उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ और आपदा को एक वर्ष होने वाला है लेकिन जिन इलाकों में इसका प्रभाव रहा, वे अभी तक इससे उबर नहीं सके हैं.
2013 के जून महीने में बादल फटने और भारी बारिश से उठे हुए सैलाब के निशान आज भी साफ़ दिखते हैं.
ऋषिकेश से केदारनाथ-बद्रीनाथ को जाने वाली सड़क पर ट्रैफ़िक नहीं के बराबर है.
जो थोड़ा बहुत है भी उसमें से ज़्यादा का ठिकाना हेमकुंठ साहब है.
लाखों की तादाद में हर वर्ष इन दो बड़े धामों के लिए आने वालों के मन में ख़ौफ़ जैसे बैठ सा गया है.
एक वर्ष पूरे होने पर भी पांच हज़ार से ज़्यादा ऐसे लोगों का पता नहीं लग सका जो इस आपदा के समय केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुंड या दूसरी जगहों पर फँस गए थे.
करीब एक लाख ऐसे ही भाग्यशाली थे, जिन्हें भारतीय सेनाओं ने सुरक्षित निकाल लिया था.
‘पेट कैसे भरें’
देवों की भूमि कही जाने वाली इस जगह में आज भी सड़कें मरम्मत को मोहताज हैं.
बगल में तेज़ धार से बहती मंदाकनी, अलकनंदा और भागीरथी नदियों ने पहाड़ों को चीरते हुए अपने साथ जो मलबा बहाया था वो आज भी बिखरा दिखता है.
उजड़े हुए घरों की मरम्मत अब भी नहीं हो सकी है और आधे से ज़्यादा पुल टूट कर नदियों के आगे नतमस्तक पड़े हैं.
इस आपदा की ज़्यादा मार झेल रहे हैं उत्तराखंड में गढ़वाल इलाके के स्थानीय लोग.
धर्मशालाएं और चाय-नाश्ते के होटल वीरान पड़े हैं और होटलों के कर्मचारी बाहर सड़कों पर रास्ते से गुज़रती गाड़ियों को हाथ हिलाकर अपने यहाँ न्यौता देते दिखाई पड़ते हैं.
गुप्तकाशी में एक होटल के मालिक ने मुझसे कहा, "4,000 का कमरा आपको 1,200 रुपए में देंगे, लेकिन हमारे यहां ही रुकिए".
रुद्रप्रयाग से दोनों धामों की ओर जाने वाली सड़क पर एक बड़ी धर्मशाला है.
सुजान सिंह बिष्ट इसमें आठ वर्षों से काम कर रहे हैं.
उन्होंने बताया, "पिछले साल 16 मई से जो धर्मशाला खाली हुई है तो आज तक दो से ज़्यादा तीर्थयात्री नहीं आए. हमें तो यहीं रहना है, पेट कैसे भरें".
पिछले साल आपदा के तुरंत बाद जब मैं खुद इसी रास्ते पर आया था तो पहाड़ों से बच कर नीचे आने वालों का तांता लगा था.
इस सीज़न में न तो बसें भरी हुई हैं और न ही टैक्सियां.
विकल्पों की कमी
गुप्तकाशी वह जगह है जहाँ से केदारनाथ का सीधा रास्ता जाता है. इस छोटे से खूबसूरत शहर में अब सन्नाटा पसरा हुआ है.
टैक्सी स्टैंड पर सिर्फ एक जीप दिखी और उसके चालक सुरेश नेगी ने उम्मीद से मेरी तरफ देखा.
कहने लगे, "तीन दिन से एक भी सवारी नहीं मिली. पहले आलम था एक सीज़न में इतना कमा लेते थे कि जीप का क़र्ज़ तक चुका दिया था. शाम को घर खाली हाथ लौटता हूँ. यह कब तक चलेगा, पता नहीं".
सरकार और राहत एजेंसियां पिछले करीब एक वर्ष से क्षतिग्रस्त इलाकों में मूलभूत सुविधाओं को सामान्य करने में जुटी हैं लेकिन इस आपदा इतने भीषण पैमाने पर आई थी कि कई इलाकों में अभी भी मदद सिर्फ़ नाम को पहुंच सकी है.
रुद्रप्रयाग के आगे नई सड़क का निर्माण तो हुआ है लेकिन इस राजमार्ग पर काम या नौकरी करके गुज़ारा करने वालों के हाथ अभी भी तंग हैं.
पूर्णानंद भट्ट का गांव रुद्रप्रयाग से 12 किलोमीटर आगे था जिसे मंदाकनी बहा ले गई.
वर्षों से राजमार्ग पर चाय का ढाबा चलाने वाले पूर्णानंद के पास अब विकल्पों की कमी होती जा रही है.
उन्होंने कहा, "पहले ढाबे पर चार लड़के मदद के लिए काम करते थे अब एक की भी तनख्वाह निकालनी मुश्किल हो रही है. मेरा अपना बेटा बीमार रहता है. इस बुढ़ापे में खाने को मोहताज हो जाएंगे अगर ऐसे ही ठंडा रहा सब कुछ".
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