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समाज में नयी ऊर्जा फूंकता सोशल मीडिया

।। पीयूष पांडे ।। साइबर मीडिया एक्सपर्ट इस साल 15 अगस्त को इंटरनेट को भारत में आये 19 साल हो जायेंगे. इन सालों में इंटरनेट ने समाज को न केवल जागरूक किया, बल्कि इंटरनेट के तमाम एप्लीकेशंस ने ऐसी भूमिका अदा की, जो समाज के सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ते हैं. अन्ना आंदोलन से लेकर […]

।। पीयूष पांडे ।।

साइबर मीडिया एक्सपर्ट

इस साल 15 अगस्त को इंटरनेट को भारत में आये 19 साल हो जायेंगे. इन सालों में इंटरनेट ने समाज को न केवल जागरूक किया, बल्कि इंटरनेट के तमाम एप्लीकेशंस ने ऐसी भूमिका अदा की, जो समाज के सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ते हैं.

अन्ना आंदोलन से लेकर निर्भया कांड के वक्त तक लोगों ने सोशल मीडिया की भूमिका देखी कि कैसे फेसबुक-ट्विटर के घोड़े पर सवार होकर कोई जन आंदोलन परवान चढ़ा. हालांकि, जमीन पर भी यह आंदोलन मजबूत था, लेकिन सोशल मीडिया ने इसे धार दिया.

उत्तर प्रदेश के मेरठ में पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में कार्यरत एक महिला सब-इंस्पेक्टर से छेड़खानी का मामला उनके कुछ दोस्त फेसबुक पर ले गये तो उन्हें जबरदस्त समर्थन मिला. डीआइजी स्तर के अधिकारी पर लगाये आरोपों में पहले सुनवाई ही नहीं हो रही थी, लेकिन फेसबुक ने पुलिस-प्रशासन और सरकार पर दबाव बनाने का काम किया और शुरुआती कार्रवाई के बाद न्याय की आस दिखायी देने लगी.

बेंगलुरु में पिछले साल मार्च में अक्षय अपनी दो महिला मित्रों के साथ टहल रहे थे कि सड़क पर दो लड़कों की बदतमीजी से उन्हें जूझना पड़ा. मोटर साइकिल सवार दो बदमाशों ने अक्षय की महिला मित्रों के साथ छेड़खानी की और भाग गये. लेकिन इस दौरान अक्षय ने अपने मोबाइल से उनकी तस्वीरें ले लीं और उसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया गया.

फेसबुक पर महज 48 घंटे के भीतर 15 हजार से ज्यादा लोगों ने इस पोस्ट को लाइक व शेयर किया. फेसबुक पर लोगों का आक्रोश देख कर अक्षय ने पुलिस में शिकायत दर्ज करायी. दोनों मनचलों ने खुद को बचाने के लिए घर बदल दिया, लेकिन पुलिस ने मोबाइल रिकॉर्ड के जरिये इन्हें पकड़ लिया.

मुंबई निवासी धवल वालिया ने वोडाफोन की थ्रीजी सेवाएं ली. कंपनी ने प्रचार किया था कि थ्रीजी सेवाएं पूरे मुंबई में उपलब्ध हैं. कांदिवली मुंबई का हिस्सा है, लेकिन वहां यह सेवा उपलब्ध नहीं थी. धवल ने इसी बात पर ऐतराज जताया. ग्राहक सेवा केंद्र पर धवल से यहां तक कहा गया कि यदि आपको कंपनी की सेवा पसंद नहीं तो कनेक्शन कटा दीजिए. मजेदार बात यह कि थ्रीजी सेवा उपलब्ध न होने के बावजूद उन्हें भारीभरकम बिल भेजा गया.

इस बाबत कंपनी ने गलती मानी. इस बीच धवल ने कंपनी के अधिकारियों के नंबर और पूरा प्रकरण फेसबुक पर चस्पां कर दिया. इससे नाराज कंपनी ने उन्हें मानहानि का नोटिस भेज दिया. लेकिन कंपनी को यह दावं उल्टा पड़ गया. पहला सवाल उठा कि धवल के फेसबुक एकाउंट पर लिखे संदेश को वोडाफोन ने कैसे प्राप्त किया? यानी क्या हैकिंग की गयी.

