ड्रेस बनेंगे और वे स्कूल जायेंगे. उन्हें बचपन से ही पढ़ाई में काफी मन लगता था. चौथी क्लास में वे मिशनरी स्कूल को छोड़ रावेंशॉ कॉलेजिएट स्कूल चले गये. तब उन्हें उनकी मातृ-भाषा बंगाली बिल्कुल नहीं आती थी और उन्हें जब पहली बार बंगाली भाषा में लेख लिखने मिला तो उनकी गलतियों को उनके शिक्षक ने पूरी कक्षा में सुनाया. उन्होंने इस बेइज्जती का बदला फाइनल एग्जाम में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर लिया. मैट्रीकुलेशन के एग्जाम में कलकत्ता में टॉप अंक अजिर्त किये. स्नातक की परीक्षा उन्होंने फिलॉस्फी विषय में प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता से पास किया. मां-बाप का सपना पूरा करने के लिए आइसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेज) का एग्जाम पास कर 1919 में लंदन गये. सुभाष ने आइसीएस के एग्जाम में अंगरेजी में सबसे ज्यादा नंबर अजिर्त किये और ऑलओवर चौथा स्थान प्राप्त किया. यह उस समय के लिए बड़ी बात थी, क्योंकि भारतीयों के लिए आइसीएस एग्जाम में भाग लेना भी आम नहीं था.
देश के लिए छोड़ी नौकरी
वैसे तो नेताजी की देशभक्ति के बारे में सभी जानते हैं, पर उनमें यह भावना युवाकाल से ही थी. आइसीएस की परीक्षा में पास होने के बाद वे दो वर्ष की ट्रेनिंग ले रहे थे. एक दिन उनके टेस्ट पेपर में अंगरेजी से बंगला में अनुवाद करने को मिला उसमें एक वाक्य का मतलब था-‘‘भारतीय जनता आम तौर पर बेईमान होती है’’ जैसे ही सुभाष ने वाक्य पढ़ा. वे गुस्सा होते हुए अनुवाद छोड़ इस वाक्य का विरोध करने लगे. ट्रेनिंग की देख-रेख करनेवाले अंगरेज अफसर से उन्होंने कहा ‘‘यह तो झूठा कलंक लगाना है. हम भारतीय होकर ऐसा अपमान सहन नहीं कर सकते.’’ अफसर उनकी देशभक्ति देखते हुए खुश हुआ और बोला- ‘‘जो भी हो परीक्षा में पास करने के लिए आपको इस वाक्य का अनुवाद तो करना ही होगा.’’ इस पर नेताजी ने जवाब दिया- ‘‘अगर ऐसी बात है तो नहीं चाहिए मुङो ऐसी नौकरी. अपने देश के मुंह पर कालिख पोत कर नौकरी करने से अच्छा मैं भूखा मरना पसंद करूंगा’’ और वे परीक्षा को बीच में ही छोड़ कर चले गये.
समाज सेवा से जुड़े
देश में बढ़ रहे अंगरेजों के अत्याचार और गरीबी में भूखों मरते भारतीयों की खबरों ने उनके नाजुक दिल को बहुत ठेस पहुंचाती इसीलिए वे लंदन से वापस आ गये. वापस आने के बाद वे काफी चिंतित रहने लगे थे. आखिरकार, उन्होंने समाज सेवा शुरू की. उस समय ओडिशा और बंगाल सहित अन्य राज्यों में ‘चेचक और हैजा’ का प्रकोप फैला हुआ था. लोग इसे छूआ-छूत की बीमारी मानते थे इसलिए जिस गांव या मोहल्ले में किसी व्यक्ति को यह रोग होता लोग उसे परिवार या गांव से अलग कर देते. उस समय डॉक्टरी सुविधाएं आम लोगों के पहुंच से दूर था. जानकारी के अभाव में वे साफ -सफाई पर भी ध्यान नहीं देते थे. ऐसे में सुभाष ने वैसे लोगों की मदद करनी शुरू की. उन्होंने अपने कुछ दोस्तों को भी इस कार्य से जोड़ा. उन्होंने लोगों की सेवा के साथ उन्हें इन बीमारियों से बचाव के लिए जागरुक करना भी शुरू किया.
सुभाष की चतुराई
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान (सितंबर, 1939) नेताजी ने मास लेवल पर भारतीयों के हक के लिए लड़ने की ठानी. पूरे भारत से मिले सपोर्ट को देख अंगरेज घबरा गये और उन्हें जेल में बंद कर दिया.
सुभाष दो सप्ताह तक भूखे रहे. उनकी तबीयत खराब होने लगी. हार मानकर उन्हें उनके घर में ही नजरबंद कर दिया. जनवरी, 1941 में सुभाष वेष बदल कर घर से भाग निकले और बिहार होते हुए जर्मनी पहुंचे और हिटलर से मिले. हिटलर उनकी बहादुरी से प्रभावित हुआ और भारत की आजादी के लड़ाई में मदद करने का आश्वासन भी दिया. वहां से लौट कर उन्होंने ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का गठन किया, जो आज भी भारतीय सेना के रूप में देश की सेवा कर रही है. नेताजी देश-विदेश में अपने भाषणों के लिए जाने जाते थे. उनका सबसे प्रचलित नारा है-‘‘तुम मुङो खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा.’’ सुभाष का यह नारा आजादी की लड़ाई में भाग लेनेवाले युवाओं में जोश भरने के लिए काफी था.
दोस्तों के लिए कुछ भी करने को रहते थे तैयार
एक बार उनका एक दोस्त चेचक से ग्रसित हो गया. वह बंगाल के किसी छोटे जाति से आता था. उसके हॉस्टल के साथी उसे अकेला छोड़ गये. नेताजी को इस बात का पता चला तो वे फौरन उसके पास गये और उसका इलाज शुरू करवाया.
वे प्रतिदिन उसे देखने जाते. उनके पिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने नेताजी को कहा ध्यान रखना ये बीमारी तुम्हे भी लग सकती है, तो नेताजी ने बड़े प्रेम से जवाब दिया- ‘‘पिताजी, छूत के इस रोग के बारे में आपकी बात तो सही है, पर मैं अपने निर्धन और बेसहारा मित्र की मदद नहीं करूंगा तो और कौन करेगा? वह स्वस्थ कैसे होगा? आखिर, संकट में ही तो मित्र की पहचान होती है.’’ इस पर उनके पिता सुभाष से काफी प्रसन्न और प्रभावित हुए. उन्होंने कहा ‘‘मुङो गर्व है कि तुम मेरे पुत्र हो.’’