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ग्रामीण विकास की चुनौतियां: बुनियादी ढांचे का अभाव

।। ब्रजेश झा ।। अर्थशास्त्री भारत का समग्र विकास बिना ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के कतई संभव नहीं है. सरकारों के तमाम दावों के बावजूद हमारे गांव विकास तो दूर, कुछ बहुत जरूरी सुविधाओं तक से भी महरूम हैं. योजनाएं बनती रहीं, धन खर्च होते रहे, पर स्थिति में संतोषजनक बदलाव नहीं हुआ है. नयी […]

।। ब्रजेश झा ।।

अर्थशास्त्री

भारत का समग्र विकास बिना ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के कतई संभव नहीं है. सरकारों के तमाम दावों के बावजूद हमारे गांव विकास तो दूर, कुछ बहुत जरूरी सुविधाओं तक से भी महरूम हैं. योजनाएं बनती रहीं, धन खर्च होते रहे, पर स्थिति में संतोषजनक बदलाव नहीं हुआ है. नयी सरकार के पहले बजट में ग्रामीण विकास की दशा व दिशा पर सकारात्मक पहल की उम्मीद के साथ प्रस्तुत है आज का विशेष..

ग्रामीण विकास की मौजूदा स्थिति की यदि हम अन्य देशों से तुलना करेंगे तो हम इसमें अभी बहुत पीछे हैं. विकसित देशों और यहां तक कि कई विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में तकरीबन दो फीसदी लोग ही कृषि संबंधी उत्पादकता पर निर्भर हैं. ग्रामीण क्षेत्र ज्यादातर प्राथमिक संसाधनों पर आधारित होते हैं. अमेरिका, जापान जैसे देशों में महज दो फीसदी लोग ही कृषि पर आधारित हैं. जबकि भारत में तकरीबन 55 फीसदी लोग कृषि संबंधी कार्यो पर निर्भर हैं. यह एक बहुत बड़ा गैप है. एक बड़ी विषमता है.

एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन) के आंकड़े बताते हैं कि जो लोग कृषि क्षेत्र को छोड़कर गये हैं, उनमें से बहुत कम ही मैन्यूफैरिंग सेक्टर में गये हैं. इनमें से ज्यादातर लोग सर्विस सेक्टर में गये हैं. हमारे देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी तकनीकी शिक्षा का बेहद अभाव है, ताकि लोग गांवों में रह कर ही अपनी आजीविका चला सकें. खेती से लोगों को पर्याप्त आमदनी नहीं हो पा रही है. हमारे देश में 85 फीसदी से ज्यादा किसान सीमांत कृषक हैं. इनकी आमदनी पर्याप्त नहीं है. इनके लिए आमदनी का कोई दूसरा स्नेत यानी सबऑर्डिनेट स्नेत होना जरूरी है. तकनीकी शिक्षा के अभाव में यह कमी और भी ज्यादा महसूस की जा रही है.

ग्रोथ मॉडल पर ज्यादा जोर

दरअसल, ग्रामीण इलाकों के पास के जो शहर हैं, वे ठीक से विकसित नहीं हो पा रहे हैं. करीब 30 साल पहले जो ग्रोथ मॉडल थे, उनमें अविकसित इलाकों या छोटे शहरों को विकसित करने पर ध्यान दिया जाता था, लेकिन अब केवल महानगरों के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. दूरदराज में स्थित गांव के लोगों को ये सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. उन्हें बड़े शहर जाना पड़ रहा है. शहरों के नजदीक के गांवों में पहले ज्यादातर लोग आजीविका के लिए रोजाना शहर जाते थे और शाम को वापस गांव आते थे.

लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था खत्म होने लगी. खासकर उत्तर प्रदेश की हम बात करें तो अनेक शहरों में छोटे-छोटे उद्योग-धंधे और फैक्ट्रियां थीं, जो आज खत्म होने के कगार पर हैं. इससे गांव की अर्थव्यवस्था काफी हद तक प्रभावित हुई है. हमारे मौजूदा विकास मॉडल के तहत इसे दरकिनार किया जा रहा है.

