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सार्क : मकसद और चुनौतियां

-नॉलेज डेस्क नयी दिल्ली- नरेंद्र मोदी सरकार के आज होनेवाले शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों/ शासनाध्यक्षों को भी आमंत्रित किया गया है. सभी सार्क देशों ने भारत सरकार के इस निमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया है. भारत की इस पहल को सार्क देशों के […]

-नॉलेज डेस्क नयी दिल्ली-

नरेंद्र मोदी सरकार के आज होनेवाले शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों/ शासनाध्यक्षों को भी आमंत्रित किया गया है. सभी सार्क देशों ने भारत सरकार के इस निमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया है. भारत की इस पहल को सार्क देशों के बीच संबंध बेहतर बनाने की दिशा में एक नयी शुरुआत माना जा रहा है. सार्क के गठन की पृष्ठभूमि से लेकर उसके अब तक के सफर और मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में इस संगठन की प्रासंगिकता पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

पिछली शताब्दी में, 1980 के दशक में भारत और इसके पड़ोसी देश कई प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहे थे. भले ही संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले दुनिया के तमाम देश एक सूत्र में जुड़े हुए थे, और वैश्वीकरण की अवधारणा को व्यापक बनाने की दिशा में कई देश आगे बढ़ रहे थे, लेकिन इस बीच कई ऐसे क्षेत्रीय संगठनों का भी उदय हो रहा था, जो क्षेत्रीय हितों को पूरा करने के लिए गठित किये जा रहे थे. इनमें यूरोपियन यूनियन (इयू), नॉर्थ अमेरिका फ्री ट्रेड एरिया (नाफ्टा), द एसोसिएशन ऑफ साउथ इस्ट एशियन नेशंस (आसियान) जैसे क्षेत्रीय संगठन शामिल हैं. दुनियाभर में वैश्वीकरण और क्षेत्रवाद के सिद्धांतों की व्याख्या करने के बाद दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में पहल की जरूरत महसूस की गयी. यानी दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय शांति और सहयोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए एक संगठन की जरूरतों को समझा गया.

इसी संदर्भ में सार्थक पहल करते हुए बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने 2 मई, 1980 को दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग के लिए एक ढांचे की स्थापना का प्रस्ताव रखा. दरअसल, जियाउर रहमान ने ही आसियान की भांति दक्षिण एशिया में भी एक क्षेत्रीय संगठन के विचार को स्वरूप दिया और दिसंबर, 1977 में भारत यात्र के दौरान तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से इस मामले पर चर्चा भी की थी. इसके बाद नेपाल के तत्कालीन महाराजा बीरेंद्र भी इस मुहिम से जुड़े.

1985 में सार्क की स्थापना

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की स्थापना 7-8 दिसंबर, 1985 को ढाका में प्रथम सार्क सम्मेलन में की गयी थी. इस संगठन की पहल ऐसे देशों को औपचारिक रूप से एक साथ लाने के लिए की गयी थी, जो पहले से ही ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तौर पर आपस में जुड़े हुए थे. स्थापना के वक्त इस संगठन में बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान शामिल थे. बाद में वर्ष 2007 में संगठन के आठवें सदस्य के तौर पर अफगानिस्तान को भी इसमें शामिल किया गया.

इस संगठन की स्थापना इस मकसद से की गयी थी कि तेजी से बढ़ती आपसी संबंधों पर निर्भर दुनिया में शांति, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और आर्थिक समृद्धि के उद्देश्य आपसी समझ-बूझ, पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध और सार्थक सहयोग से ही प्राप्त किये जा सकते हैं. गरीबी उन्मूलन, आर्थिक और सामाजिक विकास तथा ज्यादा से ज्यादा जनसंपर्क इस संगठन के मुख्य उद्देश्य थे.

इस संगठन की स्थापना के मकसद से निर्धारित पहले सम्मेलन में पारित ‘सार्क चार्टर’ में दक्षिण एशिया की जनता के कल्याण को बढ़ावा देने, आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति में तेजी लाने, आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति में सक्रिय सहयोग बढ़ाने, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग बढ़ाने, साझा सहयोग के मामलों में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहयोग मजबूत करने तथा ऐसे ही उद्देश्यों और प्रयोजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग करने के मुख्य उद्देश्य शामिल हैं. भारत ने इस संगठन की गतिविधियों में सक्रिय सहयोग दिया है तथा व्यापार और अन्य आर्थिक गतिविधियों, सामाजिक और तकनीकी सहयोग को तेजी से बढ़ाया है. इसके अलावा, भारत इस क्षेत्र में और अधिक पारस्परिक समझ और सद्भाव विकसित करने के लिए जनता के बीच पारस्परिक संपर्क का सक्रिय समर्थन करता रहा है.

