स्वयं प्रकाश से मिलने का इत्तफाक नहीं हुआ, पर उनकी कहानियां इत्तफाकन जिंदगी के बेहद बेचैन वक्तों में मेरे करीब आयीं और मुझे किसी हमदर्द को पा लेने का एहसास हुआ.
विलक्षण कथाकार स्वयं प्रकाश की मशहूर कहानी ‘पार्टीशन’ को पढ़ते वक्त मुझे रामवृक्ष बेनीपुरी की किताब ‘माटी की मूरतें’ के अविस्मरणीय चरित्र सुभान खां की याद आ गयी. ऐसा लगा कि कुर्बान भाई उसी परंपरा के हैं और ‘मियां’ कहकर उनका ही उपहास उड़ाया जा रहा है और उन्हें जबरन सांप्रदायिक बनने के लिए विवश किया जा रहा है. इसी तरह ‘रशीद का पाजामा’ पढ़ते वक्त भी मुझे प्रेमचंद की एक यादगार कहानी ‘ईदगाह’ और उसके बाल नायक हामिद की याद आयी.
रशीद भी हामिद की तरह गरीब है और संवेदनशील है. हामिद दादी के लिए चिमटा खरीदता है और रशीद अब्बू के लिए छड़ी. मगर एक फर्क है, वहां हामिद को सांप्रदायिक घृणा का सामना नहीं करना पड़ता, पर यहां गरीब रशीद की प्रतिभा से दूसरे विद्यार्थियों में जो ईर्ष्या है, वह सांप्रदायिक नफरत का रूप ले लेती है.
समाज कैसा है या कैसा बन रहा है, उसके इंडिकेटर की तरह भी हैं स्वयं प्रकाश की कहानियां. सिर्फ सांप्रदायिकता के बढ़ते असर की ही वे शिनाख्त नहीं करतीं, बल्कि कई अन्य महत्वपूर्ण बदलावों को चिह्नित करते हुए वे पाठक को उसकी सही भूमिका में खड़ा करना चाहती हैं. जिस दौर में मैं उनकी सारी कहानियांे से गुजरा, वह दौर आर्थिक उदारीकरण, आक्रामक उपभोक्तावाद के कारण मध्यवर्ग की भीतर बढ़ती खतरनाक स्वार्थपरता का दौर था.
हिंदी कहानी में सूचना क्रांति (जिसे मैं सूचना साम्राज्य कहता हूं) के कारण बदले हुए यथार्थ, स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का जोर था. मुझे लग रहा था कि सूचना क्रांति, उपभोक्तावाद और बाजारवाद को हिंदी कहानी में मध्यवर्ग की अपरिहार्य विवशता की तरह ज्यादा पेश किया जा रहा है.
स्वयं प्रकाश समाज में कई स्तरों पर पसरती आत्महीनता से जूझते हैं और निरंतर खोते जा रहे आत्म-स्वाभिमान को वापस लौटाते हैं. ‘उस तरफ’ कहानी में जैसलमेर के पिछड़े इलाके भीषण आग से बारह बच्चों को बचानेवाले नखत सिंह के चरित्र के जरिये वे सभ्यता और श्रेष्ठता की कसौटी पर ग्रामीणों को बड़ा सिद्ध करते हैं.
उसी तरह ‘संधान’ कहानी महानगरों की तुलना में कस्बाई शहर के लोगों की आत्महीनता को निरर्थक साबित करती है. स्वयं प्रकाश की कहानियां एक शुभचिंतक दोस्त की तरह हमसे संवाद और बहस करती हैं. वे आकांक्षा की कहानियां हैं. इन आकांक्षाओं को जानना-समझना जरूरी है, क्योंकि ये एक नये समाज, सचमुच के लोकतांत्रिक समाज के निर्माण से जुड़ी आकांक्षाएं हैं.
– सुधीर सुमन