दूसरा, धवल के फेसबुक मित्रों ने संदेश को जबरदस्त तरीके से प्रसारित किया. जंगल में आग की तरह फैला संदेश कंपनी के लिए जी का जंजाल बन गया. आखिरकार, मानहानि का नोटिस वापस लिया गया और मामला सुलझाया गया.

मुंबई के ही नजदीक डोंबिवली के तिलक नगर के एक स्कूल में माधव करंदीकर कई साल तक चौकीदार रहे. रिटायरमेंट के वक्त उन्हें चार हजार रुपये पेंशन मिलती थी. एक दिन बुजुर्ग करंदीकर सीढ़ियों से फिसल गये. उनके दोनों पैरों में फ्रैर हो गया और पीठ में भी चोट लगी. डॉक्टर ने दोनों पैरों के ऑपरेशन का खर्च डेढ़ से दो लाख रुपये बताया. उनके लिए यह रकम जुटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था.

ऐन मौके पर उनकी जिंदगी में दाखिल हुई सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक. स्कूल के छात्रों ने प्रिय करंदीकर काका के लिए फेसबुक पर रकम जुटाने की मुहिम शुरू की तो 15 दिनों के भीतर जरूरी रकम जुटा डाली.

समाज के सशक्तीकरण में बढ़ती भूमिका

इन तमाम उदाहरणों का एक सिरा सोशल मीडिया के समाज के सशक्तीकरण में बढ़ती भूमिका से जुड़ता है. सशक्तीकरण को सामान्य अर्थ में समझने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि समाज में आर्थिक और सामजिक रूप से हाशिये पर पड़े लोगों को न केवल आर्थिक रूप से संपन्न करना, बल्कि उनकी विशिष्ट पहचान निर्मित करना है. सशक्तीकरण का अर्थ है कि समाज के हाशिये पर पड़े शख्स के पास भी अपनी बात कहने का अधिकार हो, और उसकी बात उतनी ही प्रमुखता से सत्ता तक पहुंचे, जिस तरह किसी खास अथवा महत्वपूर्ण व्यक्ति या तबके की बात सुनी जाती है.

सोशल मीडिया ने यही काम किया है. इस साल 15 अगस्त को इंटरनेट को भारत में आये 19 साल हो जायेंगे. इन 19 सालों में इंटरनेट ने समाज को न केवल जागरूक करने का काम किया, बल्कि इंटरनेट के तमाम एप्लीकेशंस ने ऐसी भूमिका अदा की, जो समाज के सशक्तीकरण की दिशा में बढ़ते हैं.

कई जन आंदोलनों की रूपरेखा यहीं तैयार हुईं

अन्ना हजारे के आंदोलन से लेकर दिल्ली के निर्भया कांड के वक्त तक लोगों ने सोशल मीडिया की भूमिका देखी कि कैसे फेसबुक-ट्विटर के घोड़े पर सवार होकर कोई जन आंदोलन परवान चढ़ा. हालांकि, जमीन पर भी यह आंदोलन मजबूत था, लेकिन सोशल मीडिया ने इसे धार दिया. देश के हजारों लाखों नौजवान फेसबुक-ट्विटर के जरिये ही एक-दूसरे के संपर्क में आये और फिर साझा उद्देश्य की पूर्ति और सामूहिक आवाज को बुलंद करने के लिए सड़क पर आ गये.

‘साहब, बीवी और गैंगस्टर’ जैसी कई फिल्मों में अपनी अदाकारी का जौहर दिखा चुकी बॉलीवुड अभिनेत्री श्रेया नारायण कहती हैं, उस वक्त सोशल मीडिया की वजह से पटना, मुंबई और दिल्ली सब एक सुर में बात कर रहे थे. मन के भीतर का गुस्सा पहले सोशल मीडिया पर जाहिर हुआ, फिर सड़क पर उतरा. सोशल मीडिया ने एक समय में कई जगहों पर एक साथ प्रदर्शन की रूपरेखा तैयार की.

सवाल सिर्फ आंदोलन का नहीं है. आंदोलनों को मुख्यधारा की मीडिया में भी जगह मिलती है और आंदोलन व्यापक जनसमूह की भीतर सुलग रही चिंगारी को हवा मिलने से खड़े होते हैं. सोशल मीडिया के तमाम मंचों ने आम आदमी को एक हथियार दिया है. यह हथियार भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी लड़ाई में सहायक साबित हो रहा है, तो सरकार-प्रशासन को उसकी गलती पर ध्यान दिलाने वाला महत्वपूर्ण औजार भी बन रहा है.