भारत इस संगठन का ऐसा एकमात्र सदस्य है, जिसकी चार देशों के साथ साझी जमीनी सीमा है और दो देशों के साथ साझी समुद्री सीमा है. पाकिस्तान-अफगानिस्तान को छोड़ दें तो सार्क के किसी अन्य देश की किसी दूसरे देश के साथ साझी सीमा नहीं है. व्यापार, वाणिज्य, निवेश आदि के संदर्भ में भारत, संभावित निवेश और तकनीक का स्नेत है तथा अन्य सभी सार्क सदस्यों के उत्पादों के लिए एक प्रमुख बाजार है.

गरीबी उन्मूलन के लिए लक्ष्य

गरीबी उन्मूलन का मसला दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी चुनौती है. 12वें सम्मेलन के अधिदेश के अनुसार, गरीबी उन्मूलन संबंधी स्वतंत्र दक्षिण एशियाई आयोग ने तीन प्रमुख कारकों- दक्षिण एशिया विशिष्टता, सहस्नब्दि विकास लक्ष्यों का निर्धारित अंतरराष्ट्रीय लक्ष्यों से संबंध और लक्ष्यों की प्रक्रिया और परिणामों पर ध्यान देने के महत्व (उदाहरण के लिए मातृत्व स्वास्थ्य के लक्ष्य के परिणाम को प्रभावित करने के लिए कुशल दाइयों की संख्या बढ़ाना) को ध्यान में रखते हुए सार्क विकास लक्ष्य तैयार किये हैं. गरीबी उन्मूलन संबंधी स्वतंत्र दक्षिण एशियाई आयोग ने आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण के अधिदेशित क्षेत्रों में 2005-2010 की अवधि के लिए सार्क विकास लक्ष्य तैयार करने के लिए 22 प्राथमिक लक्ष्यों की सिफारिश की है.

आतंकवाद का उन्मूलन

वर्ष 1987 में आतंकवाद के उन्मूलन के संबंध में सार्क क्षेत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे. इस समझौते को अपडेट बनाये रखने तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नवीनतम विकास के अनुरूप बनाने के लिए 12वें सार्क सम्मेलन में आतंकवाद संबंधी अतिरिक्त प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर किये गये थे. सार्क सदस्य राष्ट्रों ने आतंकवादी कार्यो के लिए धन मुहैया कराने को रोकने और आतंकवाद से लड़ने के प्रति वचनबद्धता व्यक्त की. इसके तहत उम्मीद की गयी कि सभी सदस्य राष्ट्र इस समझौते और अतिरिक्त प्रोटोकाल का समर्थन करेंगे तथा कारगर कानून बनायेंगे, ताकि आतंकवाद से लड़ाई में सहयोग के लिए एक प्रभावी साधन साबित हो सके.

इस संगठन ने 19 अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग समझौते किये हैं. इनमें संयुक्त राष्ट्र की अनेक एजेंसियां, यूरोपीय आयोग, विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक शामिल हैं. साथ ही जापान, कनाडा और जर्मनी के साथ भी सहयोग समझौते किये गये. सार्क के साथ सहयोगी समझौते करने में अन्य देशों और क्षेत्रीय संगठनों ने भी अधिक रुचि दिखायी है. अगले वर्ष यानी 2015 में सार्क अपनी स्थापना के 30 वर्ष पूरा कर लेगा.

पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध के लिए बेहतरीन संकेत दिये हैं मोदी ने

देश के नवनियुक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में ‘सार्क’ देशों के राष्ट्राध्यक्षों क ो भी आमंत्रित किया गया है. पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध कायम करने की दिशा में यह एक अच्छी पहल मानी जा रही है. भारत की विदेश नीति और सार्क के लिहाज से इस पहल के विभिन्न पहलुओं पर रक्षा मामलों के जानकार सुशांत सरीन से बात की कन्हैया झा ने. पेश हैं मुख्य अंश.

सुशांत सरीन

रक्षा मामलों के जानकार

-नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करने के क्या हैं निहितार्थ?

