नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की राजनीतिक यात्रा पर लिखी गई एक किताब में कहा गया है कि 2013 में उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के बाद अगले एक साल में उन्होंने राज्य में करीब 93 हजार किलोमीटर की यात्रा की और 52 जिलों का दौरा करते हुए 142 दिन वहां बिताए. किताब में कहा गया है कि राज्य में भाजपा को 2009 में मिली दस लोकसभा सीट से 2014 में 71 सीट तक पहुंचाने की रणनीति के पीछे शाह की इस अनथक कवायद से मिला अनुभव था.
भाजपा के थिंक टैंक, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन की ओर से लिखी गई और ब्लूमसबेरी की ओर से प्रकाशित यह किताब ऐसे समय आ रही है जब अमित शाह और उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में एक बार फिर 2014 की सफलता दोहराने के लिए इस बार लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत मजबूत विपक्ष की चुनौती का सामना कर रहे हैं. इस किताब के लेखक, एस पी मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ अनिर्बान गांगुली और सीनियर रिसर्च फैलो शिवानंद द्विवेदी के अनुसार, जब उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया तब अमित शाह राज्य की राजनीति की बारे में उतना ही जानते थे जितना तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियां कश्मीर की राजनीति के बारे में जानती हैं.
किताब में कहा गया है, “उत्तर प्रदेश में पार्टी के नाम पर सिर्फ नेता थे. कार्यकर्ता लगातार हार और सांगठनिक विफलता से निष्क्रिय हो चुके थे. लेकिन शाह रेत में दीवार खड़ी करने का मंसूबा बना चुके थे. यह काम बेहद मुश्किल था. सब जानते हुए भी शाह ने सबसे मुश्किल काम अपने हाथ में लिया.“ गौरतलब है कि लोकसभा में सबसे अधिक सदस्य भेजने वाले उत्तर प्रदेश में 2009 के चुनावों में भाजपा को 17.5 फीसदी मत मिले और उसे दस सीटों पर संतोष करना पड़ा था. समाजवादी पार्टी 23.3 प्रतिशत मत व 23 सीट लेकर पहले स्थान पर, कांग्रेस 18.3 प्रतिशत व 21 सीट लेकर दूसरे तथा बहुजन समाज पार्टी 27.4 फीसदी मत व 20 सीटें लेकर तीसरे स्थान पर रही थी. लेखकों के मुताबिक शाह पहली बार सितंबर 2010 में बनारस गए थे और तब वह न तो भाजपा के अध्यक्ष थे और न महामंत्री. वह तब केवल गुजरात में भाजपा के विधायक थे और सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के चलते गुजरात से बाहर रह रहे थे.
लेखकों ने दावा किया है कि इस दौरान बनारस और गंगा की दुदर्शा देख व्यथित शाह ने अपने एक साथी से कहा कि “जैसे ही मौक़ा मिला इस शहर और राज्य के लिए कुछ करना है.” किताब के अनुसार, “पार्टी की हालत देख अमित शाह इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि पार्टी को अप्रासंगिक और आधारहीन हो चुके नेताओं से मुक्त कर नया नेतृत्व खड़ा करना होगा. अति पिछड़ी जातियां जो इस ध्रुवीकरण की परिधि पर बैठी हैं, उनके भीतर असरदार नेतृत्व पैदा कर एक नयी सामाजिक गोलबंदी करनी होगी तथा चुनाव नहीं, बल्कि बूथ जीतने की योजना बनानी होगी.
हिंदुत्व के एजेंडे को सोशल इंजीनियरिंग से जोड़ना होगा.“ अमित शाह को मई 2013 में उत्तर प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया गया और लेखकों के अनुसार, अगले एक वर्ष में उन्होंने यूपी में सोशल इंजीयरिंग की एक ऐसी दीवार बनाई जो भाजपा के लिए अभेद्य किला बन गयी. शाह की “सोशल इंजीनियरिंग” ने जातिवाद के आधार पर तैयार होने वाले क्षेत्रीय दलों अथवा छत्रपों की सियासी जमीन को दरका दिया. शाह के ‘माइक्रोमैनेजमेंट’ और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का यह नतीजा था कि 2014 में राज्य में भाजपा को 42.3 फीसद वोट मिले.किताब में यह भी खुलासा किया गया है कि 1984 में भाजपा को आम चुनावों में मिली करारी हार के बाद एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह जब शाह भाजपा में शामिल हुए तब उन्हें अहमदाबाद के नारनपुरा वार्ड में चुनाव अभिकर्ता के रूप में पहली जिम्मेदारी मिली. इसके अनुसार, वह पहली बार बूथ संख्या 263 सांघवी के प्रभारी बने थे.