टूंडला के कोल्ड स्टोरेज मालिक अश्विनी पालीवाल ने अपने हक की लड़ाई फेसबुक पर लड़ी. अश्विनी कई कोशिशों के बावजूद अपना व परिवार के अन्य सदस्यों का मतदाता पहचान पत्र नहीं बनवा पा रहे थे. अश्विनी ने आगरा जिला प्रशासन के पेज पर सख्त शब्दों में लिखा-‘क्या मैं मान लूं कि वोट डालने का मेरा संवैधानिक अधिकार मुझे नहीं मिल पायेगा.’ संवैधानिक अधिकार का हवाला देते ही जिला निर्वाचन कार्यालय ने उनकी शिकायत का निपटारा एक दिन के भीतर कर दिया.

पीएम तक पहुंच मुमकिन

सोशल मीडिया ने राजनीतिक सशक्तीकरण की दिशा में अहम भूमिका निभायी है. एक जमाना था, जब आप सीधे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुंचाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, लेकिन आज यह संभव है.

सोशलसमोसा डॉटकॉम की सहसंस्थापक अंकिता गाबा कहती हैं, ‘सोशल मीडिया ने आज हर शख्स को यह ताकत दी है कि वह सीधे अपनी बात राजनीतिक हस्तियों तक पहुंचा सके. आप सिर्फ का निशान लगाकर ट्विटर पर प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति तक बात पहुंचा सकते हैं. यह आम आदमी के हाथ में बड़ी ताकत है. अब सरकार को देखना है कि वो कैसे आम आदमी की समस्याओं, उनके फीडबैक पर प्रतिक्रिया देती है.’

फेसबुक-ट्विटर-यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के तमाम मंचों ने आम आदमी के हाथ में एक ताकत दी है. यह ताकत है एक बड़े वर्ग को अपने साथ लाने की. अब इस ताकत का अलग-अलग तरह से इस्तेमाल हो रहा है. सोशल मीडिया के जरिये ओनिर की फिल्म ‘आइ एम’ से सह-निर्माता बने दिल्ली के कारोबारी राजेश जैन कहते हैं, ‘फेसबुक न होता तो मैं कभी ओनिर की फिल्म से जुड़ नहीं पाता. उस फिल्म ने सुर्खियां बटोरी, इसलिए आज मैं खुद एक फिल्म निर्माता हूं.

मेरी फिल्म ‘ब्लू माउंटेन’ इस साल रिलीज होने वाली है. आज कई स्वतंत्र फिल्मकार सोशल मीडिया के जरिये ‘क्राउडफंडिंग’ कर रहे हैं, और अपने सपनों को साकार कर रहे हैं. इसी तरह यूट्यूब चैनल लोकप्रिय हो रहे हैं, जहां लोग खाना बनाने की विधि सिखाने से लेकर न जाने क्या-क्या सिखाते हुए पैसे कमा रहे हैं. सोशल मीडिया जानकार विवेक द्विवेदी कहते हैं, ‘यूट्यूब आम लोगों के साथ टाइ-अप कर रहा है, और उनके हुनर को एक प्लेटफॉर्म मुहैया करा रहा है. जितने लोग वीडियो देखते हैं, उस हिसाब से यूट्यूब उन्हें पेमेंट करता है.’

नकारात्मक पहलू भी

सोशल मीडिया के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं. मसलन अफवाहों का फैलना. असम हिंसा से लेकर मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान सोशल मीडिया की नकारात्मक भूमिका दिखाई दी थी, लेकिन इन कमियों की वजह से सोशल मीडिया की उपयोगिता कम नहीं हो जाती. ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टिट्यूट के समाजशास्त्री एच डटन तो सोशल मीडिया को लोकतंत्र के ‘पांचवें खंभे’ की संज्ञा दे चुके हैं.

आर्थिक-राजनैतिक और सामाजिक सशक्तीकरण में सोशल मीडिया की भूमिका दिखाई दे रही है. महिला सशक्तीकरण के तमाम उदाहरण हमारे सामने लगातार आ रहे हैं. और यह हाल तब है, जब भारत की सिर्फ दस फीसदी आबादी तक सोशल मीडिया पहुंचा है. इसके अलावा, पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में ‘डिजीटल खाई’ बहुत अधिक है, जिसे पाटने की जरूरत है.