इसके जरिये नरेंद्र मोदी ने दुनिया को यह संकेत देने की कोशिश की है कि भविष्य में वे अपने पड़ोसी देशों से किस तरह के संबंध बनाना चाहते हैं. कहा जा सकता है कि इस मामले में वे काफी हद तक सफल भी रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे प्रचार अभियान के दौरान जिस तरह से मोदी के समर्थन में प्रचार और उनके खिलाफ दुष्प्रचार किया जा रहा था, उससे आगे बढ़ते हुए मोदी ने साबित कर दिया है कि उनमें कुछ करने की इच्छाशक्ति है. मोदी की यह एक अच्छी कूटनीतिक पहल है, जिसके माध्यम से उन्होंने पूरी दुनिया को यह संदेश देने में कामयाबी पायी है कि वे अपने पड़ोसियों को साथ लेकर चलना चाहते हैं. सभी के साथ मिल-जुल कर और सभी से संपर्क को बढ़ावा देना उनकी पहली प्राथमिकता है, ऐसा उन्होंने जता दिया है.

दूसरी बात, पड़ोसियों से रिश्तों की राह में जहां कई समस्याएं हैं, वहीं उनके साथ मिल कर आगे बढ़ने में अनेक अवसर भी मौजूद हैं, जिनका हमें फायदा हो सकता है. अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस देश के साथ हमारा जुड़ाव किस तरह का है और उसमें आगे क्या मोड़ आयेंगे. फिलहाल पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रण इस बात की ओर भी इशारा करता है कि पड़ोसियों को लेकर हम कितने संजीदा हैं और हमारी प्राथमिकताओं में पड़ोसियों के साथ बेहतर रिश्ते भी हैं. देखा जाये तो बांग्लादेश की अपनी समस्याएं हैं, श्रीलंका की अपनी समस्याएं हैं. इन देशों से बेहतर संपर्क कायम होने पर ही यह समझा जा सकेगा कि उनकी अपनी किस तरह की समस्याएं हैं, जिन्हें सुलझाने में भारत मददगार साबित हो सकता है. सबसे बड़ी बात है देशों के बीच वन-टू-वन कॉन्टेक्ट. पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों का ऐसे मौके पर जुटना से रिश्तों की प्रगाढ़ता में अहम भूमिका निभा सकता है. इस मौके पर भेंट-मुलाकात के दौर में राष्ट्राध्यक्षों को अपनी ओर से कुछ खास तरह की चीजों को लेकर पहल करने का मौका भी मिलता है, जिसे एक सरकार की ओर से उठाये गये कदम से इतर यानी राष्ट्राध्यक्ष के विशेष प्रभाव के प्रयासों के तौर पर देखा जाता है. हालांकि, इस तरह की पहल में कुछ पेचीदगियां भी हैं, जिसे राष्ट्राध्यक्षों को राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर मैनेज करना होता है.

-भारत की विदेश नीति के लिहाज से ‘सार्क’ को मजबूती प्रदान करने से क्या-क्या फ ायदे हो सकते हैं?

सबसे पहली बात कि सार्क के सदस्य देश हमारे पड़ोसी हैं. वैसे अभी संगठन को मजबूत करने की दिशा में किसी तरह की खास पहल शायद नहीं होगी, द्विपक्षीय स्तर की बातचीत पर ही ज्यादा जोर रहेगा. यहां आनेवाले सभी राष्ट्राध्यक्ष शायद एकसाथ नहीं बैठेंगे, इसलिए सार्क के बारे में ज्यादा बातें नहीं हो पायेंगी और सार्क पर इसका कोई खास असर नहीं पड़नेवाला.

हां, इतना जरूर होगा कि इन देशों के साथ भारत के संबंध मजबूत होंगे. एक प्रकार का नया संपर्क कायम होगा, जो आगे चल कर संवाद की प्रक्रिया में बेहतर भूमिका निभा सकता है.

-सार्क संगठन अपने गठन के मकसद में अब तक कितनी कामयाबी हासिल कर सका है?

यह संगठन अपने गठन के मकसद में अब तक कोई बहुत ज्यादा कामयाबी हासिल नहीं कर पाया है. इसका मूलभूत मकसद आर्थिक सुधारों के संदर्भ में था, जिसमें उपलब्धि के नाम पर कोई खास कामयाबी नहीं मिल पायी है. एक सार्क यूनिवर्सिटी को छोड़ कर वैसा कुछ भी इस संगठन से नहीं हासिल हो पाया है, जैसा कि यूरोप में यूरोपियन यूनियन के संदर्भ में कहा जा सकता है.

