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अभी शैशवावस्था में है मारे देश का बाल रंगमंच
ईश्वर शून्य, रंगकर्मी आजादी से पहले ही कर्नाटक में पहली घुमंतु बाल रंगमंच करनेवाली संस्था बन चुकी थी. किंतु उसके बाद इस क्षेत्र में कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ. आजादी के बाद बैरी जॉन का भारत आना भारतीय बाल रंगमंच में एक महत्वपूर्ण घटना थी. उन्होंने 1973 में थियेटर एक्शन ग्रुप बनाकर बाल रंगमंच में […]
ईश्वर शून्य, रंगकर्मी
आजादी से पहले ही कर्नाटक में पहली घुमंतु बाल रंगमंच करनेवाली संस्था बन चुकी थी. किंतु उसके बाद इस क्षेत्र में कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ. आजादी के बाद बैरी जॉन का भारत आना भारतीय बाल रंगमंच में एक महत्वपूर्ण घटना थी. उन्होंने 1973 में थियेटर एक्शन ग्रुप बनाकर बाल रंगमंच में अतुलनीय योगदान दिया. उनके सहयोग से ही 1989 में रानावि में संस्कार रंग टोली की स्थापना हुई.
पर उस से पहले ही खिलौना (1987), उमंग (1979) जैसी संस्थाएं भी बन चुकी थीं, जो लगातार बाल रंगमंच में काम कर रही थीं. तब से अब तक देश में बाल रंगमंच की स्थिति में लगातार सुधार हुआ है.
आज देश में कई रंग मंडलियां केवल बाल रंगमंच में ही काम कर रही हैं. रानावि, पृथ्वी थियेटर, रंगशंकरा, अंतरराष्ट्रीय थियेटर महोत्सव (तिफली), ईशारा पुतुल महोत्सव समेत कई छोटे बड़े महोत्सव हर साल आयोजित होते हैं. जगह-जगह बाल रंगमंच कार्यशालाओं का आयोजन होता रहता है. स्कूलों में भी इसका विस्तार हुआ है.
इस सबके बावजूद, अभी तक बाल रंगमंच ने अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं किया है. देश में बच्चों के लिए काम करनेवाली टोलियों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. इसकी वजह है बाल रंगकर्म को हमारे यहां हल्का और दोयम दर्जे का काम माना जाना. अधिकतर रंगकर्मियों को बाल रंगमंच आकर्षित ही नहीं करता. बाल रंगमंच में अक्सर वे ही आते हैं, जिनको बड़ों के रंगमंच में स्वीकार्यता नहीं मिलती.
या फिर वे लोग, जिनको बाल रंगमंच में आर्थिक फायदे दिखते हैं. यही वजह है कि ऐसे लोगों का काम भी चलताऊ किस्म का ही होता है. जबकि बच्चों के साथ काम करने के लिए एक रंगकर्मी को ज्यादा समझ और सजगता की जरूरत होती है. बच्चों के मन को समझने के लिए अनुभवी शिक्षक-रंगकर्मी का होना जरूरी है.
बच्चों के साथ काम करने का तरीका और नाटक का विषय बहुत सोच-समझकर तय करना चाहिए. नाटक बच्चों के लिए और उनके ही दृष्टिकोण से होने चाहिए, चाहे अभिनेता बड़े हों या बच्चे.
दुर्भाग्यवश हमारे यहां बाल रंगमंच केवल गर्मियों की छुट्टियों तक ही सिमट कर रह गया है. उस दौरान ऐसी सरकारी, गैरसरकारी कार्यशालाओं की बाढ़ आ जाती है. उसके बाद सब लोग इन गतिविधियों को अगले साल तक के लिए भूल जाते हैं. कई जगहों पर तो इन कार्यशालाओं में अनुभवी अध्यापक तक भी नहीं होते.
बतौर नेमीचंद्र जैन हमारे यहां बच्चों के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह तीसरे-चौथे दर्जे का चलताऊ काम ही होता है. इन कार्यशालाओं का यही फायदा होता है कि वर्कशॉप करने से अभिभावकों को कुछ समय के लिए बच्चों की देख-रेख से मुक्ति मिल जाती है और रंगकर्मियों को कुछ धन मिल जाता है.
स्कूलों में अभी तक बाल रंगमंच को शामिल नहीं किया जा सका है. सरकारें इस तरफ देखना भी नहीं चाहती हैं. हालांकि, अभिभावकों के दबाव और कुछ अलग करने की कोशिश में कुछ निजी विद्यालयों में प्रशिक्षक नियुक्त भी किये गये हैं. किंतु उससे कुछ विशेष लाभ होता नहीं दिखता. उनके लिए बाल रंगमंच महज एक खानापूर्ति भर है, जिसके जरिये वे दूसरे तरह के लाभकारी उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहते हैं. सरकारी स्कूलों में तो इसकी आहट तक नहीं सुनायी देती.
अगर कहीं शुरू भी किया जा रहा है, तो उनके पास लागू करने की कोई नीति या समझ नहीं है. अधिकतर स्कूलों में ऐसे शिक्षक भर्ती किये जाते हैं, जिनको बाल रंगमंच का कोई अनुभव ही नहीं होता.
इधर इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है और यहां पर्याप्त नाट्य विद्यालय भी नहीं हैं. अगर कहीं इक्का-दुक्का हैं भी, तो बाल रंगमंच तो उनके यहां अस्पृश्य ही है. रानावि ने त्रिपुरा में एक साल का बाल रंगमंच में प्रशिक्षण पाठ्यक्रम शुरू भी किया है.
किंतु अभी तक उसका कुछ असर नजर नहीं आ रहा है. हो सकता है आगे जाकर इसके कुछ फायदे नजर आएं. इसके अलावा जो लोग/समूह बाल रंगमंच में काम कर रहे हैं, उनको बढ़ावा देने की भी जरूरत है, खाली स्कूलों में लागू होनेभर से ही सब नहीं हो पायेगा.
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