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अमरीका की एरिन जैकिस ने मुंबई की झुग्गीबस्तियों के बच्चों में सेहत के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से गले हुए साबुन के टुकड़े से साबुन बनाना शुरू किया है.
2014 में फ़िल्म ‘स्लमडॉग मिलियेनियर’ देखने के बाद भारत घूमने आईं 25 साल की एरिन जैकिस ने जब मुंबई की झुग्गीबस्तियों को क़रीब से देखा, तो उन्होंने पाया कि यहां रहने वाले लोग स्वच्छ्ता के प्रति उदासीन हैं.
इसका असर बच्चों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा था.
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एरिन कहती हैं कि जब मैंने वहां के लोगों से कहा कि सफ़ाई रखने से कई बीमारियों से बचा जा सकता है तब बच्चों ने कहा कि हमारे माता-पिता के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं, तो साबुन कैसे ख़रीदें?
वह बताती हैं, ”बच्चों की ये बातें सुनकर बहुत बुरा लगा और तब मैंने ऐसे साबुन के टुकड़ों को बटोरकर साबुन बनाने का फ़ैसला लिया और इस तरह से ‘सुंदरा साबुन’ की नींव पड़ी.”
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एरिन की ग़ैरमौजूदगी में ‘सुंदरा साबुन’ कंपनी की देखरेख करने वाली कैनिथ डिसूजा ने बताया कि यह साल 2015 में शुरू हुआ था.
इस बारे में वह बताती हैं कि सबसे पहले एरिन ने मुंबई के पांच सितारा होटलों से साबुन के टुकड़े बटोरने शुरू किए.
हालांकि पहले उन्हें टुकड़े देने से मना कर दिया गया पर काफ़ी समझाने के बाद वो साबुन के टुकड़े फेंकने के बजाय उन्हें देने को राज़ी हुए.
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कैनिथ बताती हैं कि अब ताज होटल, ट्राइडेंट होटल से लेकर 17 ऐसे बड़े-बड़े होटल हैं जो उनसे जुड़ चुके हैं और उन्हें मुफ़्त में साबुन के टुकड़े उपलब्ध करवाते हैं.
कैनिथ के मुताबिक़ इन्हें वो रिसायकिल करती हैं.
रिसाइकलिंग के तरीक़े के बारे में वह कहती हैं, ”सबसे पहले साबुन के टुकड़े अलग-अलग करते हैं और फिर उसमें केमिकल्स मिलाते हैं.”
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साबुन पहले से इस्तेमाल किया होता है, इसलिए सफ़ाई का पूरा ध्यान रखा जाता है. इसके लिए आलू छीलने वाले पीलर से साबुन के कुछ हिस्से छीलकर निकाल दिए जाते हैं.
उसके बाद इसे रसायनों के घोल से दोबारा साफ़ किया जाता है. फिर मैन्युअल ऑपरेट होने वाली सोप रिसाइक्लिंग मशीन से पुराने साबुन से नया साबुन बनाया जाता है.
कैनिथ कहती हैं कि सात मिनट में साबुन का एक बैच तैयार होता है.
उन्होंने मुंबई के अलावा, ठाणे ज़िले के कलवा झुग्गियों से लेकर, पालघर के पिछड़े इलाक़े के बच्चों के बीच और महाराष्ट्र के शिलंदा ज़िले में भी यह मुहिम चलाई है.
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यहां काम कर रही माधुरी कहती हैं, "मैं एक साल से यहां काम कर रही हूँ. हम अपने बनाए साबुन के साथ इन पिछड़े इलाक़ों में जाते हैं तो बहुत ख़ुशी होती हैं.”
वहां के लोगों की प्रतिक्रिया बताते हुए माधुरी कहती हैं कि वहां के बच्चे हमें देखते ही खुश हो जाते हैं और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहते हैं साबुन वाली आंटी आ गई हैं.
बच्चे साबुन के लिए कतार लगाकर खड़े हो जाते हैं और साबुन मिलते ही उसे घंटों सूंघते हैं, फिर रगड़-रगड़कर हाथ मुँह धोने लगते हैं.
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यहां काम कर रही एक और महिला कंचन कहती हैं कि हम सिर्फ़ मुफ़्त में साबुन ही नहीं बांटते, बल्कि उन्हें हाथ-मुँह धोने जैसी अच्छी आदतें भी सिखाते हैं.
वो आगे कहती हैं, ”सुंदरा साबुन’ से कई महिलाओं को रोज़गार भी मिला है.”
कैनिथ ने बताया कि अब तक 20 हज़ार से ज़्यादा साबुन की टिकिया बनाई जा चुकी हैं और इनमें से 15 हज़ार बांटी जा चुकी हैं.
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1500 किलो बेकार साबुन बचाकर, यहां औसतन तीन दिन 30-40 किलो साबुन बनाया जाता है. इसके अलावा 371 क्लासरूम में हेल्थ-हायजीन की अच्छी आदतें भी सिखाई गई हैं.
कैनिथ कहती हैं कि शुरू में लोगों को लगता था कि इस्तेमाल हुए साबुन से वो बीमार हो सकते हैं. फिर उन्हें बताया गया कि इन साबुनों को कहां से और कैसे जमा करके दोबारा इस्तेमाल लायक बनाते हैं.
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उनके मुताबिक, ”हमारे साबुन लेबोरेटरी टेस्ट से भी ग़ुज़र चुके हैं. कुछ महीने पहले हमे ‘गो ग्रीन’ का भी अवार्ड भी मिला है.”
वैसे एरिन जैकिस की यह पहल अब सिर्फ़ भारत तक ही सीमित नहीं बल्कि अब अमरीका, इंडोनेशिया, थाईलैंड, मलेशिया और युगांडा जैसे देशो में भी शुरू हो चुकी है.
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