नहीं दिखे अपेक्षित नतीजे

दुनिया के तमाम देशों में ग्रामीण विकास को रफ्तार देने के लिए वहां की सरकारों को धन मुहैया कराना पड़ा है. संसाधन मुहैया कराने पड़े हैं. इस क्षेत्र का विकास अपनेआप से नहीं हो सकता. पिछले 10 वर्षो में यूपीए के शासन के दौरान कुछ हद तक ग्रामीण विकास पर जोर दिया गया. वर्ष 2007, 2008 और 2009 के आसपास के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण विकास उस समय ठीकठाक स्थिति में था. तत्कालीन वित्त मंत्री ने टैक्स से हासिल व्यापक रकम को ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार के मद में खर्च के लिए आवंटित किया था. अब सवाल यह है कि क्या इस क्षेत्र में जितना आवंटित किया गया, उतना खर्च हो पाया और उस हिसाब से नतीजे निकल पाये.

यदि अपेक्षित नतीजे नहीं निकले, तो उनकी वजह क्या रही. इन वर्षो के दौरान सिंचाई सुविधाएं बढ़ी हैं. प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क निर्माण योजना के तहत ग्रामीण सड़कों में सुधार हुआ है. ग्रामीण विकास में गवर्नेस संबंधी मामले प्रमुख भूमिका निभाते हैं. 2009-10 के बाद यूपीए सरकार मुद्रास्फीति से परेशान हो गयी और सरकार यह खोजने लगी कि कहां कटौती की जा सकती है. इसमें ग्रामीण विकास में ही कटौती ज्यादा की गयी. सिंचाई सुविधाओं के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने में किये जाने वाले खर्चो समेत भूमि सुधार से जुड़े खर्चो में कटौती की जाने लगी.

रूरल एसेट्स से जुड़े मनरेगा

यूपीए के पिछले 10 सालों में ग्रामीण विकास के लिए सबसे ज्यादा रेवेन्यू महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा को दिया गया. हालांकि, इसमें व्यापक असमानता देखी गयी. राजस्थान में काफी हद तक यह कार्यक्रम सफल रहा, बिहार में ग्रामीण विकास में इसका खास योगदान नहीं देखा गया. ये सभी राज्य स्तर के मामले हैं. इसमें कार्यान्वयन महत्वपूर्ण है. मॉनिटरिंग करते वक्त यह देखना चाहिए कि इसे कैसे और किस तरह से लागू किया जा रहा है. मनरेगा के तहत कई राज्यों में प्रत्येक गांवों में 60 लोगों को रोजगार दिया गया है, जबकि कई गांवों में 20 लोगों को ही रोजगार मिला है. मनरेगा को रूरल एसेट्स से जोड़ा जाना चाहिए था.

इसमें ड्रेनेज सिस्टम, सिंचाई के लिए नहर, वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम आदि को ग्रामीण एसेट्स से जोड़ना चाहिए. इस वर्ष मानसून की बारिश कम होने को लेकर सूखे की जो आशंका जतायी जा रही है, मनरेगा के तहत उससे निबटने के पुख्ता इंतजाम समय रहते किये जा सकते थे. सिंचाई के लिए वाटर हारवेर्स्टिंग महत्वपूर्ण मामला है. जहां तक बजट की बात है तो यह केंद्र सरकार का बजट है.

ऐसे में आप इस दिशा में इस बजट से ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते, क्योंकि कृषि से जुड़े ज्यादातर मामले राज्य सरकारों से जुड़े हुए हैं. गवर्नेस में आर्थिक सिद्धांत तो बहुत हैं, लेकिन सवाल उसे लागू करने का है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि इसे लागू कैसे किया जा रहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं देने का वादा किया था, लेकिन इसे पूरा करने में अनेक दिक्कतें भी हैं. यह सब कहने में अच्छा लगता है, लेकिन अनेक व्यावहारिक समस्याएं हैं इसकी राह में. इस उपलब्धि को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा है बुनियादी ढांचा. गांव और शहर का जो मूलभूत फर्क है वह बुनियादी ढांचे से ही जुड़ा है. इसके लिए अच्छी खासी रकम चाहिए.