सोशल मीडिया की उपयोगिता को अब सही ढंग से समझने की जरूरत है, क्योंकि इसकी ताकत हाशिये पर पड़े समाज के एक बड़े तबके को मुख्यधारा में लाने का काम कर सकती है. सच कहा जाए तो इंटरनेट के विस्तार के साथ एक नयी क्रांति होना अभी बाकी है.

रेडियो : अपनी-अपनी रिश्तेदारियां

।। विनीत कुमार ।।

मीडिया विश्लेषक

जिस दौर में रेडियो दहेज में ली-दी जाने की चीज रही हो, वहां इसका साथ सुनना भी मजबूरी ही रही होगी. इस मजबूरी के बीच से जिस समरसता और सामुदायिकता का विस्तार हुआ, सामाजिक सौहाद्र्र पर शोध करनेवाले के लिए रेडियो का साथ सुनना कम दिलचस्प विषय नहीं है.

इस मुकाबले अब कनठेपी लगा कर रेडियो सुनने से तो कम हुआ ही है. और रिक्शेवाले के टोकरी में रख कर फुल वॉल्यूम में रेडियो बजाने और मोबाइल में तार डालकर फुल वॉल्यूम में झूमते हुए रेडियो सुनने में एक फांक तो दिखाई देती ही है.

लोगों की जेब और मोबाइल में रेडियो समा जाने के इस दौर में भी अक्सर ऐसे रिक्शेवाले मिल ही जाते हैं, जो रिक्शे की हैंडल के आगे लगी छोटी टोकरी में पानी की बोतल, गमछा और चना-चबेना के साथ रेडियो भी लेकर चलते हैं. दुनिया से बेपरवाह फुल वॉल्यूम में जब आप इनके मिजाज का गाना बजते सुनते हैं, तो आपको रेडियो के गायब होने के साथ-साथ इन आदिम श्रोताओं के गायब होते जाने का ध्यान हो आता है.

आज कान में कनठेपी (इयरफोन/ हेडफोन) लगा कर रेडियो सुनना जितना पर्सनल हो गया है, पर्सनल के साथ-साथ उतना ही आत्मकेंद्रित भी कि सामने ‘आग लग जाये, गोली चल जाये’ तो भी हम आगे बढ़ जाएं.

रेडियो की एक लंबी यात्रा रही है, जिसने एक ही समय में पूरे परिवार, मोहल्ले और पंचायत तक को अपने में शामिल किया है. पत्रिकाओं में छपी उन पुरानी तस्वीरों, हिंदी सिनेमा के उन दृश्यों से गुजरें, जहां रेडियो शामिल है तो आप महसूस करेंगे कि ये परिवार के सदस्यों, लोगों की भीड़ के बीच बाकायदा एक सदस्य, एक चरित्र के रूप में शामिल है.

रेणु के उपन्यास मैला आंचल का एक दृश्य है, जहां डॉ प्रशांत के मार्फत पहली बार मेरीगंज, पूर्णिया के लोगों के बीच रेडियो पहुंचा है. इस माध्यम को लेकर लोगों के बीच लगाव, समझ और आकर्षण है और जिस रूप में रेणु ने इसे व्यक्त किया है, 1954 के रेडियो पर लेख लिख कर व्यक्त करना शायद संभव नहीं- हट जाइए! अगमू कहता है, ‘डागडर साहब बोले हैं, इंतजाम से रखना ठेस नहीं लगे. बेतार का खबर है.’

बालदेव जी कहते हैं, ‘रेडी है या रेडा! अब सुनियेगा रोज बंबै-कलकत्ता का गाना. महतमा जी का खबर, पटुआ का भाव सब आयेगा इसमें. तार में ठेस लगते ही गुस्साकर बोलेगा-बेकूफ. बिना मुंह धोए पास में बैठते ही तुरत कहेगा- क्या आपने आज मुंह नहीं धोया है?

लोकाचार और सामाजिकता का पाठ

किंवदती, अफवाह और अंधविश्वास में जीने वाले समाज के भीतर रेडियो के पहुंचने से उसका चरित्र भले ही उसी रूप में परिभाषित किया जाता रहा हो, लेकिन इसी बीच रेडियो ने अपनी क्षमता और चरित्र के अनुरुप श्रोताओं को लोकाचार और सामाजिकता का पाठ पढ़ाया.

