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अपेक्षित था राजस्थान में सत्ता परिवर्तन

डॉ एके वर्मा राजनीतिक ‌विश्लेषक [email protected] चुनावी परिणामों में सबसे पहली उल्लेखनीय बात यह है कि कांग्रेस की हिंदी प्रदेशों में वापसी हो रही है और जबरदस्त तरीके से वापसी हुई है. चुनाव आते-आते लगभग यह अपेक्षित था कि यहां सत्ता-परिवर्तन देखने को मिलेगा. हालांकि, यह जरूर है कि भाजपा की स्थिति उतनी खराब नहीं […]

डॉ एके वर्मा
राजनीतिक ‌विश्लेषक
चुनावी परिणामों में सबसे पहली उल्लेखनीय बात यह है कि कांग्रेस की हिंदी प्रदेशों में वापसी हो रही है और जबरदस्त तरीके से वापसी हुई है. चुनाव आते-आते लगभग यह अपेक्षित था कि यहां सत्ता-परिवर्तन देखने को मिलेगा. हालांकि, यह जरूर है कि भाजपा की स्थिति उतनी खराब नहीं हुई है, जितनी संभावित थी.
पहले के चुनावों में, राजस्थान में भाजपा का सीट प्रतिशत और वोट प्रतिशत कांग्रेस से अच्छा ही रहा है और कांग्रेस जितनी सीटों पर सत्ता में लौटी है, उससे कहीं ज्यादा 163 सीटें भाजपा को 2013 में मिली थीं. इसलिए जिन परिणामों के आधार पर राजस्थान में सत्ता परिवर्तन की स्थिति बनी है, वह कोई अजेय स्थिति नहीं है. हां, इन परिणामों की पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रखकर समीक्षा की जाये, तो कुछ महत्वपूर्व बातें ध्यान देने योग्य हैं. सबसे पहले तो यह कि भाजपा द्वारा बहुप्रचारित, कथित तौर पर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान पर एकदम से विराम लग गया है.
जिन तीन राज्यों में कांग्रेस की वापसी हुई है, वे हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्य हैं. लेकिन, तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस की बुरी हार हुई है. मिजोरम में कांग्रेस का दस साल से शासन था, अब वह खत्म हो गया है. इसके साथ ही पूरा पूर्वोत्तर अब भाजपा के दबदबे वाला कहा जा सकता है.
कांग्रेस के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि उसके दबदबे वाला क्षेत्र, जहां की बहुसंख्यक जनता ईसाई है और भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे का समर्थन नहीं करती है, वह कांग्रेस की पकड़ से अब बाहर है. ऐसे में भाजपा की पूर्वोत्तर में स्थिति मजबूत होना विपक्षी दलों के लिए चिंता का कारण होना चाहिए. कांग्रेस तेलंगाना में भी अपने प्रदर्शन से निराश होगी.
आगामी लोकसभा चुनावों में यह देखने वाली बात होगी कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की सॉफ्ट हिंदुत्व की पॉलिसी, राहुल गांधी द्वारा मंदिरों के लगातार भ्रमण और अमेठी के मंदिरों के सुंदरीकरण की घोषणा आदि का क्या असर रहता है. इस छवि को ढोते हुए कांग्रेस के महागठबंधन का नेतृत्व करने के दावे पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो सकता है. निश्चित तौर पर सॉफ्ट हिंदुत्व की चालों से कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष छवि पर असर पड़ा है.
इससे धर्मनिरपेक्ष व वामपंथी दलों को यह लग सकता है कि कांग्रेस भी भाजपा के रास्ते पर चल रही है. हालांकि, यह सही समय है कि जब कांग्रेस सोचना शुरू करे कि वास्तव में गठबंधन की राजनीति उसके हित में है या नहीं. कांग्रेस को फिर से राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरना है, तो उसे यह फैसला तुरंत लेना होगा कि वह अकेले लड़ने की स्थिति में आ सकती है या नहीं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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