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मोदी सरकार के एक साल पर,पढ़िये योगेन्द्र यादव की टिप्पणी

।।योगेंद्र यादव।। सरकार कृषि-संकट से औने-पौने भाव निपटी, यह उसकी बड़ी विफलता है. हरित-क्रांति की लता अब सूख चुकी है, उसमें अब हरे पत्ते नहीं आनेवाले. खेती घाटे का सौदा है और एक फसल भी मारी जाये, तो किसान गरीबी, कर्ज और आत्महत्या के दुष्चक्र में फंस जाता है. सरकारी नीतियों के कारण इस वर्ष […]

।।योगेंद्र यादव।।

सरकार कृषि-संकट से औने-पौने भाव निपटी, यह उसकी बड़ी विफलता है. हरित-क्रांति की लता अब सूख चुकी है, उसमें अब हरे पत्ते नहीं आनेवाले. खेती घाटे का सौदा है और एक फसल भी मारी जाये, तो किसान गरीबी, कर्ज और आत्महत्या के दुष्चक्र में फंस जाता है.

सरकारी नीतियों के कारण इस वर्ष यूरिया की कमी हुई, फसलों के दाम गिरे, सम्मानजनक समर्थन-मूल्य देने में सरकार नाकाम रही और जगह-जगह ओलावृष्टि से फसलों को नुकसान पहुंचा.

इस संकट से निबटने की जगह सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल का ढोल पीटा, उसे पिछले दरवाजे से लागू करने के लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाया. सरकार के इस कदम से संघ परिवार तक सहमत नहीं था और ठीक ही इस सरकार को ‘किसान-विरोधी’ होने का तमगा मिला.

शिक्षा के मोरचे पर खतरा इस बात का नहीं कि सरकार भगवाकरण की राह पर है. इस मोरचे पर असल समस्या तो यह है कि सरकार को चुनौतियों का पता ही नहीं है. इस मोरचे पर सरकार को सीखने में भी रुचि नहीं.

सरकार ने उच्च शिक्षा को ठोक-पीट कर सपाट बनाने की कोशिशें की हैं, तो स्कूली शिक्षा के मामले में उसे अपनी दिशा का ही पता नहीं. सरकारी शिक्षा-प्रणाली ढह रही है और अभिभावक प्राइवेट संस्थानों का रुख कर रहे हैं. इसी तरह सांप्रदायिकता के मोरचे पर समस्या यह नहीं कि देश भर में हिंसा में तेजी आयी है. असल समस्या हिंसा नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय पर गुपचुप दबाव बनाना है.

असल समस्या यह नहीं कि अल्पसंख्यकों को चोट पहुंचाने के लिए कोई कानून बनेगा, असल समस्या है कि प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहेंगे और उनके संगी-साथी गैर-जिम्मेवार बयान देकर भी साफ-सुथरे बने रहेंगे. कम से कम ईसाई और मुसलिम समुदाय की तरफ से सोचने पर हालत ऐसी ही जान पड़ती है और इस सरकार ने इन समुदायों की चिंता को दूर करने के लिए खास कुछ भी नहीं किया. इन नीतिगत दोषों और असफलताओं को अगले चार सालों में सुधारा जा सकता है, लेकिन तब भी इससे सरकार की जन्मकुंडली नहीं बदलनेवाली. इस सरकार में फैसला लेने की प्रक्रि या घातक दोष की शिकार है.

यह एनडीए या भाजपा की सरकार नहीं, बल्कि मोदी सरकार है. सत्ता के केंद्रीयकरण की लहर हर मामलों में दिखाई दे रही है. राज्यसत्ता से स्वायत्त हर ठिकाने को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है. मीडिया पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव है, नागरिक संगठनों को चुप कराया जा रहा है. और हद तो यह है कि अदालत तथा सीएजी को भी उंगली दिखायी जा रही है.

कार्यपालिका राज्यसभा की अवहेलना करती है और प्रधानमंत्री कार्यालय हर छोटी-बड़ी चीज को अपनी उंगली के इशारे पर नचाना चाह रहा है. दिक्कत यही नहीं कि यह मनमौजी सरकार है. समस्या यह है कि इस सरकार ने अपनी कार्यपालिका को प्रधानमंत्री कार्यालय की हदों में घेर दिया है.

देश के लिए खतरा यह नहीं कि मोदी सरकार अपने वादे पूरा कर पायेगी या नहीं. देश के लिए खतरा यह है कि फिलहाल कोई कारगर विकल्प नहीं दिख रहा. बिना भरोसेमंद विकल्प के वर्तमान व्यवस्था से मोहभंग नैराश्य की ओर ले जा सकता है!

(समाप्त)

(लेखक संवाद अभियान के संस्थापक सदस्य हैं)

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