क्या ये कम दिलचस्प नहीं है कि आज जबकि लोग अपने-अपने घरों में, कई बार एकांत में हिंदुस्तान-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच से लेकर अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों, विचारधारा के प्रवक्ताओं के भाषण तक देखते-सुनते हैं, लेकिन बावजूद इसके सामुदायिक स्तर पर सहज नहीं रह पाते. रिएक्ट कर जाना आदत का हिस्सा बनता जा रहा है.

वहीं एक समय में इस रेडियो ने इन परस्पर विरोधी स्वरों को एक साथ बैठकर सुनने की आदत का विस्तार दिया? यह जरूर है कि इस तरह एक साथ बैठ कर बिल्कुल अलग रुझान और कार्यक्रम को सुनना न तो सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा रहा हो और न शौक का.

जिस दौर में रेडियो दहेज में ली-दी जाने की चीज रही हो, वहां इसका साथ सुनना भी मजबूरी ही रही होगी, लेकिन इस मजबूरी के बीच से जिस समरसता और सामुदायिकता का विस्तार हुआ, सामाजिक सौहाद्र्र पर शोध करनेवाले के लिए रेडियो का साथ सुनना कम दिलचस्प विषय नहीं है.

इस मुकाबले अब कनठेपी लगा कर रेडियो सुनने से तो कम हुआ ही है. और रिक्शेवाले के टोकरी में रखकर फुल वॉल्यूम में रेडियो बजाने और मोबाइल में तार डालकर फुल वॉल्यूम में झूमते हुए रेडियो सुनने में एक फांक तो दिखाई देती ही है.

अकेलेपन का साथी

एक तो ये स्थिति है. दूसरी स्थिति उसी बक्सा रेडियो जो ‘मर्फी’ से होते हुए ‘संतोष’ ट्रांजिस्टर, फिलिप्स और सिगरेट की डिब्बी साइज की चाइनिज सेट तक की यात्रा कर आता है, अलग कहानी बयां करते हैं. यहां रेडियो की मौजूदगी बिल्कुल एकांत में है, जिसे हम ‘रेडियो रिश्तेदारी’ कह सकते हैं. रेडियो ने आवाज की कशिश के नाम पर प्रेमिका, पत्नी, दोस्त, नाते-रिश्तेदार की गैर-मौजूदगी को पाटने का काम किया है.

हिंदी सिनेमा या बचपन में गुजरे उन नजारें को याद करें, तो हर तीसरा श्रोता चाहे वह स्त्री हो या पुरुष छाती से रेडियो चिपकाये, आसमान की ओर टकटकी लगाये छत पर लेटा है. दकदक लाल लोहे के आगे पसीने से चुहचुहाता लुहार ‘अभी न जाओ सइंया, चुरा के बइयां’ की लय के साथ हथौड़े की लय का मिलान कर रहा होता है. बढ़ई की छिली जा रही लकड़ी कागज के फूल बन कर ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में’ की धुन में जाकर समा जाता है.

सलीम दर्जी का ब्लाउज की एक-एक बांह सिलते वक्त के फरमाइश गीत से अबोला नाता बन गया होता है. फौजी भाइयों के लिए सरहद और घर की भौगोलिक दूरी के बीच रेडियो मौसम बदल-बदलकर मौजूद रहा. मेहनतकश, ये सबके सब जो बीच बाजार और बम के शोर में बैठकर भी अकेले होते हैं, उनके लिए रेडियो कभी एकांत का खलल न होकर उस एकांत के खालीपन को कम करने का माध्यम रहा है.

रेडियो बजना ही बड़ी बात

करीब पचास-पचपन साल तक रेडियो ने ऐसा दौर तो जरूर देखा है, जिसमें श्रोता कंटेंट के बजाय माध्यम से चिपके रहे. जिस वक्त श्रोता के मनोभाव किसी और बात व व्यक्ति को लेकर बन-बदल रहे हों, ठीक उसी वक्त खेती-बाड़ी से जुड़े ऐसे कार्यक्रम प्रसारित होने लगे, जिसका कि कोई आपसी संबंध न हो. लेकिन एक माध्यम के बजाय एक बन चुकी रिश्तेदारी ने कंटेंट को कई बार बहुत पीछे छोड़ दिया.