हां, सार्क के तहत कुछ व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर जरूर हुए हैं, पर इससे भी कुछ खास हासिल नहीं हो पाया है. व्यापारिक लेन-देन की प्रक्रिया में बहुत सी बाधाएं हैं. इन देशों के बीच एक प्रकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. आज सार्क देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिसका असर धीरे-धीरे बहुपक्षीय वार्तालाप के तौर पर सामने आ सकता है.

-मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में सार्क के सामने प्रमुख चुनौतियां क्या-क्या हैं और इन चुनौतियों से निबटने के क्या-क्या उपाय किये जा सकते हैं?

सबसे बड़ी चुनौती विकास को लेकर है. दूसरी बड़ी चुनौती आंतरिक संपर्को को लेकर है. सार्क देशों के बीच लोगों की आवाजाही, सामानों-उत्पादों की आवाजाही आज भी एक बड़ी चुनौती है. इस मायने से देखा जाये, तो ऐसा कहा जा सकता है कि इस संगठन का कोई अर्थ नहीं है, यानी यह अस्तित्व में ही नहीं है. इन देशों के बीच सुरक्षा को लेकर भी आपसी भरोसे की स्थिति बहुत कम देखी गयी है. इसलिए सुरक्षा की चुनौती भी प्रतीत होती है. आपसी संबंधों के लिहाज से सुरक्षा की चुनौती को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा सकता है. व्यापार के लिए सुरक्षा जरूरी तत्व है. वीजा लेने में देरी होने से कारोबार प्रभावित होता है. कई बार देखा जाता है कि सार्क देशों के बीच किसी खास तरह के कारोबारी अवसर सामने आने की स्थिति में अकसर वीजा आड़े आती है और समय पर यह न हासिल होने से दोनों ही देशों को तात्कालिक व्यापारिक अवसर से हाथ धोना पड़ता है. कारोबार में तात्कालिकता जरूरी है. किसी देश में उत्पाद या सामान की जरूरत एकबारगी होने पर उसे तत्काल मुहैया कराने की स्थिति में वीजा में देरी कारोबार को प्रभावित करती है. वीजा देने की प्रक्रिया में इतनी जांच-पड़ताल की जाती है कि तब तक बहुत देर हो जाती है. इसलिए इस तरह के मामलों को प्राथमिकता से निबटाना होगा.

सार्क सचिवालय

सार्क का सचिवालय नेपाल की राजधानी काठमांडु में स्थित है. यह सचिवालय अन्य क्षेत्रीय संगठनों के साथ इसके सदस्य देशों और संगठनों के बीच एक चैनल की भांति संवाद की भूमिका निभाता है और गतिविधियों के कार्यान्वयन एवं उनकी निगरानी में सहयोग करता है. साथ ही, किसी तरह की बैठक के आयोजन में अपनी ओर से सेवाएं मुहैया कराता है.

सार्क सचिवालय का मुखिया सेक्रेटरी जनरल होता है. इसकी नियुक्ति सदस्य देशों के मंत्री परिषद द्वारा वर्णानुक्रम (अल्फाबेटिकल ऑर्डर) में तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए की जाती है. सार्क के मौजूदा सेक्रेटरी जनरल नेपाल के अजरुन बहादुर थापा हैं. सेक्रेटरी जनरल को कार्यो में सहयोग के लिए सदस्य देशों की ओर से डेपुटेशन यानी प्रतिनियुक्ति पर आठ निदेशक नियुक्त किये जाते हैं. सार्क सचिवालय व देश हर वर्ष आठ दिसंबर को सार्क चार्टर दिवस आयोजित करते हैं.

सार्क देशों के बीच सहयोग के मामले

– कृषि एवं ग्रामीण

– बायोटेक्नोलॉजी

– संस्कृति

– आर्थिक एवं व्यापार

– शिक्षा

– ऊर्जा

– पर्यावरण

– वित्त

– फंडिंग मेकेनिज्म

– सूचना, संचार एवं मीडिया

– लोगों के बीच आपसी संपर्क

– गरीबी उन्मूलन

– विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

– सुरक्षा से जुड़े मामले

– सामाजिक विकास

– पर्यटन

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