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सिनेमा : अंधविश्वास को उजागर करनेवाली फिल्म
अजित राय वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हाल ही में संपन्न हुए भारत के 50वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के भारतीय पैनोरमा में दिखायी गयी संजय पूरन सिंह चौहान की विलक्षण फिल्म ‘बहत्तर हूरें’ सिनेमाई व्याकरण के कारण भारतीय सिनेमा में एक नया प्रस्थान है. ऋतुपर्णों घोष की ‘दोसोर’ (2006) के बाद शायद ही किसी ने आज के […]
अजित राय
वरिष्ठ फिल्म समीक्षक
हाल ही में संपन्न हुए भारत के 50वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के भारतीय पैनोरमा में दिखायी गयी संजय पूरन सिंह चौहान की विलक्षण फिल्म ‘बहत्तर हूरें’ सिनेमाई व्याकरण के कारण भारतीय सिनेमा में एक नया प्रस्थान है. ऋतुपर्णों घोष की ‘दोसोर’ (2006) के बाद शायद ही किसी ने आज के जमाने में पूरी फिल्म ब्लैक एंड व्हाॅइट में शूट करने का जोखिम उठाया हो. संजय पूरन सिंह चौहान की पिछली फिल्म ‘लाहौर’ (2010) को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था और इसे दुनियाभर में सराहा गया था.
मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर लश्कर-ए-तैयबा के बम ब्लास्ट में 25 अगस्त, 2003 को 54 लोगों की जान गयी थी और 244 गंभीर रूप से घायल हुए थे. यह फिल्म इसी घटना से प्रेरित है. इसका ग्राफिक्स उम्दा है और मुंबई की सबाल्टर्न दृश्यावली क्लासिक पेंटिंग की तरह लगती है.
फिल्म ‘बहत्तर हूरें’ इस्लामी समाज में कुछ कट्टर मौलवियों द्वारा फैलाये अंधविश्वास की एंटी-थिसिस है कि जिहाद में शहीद होने पर जन्नत और वहां 72 हूरें मिलेंगी. फिल्म की शुरुआत ही पाकिस्तान के मौलवी सादिक सईद की तकरीर से होती है, जिसमें वे मुस्लिम नौजवानों को गुमराह कर रहे हैं कि जिहाद में शहीद होने के लिए अल्लाह जिनको चुनता है, वे बड़े किस्मतवाले होते हैं. उन्हें जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी.
मौलवी सादिक सईद के बहकावे में आकर हाकिम अली (पवन राज मल्होत्रा) और बिलाल (आमिर बशीर) जन्नत और 72 हूरों के चक्कर में आतंकवादी बनते हैं और गेटवे ऑफ इंडिया पर ब्लास्ट कर खुद भी मारे जाते हैं. आगे की फिल्म उन दोनों के भूत के बीच संवाद और दिलचस्प घटनाओं में थोड़ी फ्लैश बैक और ज्यादातर फ्लैश फॉरवर्ड में चलती है.
बिलाल को ब्लास्ट के पहले ही समझ में आ जाता है कि बेगुनाह लोगों को मारने से जन्नत नहीं जहन्नुम मिलती है. इसीलिए बिलाल उस हिस्से में ब्लास्ट करता है, जहां भीड़ नहीं है. वे दोनों भूत बनकर अपनी लाश का पोस्टमार्टम होने से लेकर दफनाये जाने तक के नाटकीय घटनाक्रम के गवाह बनते हैं.
उधर पाकिस्तान में इन दोनों के लिए मस्जिद में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में मौलवी सादिक सईद फिर वही 72 हूरों वाली तकरीर कर रहे हैं. हाकिम और बिलाल के भूत चीख रहे हैं कि बेगुनाहों को मारने से जन्नत नहीं मिलती, पर उनकी आवाज कोई नहीं सुनता, क्योंकि वे मर चुके हैं.
फिल्म में एक जगह पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ मुस्लिम औरतों के जूलूस को देख हाकिम कहता है कि ‘यह सब पाकिस्तान को बदनाम करने की साजिश है. हिंदू औरतों को बुर्के में खड़ा कर दिया है.’ उधर दो मुर्दा चोर कब्र से उनकी लाशें चुरा लेते हैं और पता चलने पर कि ये तो आतंकवादी हैं, लाशें लौटाने मौलवी के पास जाते हैं.
आक्रोशित हिंदुओं की भीड़ उनकी कब्रें खोद देती है कि आतंकवादियों को दफनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हाकिम को लगता है कि वह तो खुदा का काम करने निकला था, फिर सब उलटा क्यों हो रहा है. उसे यकीन हो जाता है कि जिहाद एक गुमराही है और बेगुनाहों को मारने से अल्लाह कभी खुश नहीं होता.
फिल्म बिना किसी प्रवचननुमा टिप्पणी के केवल सिनेमाई व्याकरण में जिहाद के अंधविश्वास को बेनकाब करती है. इस फिल्म को गोवा फिल्मोत्सव में इस साल यूनेस्को के इंटरनेशनल काउंसिल फॉर फिल्म, टीवी एंड ऑडियो विजुअल कम्युनिकेशन (पेरिस) गांधी मेडल के प्रतियोगिता खंड में ‘स्पेशल मेंशन’ अवॉर्ड मिला है.
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