रेडियो का बजना भर महत्वपूर्ण रहा, किसी के साथ होने का एहसास प्रबल रहा. कंटेंट को लेकर बेचैनी और पटापट चैनल बदलने की आदत तो तब ज्यादा लगी जब एक तो रेडियो सिलोन ने फिल्मी गानों का चस्का लगाया, प्रसार भारती ने व्यावसायिक प्रसारण सेवा शुरू की और अस्सी के दशक में कैसेट संस्कृति की मार झे लने के बाद रेडियो नये फिल्मी गानों के लिए श्रोताओं के प्रति अतिउदार बनने लगा.

लेकिन सामूहिकता और रिश्तेदारी ही ये दो ऐसे बीज बिंदु हैं, जिसे लेकर मीडिया संस्थानों ने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए 1990 के दशक में निजी एफएम चैनलों की शुरुआत की. कैसेट, टेलीविजन, केबल नेटवर्क के बीच रेडियो जहां तेजी से मर रहा था, उनके बीच इन चैनलों ने इसे जिंदा करने की कोशिश की और सफल भी हुए. यह जरूर है कि यहां तक आते-आते सामूहिकता और रिश्तेदारी नये सिरे से परिभाषित हुई.

गौर करें तो कैसेट की मार झे लने के पहले तक रेडियो ने कार्यक्रमों का जो ढांचा तैयार किया, जो कि एफएम चैनलों के दौर में आकाशवाणी के माध्यम से अब भी मौजूद है, वह किराना दुकान के लिए संयुक्त परिवार की वह पर्ची है, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों के लिए कुछ न कुछ है. कुछ तो बिल्कुल स्पष्ट रूप से श्रोताओं की अवस्था के आधार पर तो बाकी रुझान, विधा और लोकप्रियता के आधार पर. यानी सुनने से लेकर कार्यक्रम निर्धारण तक की सामूहिकता और रिश्तेदारी रेडियो में घूम-फिरकर आती ही रही.

एफएम ने बदले सरोकार

आकाशवाणी के कार्यक्रमों में जो संयुक्त परिवार की पर्ची थी, वह अब सिमट कर यूथ सेंट्रिक हो गयी. 35 पार लोगों के लिए एक भी कार्यक्रम नहीं रहा. बच्चे पूरी तरह बेदखल हो गये. और इन सबके बावजूद ये इसे सुनना चाहते तो इन्हें उन्हीं 16 से 35 साल तक की माइंडसेट में आकर सुनना होगा, जिसका विभाजन बायलॉजिकल न होकर मिजाज का है.

आकाशवाणी ने श्रोताओं का जो बंटवारा अवस्था, रुझान और विधाओं को लेकर किया था, एफएम चैनलों में या तो ये पूरी तरह ध्वस्त हुए या फिर विभाजन के ऐसे नये आधार बने जिसका संबंध उन विषयों से था, जिसे आकाशवाणी पर गला खखारकर या फुसफुसाकर भी नहीं प्रसारित किया जा सकता था. दरअसल इसे कोई विषय ही नहीं समझा गया. ब्रेकअप, रिलेशनशिप, कॉलेज कैंपस, ट्रैफिक जाम. विषयों की एक लंबी श्रृंखला है, जो जितनी पर्सनल है उतनी ही पब्लिक और जितनी ही पब्लिक प्रॉब्लम है, उतनी ही पर्सनल.

और यही वह वजह है कि व्यावसायिक हितों के बावजूद रेडियो श्रोताओं से लेकर प्रस्तोता के बीच ‘परमार्थ’ इतना भीतर तक घुस गया कि हर कान में मोबाइल की इयरफोन लगी रहने के बाजवूद दिल्ली जैसे शहर में कोई रिक्शाचालक फुल वॉल्यूम करके रेडियो सुनाना चाहता है, तो वहीं रिश्तों के बिखरने, छीजने और भरोसा करने लायक कोई नहीं है- जैसे हताश कर देनेवाले निष्कर्ष पर जहां लव गुरु, डॉ लव जैसे दर्जनभर कार्यक्रम प्रसारित किये जाने लगे हैं. और उसी निजी एफएम रेडियो पर बिनाका गीतमाला के अमीन सायानी का ‘बहनों और भाइयों’ संबोधन भी जारी है.

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