आधुनिक सुविधाएं हासिल करने के लिए गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है. इसे रोकने के लिए गांव के पास के शहर में निर्माण उद्योग लगाना होगा, ताकि गांव के लोग शहर जाकर शाम तक काम करके वापस आ सके. पहले इन चीजों पर ध्यान दिया जाता था, पर उदारीकरण के बाद से चीजें बदल गयी हैं. अब लोग जल्द हासिल होने वाला ग्रोथ रेट देखते हैं.

ग्रोथ रेट पर ज्यादा जोर दिया जाता है. यह नहीं देखा जाता कि यह ग्रोथ रेट कहां से आ रहा है. महानगरों से आ रहा है या फिर ग्रामीण क्षेत्रों से. मनरेगा से कुछ हद तक पलायन रुका था, लेकिन कई इलाकों में इससे खेती चौपट होने लगी. कृषि के लिए उपलब्ध होने वाले मजदूर की मजदूरी बढ़ गयी और किसान उतना चुका नहीं सकता, जिसके चलते यह प्रभावित हुआ. मनरेगा में जितनी मजदूरी मिलती है मजदूर को, यदि किसान उतना नहीं दे पाता है तो मजदूर खेतों में क्यों काम करेगा. नतीजा यह हुआ कि कई राज्यों में खेती चौपट होने लगी है.

वाटर हारवेस्टिंग पर जोर

कृषि विकास राज्य स्तर की नीतियों पर ज्यादा निर्भर करता है. आज गुजरात को खेती के मामले में मॉडल बताया जा रहा है, पर 10 साल पहले ऐसा नहीं था. इस राज्य में वाटर हारवेस्टिंग स्ट्रर पर विशेष ध्यान दिया गया. उसके बाद से पिछले एक दशक में गुजरात में कृषि में अच्छा विकास हुआ है. राज्य स्तर के मामले ज्यादा महत्वूपर्ण हैं इस मामले में. दरअसल, बाजार में नॉन-फूड कमॉडिटीज पर आजकल ज्यादा जोर है. हमलोग इस ओर ध्यान कम दे रहे हैं. कृषि के लिए जो बाजार बनता है, वह किसानों की बेहतरी पर कम ध्यान देता है, किसानों को बुनियादी ढांचे मुहैया कराने पर कम ध्यान दिया जाता है.

जहां तक बात खेती के कॉरपोरेटाइजेशन की बात है तो उसका मकसद मुनाफा कमाना है. यदि इस सेक्टर में उन्हें मुनाफा दिखेगा तो वे आगे आयेंगे. रिटेल में कॉरपोरेट के आने से उम्मीद जगी थी कि किसानों को उनकी उपज की अच्छी कीमत मिल पायेगी. कहा जा रहा था कि वे गांव-गांव में सेंटर खोलेंगे और सीधे वहीं से खरीदारी करेंगे, लेकिन वास्तविक में ऐसा कम ही हो रहा है. ज्यादातर कंपनियां शहरी मंडियों से ही खेती के उत्पाद खरीद रही हैं.

किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिले, इसके लिए बेहतर बुनियादी ढांचा तैयार करने की जरूरत है. खेती पर इसका व्यापक असर पड़ता है. बिजली व्यवस्था ठीक होने से ग्रामीण विकास की तसवीर बदल सकती है. हमलोग नॉन-फूड कमॉडिटीज पर ध्यान नहीं देते. ज्यादातर जोर गेहूं, चावल आदि पर दिया जाता है. नकदी फसलों पर कम ध्यान दिया जाता है. इस मामले में पर्याप्त सरकारी मदद मुहैया कराते हुए गांवों की तसवीर बदली जा सकती है.

(बातचीत : कन्हैया झा)

उपभोक्ता व्यय का स्तर एवं पैटर्न

– देश के 7,469 गांव और 5,268 शहरी खंडों से हासिल सूचनाओं पर आधारित रिपोर्ट में दो सूचियों में 1,01,662 और 1,01,651 परिवारों से जानकारी हासिल की गयी थी.

– 2011-12 में ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति औसत मासिक उपभोक्ता व्यय (एमपीसीइ) 1,430 रुपये और शहरी भारत में 2,630 रुपये. दोनों के बीच में 84 प्रतिशत का अंतर.

– पांच प्रतिशत निर्धनतम ग्रामीण जनता का प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय 521 रुपये. पांच प्रतिशत निर्धनतम नगरीय जनता का प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय 700 रुपये.

– प्रति व्यक्ति मासिक व्यय के लिए बनाये गये स्तरों में ग्रामीण आबादी के ऊपरी यानी समृद्धतम 5 प्रतिशत हिस्से का औसत मासिक व्यय 4,481 रुपये प्रति व्यक्ति. यह राशि निर्धनतम 5 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के औसत की तुलना में 8.6 गुणा अधिक है.

– प्रमुख राज्यों में केरल ग्रामीण एमपीसीइ के मामले में सबसे आगे (2,669 रुपये) रहा. इसके बाद पंजाब (2,345 रुपये) और हरियाणा (2,176 रुपये) थे. अन्य सभी प्रमुख राज्यों का औसत एमपीसीइ 1,000 रुपये से 1,760 रुपये के बीच पाया गया.

– उड़ीसा और झारखंड के ग्रामीण हिस्से में सबसे कम औसत एमपीसीइ (1,000 रुपये) पाया गया, जबकि छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाके में औसत एमपीसीइ 1,030 रुपये था. बिहार, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों औसत एमपीसीइ 1,120 रुपये से लेकर 1,160 रुपये के बीच पाया गया.

– पंजाब के औसत ग्रामीण एमपीसीइ से वहां के नगरीय खंडों का औसत एमपीसीइ 19 फीसदी अधिक था,केरल में यह 28 फीसदी तथा बिहार में 34 प्रतिशत अधिक था. पश्चिम बंगाल, झारखंड, महाराष्ट्र में नगरीय औसत ग्रामीण औसत से करीब दोगुना ज्यादा था.

– समान संदर्भ अवधि द्वारा मापा गया वास्तविक एमपीसीइ 1993-94 से 2011-12 यानी 18 साल की अवधि में ग्रामीण भारत में 38 प्रतिशत शहरी भारत में 51 प्रतिशत बढ़ा है.

– भारत के ग्रामीण परिवारों का 2011 के दौरान कुल-व्यय में खाद्य-पदार्थो के उपभोग पर किये गये व्यय का हिस्सा 53 प्रतिशत था. इसमें अनाज एवं उसके स्थानापन्न पर 10.8 प्रतिशत, 8 प्रतिशत दूध और दूध से बनी चीजों पर और 6 प्रतिशत खर्च सब्जियों पर हुआ.

– अखाद्य वर्ग में खाना बनाने के ईंधन और रोशनी का भाग 8 प्रतिशत, वस्त्र एवं जूते का 7 प्रतिशत, चिकित्सा खर्चे का 6.7 प्रतिशत, यात्र एवं अन्य उपभोक्ता सेवाओं का 4 प्रतिशत तथा उपभोक्ता वस्तुओं पर हुए खर्च का हिस्सा 4.5 प्रतिशत था.

– प्रति व्यक्ति औसत अनाज की खपत प्रतिमाह ग्रामीण भारत में 11.2 किलो एवं नगरीय भारत में 9.2 किलो था.

– 1993-94 से 2011-12 तक 18 सालों में महीने में प्रति व्यक्ति अनुमानित अनाज की खपत (जिसमें खरीदे गये प्रसंस्कृत आहार में अनाज का हिसाब शामिल नहीं है) ग्रामीण भारत में 13.4 किलोग्राम से 11.2 किलोग्राम और नगरीय भारत में 10.6 किलोग्राम से 9.3 किलोग्राम तक गिरी है.

(स्नेत : एनएसएसओ)

Prabhat Khabar Digital Desk
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