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गणतंत्र के 68 वर्ष : हमने क्या खोया-पाया

प्रह्लाद चंद्र दास, लेखक स्तंभकार आज देश के 69वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर जब हम इसका आकलन करते हैं कि इस लंबी अवधि में हमने क्या खोया, क्या पाया तो एक मिश्रित अनुभूति होती है. यहां ‘क्या खोया’ एक गलत प्रश्न लगता है. क्योंकि, खोया तो वह जाता है, जो पहले से प्राप्त हो. […]

प्रह्लाद चंद्र दास, लेखक स्तंभकार

आज देश के 69वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर जब हम इसका आकलन करते हैं कि इस लंबी अवधि में हमने क्या खोया, क्या पाया तो एक मिश्रित अनुभूति होती है. यहां ‘क्या खोया’ एक गलत प्रश्न लगता है. क्योंकि, खोया तो वह जाता है, जो पहले से प्राप्त हो. हमारी आजादी और हमारा गणतंत्र, दोनों ही नये थे. इसलिए हमने पाया-ही-पाया. अवश्य ही, लेकिन जो जितना और जैसा पाना चाहिए था, वह नहीं पाया. आजादी मिली, गणतंत्र स्थापित हुआ. इस आजादी और गणतंत्र को अक्षुण्ण रख पाये, यह सबसे बड़ी उपलब्धि है. पिछले 25 वर्षों से सीमा पार से जारी छद्म युद्ध और घरेलू तथा विदेशी आतंकवाद को झेलते हुए भी हम देश के धर्मनिरपेक्ष कलेवर और अनेकता में एकता को बनाये रख पाये हैं.
हमारा वाइव्रेंट प्रजातंत्र विश्व पटल पर एक स्पर्धात्मक उदाहरण के रूप में मौजूद है. पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभ भाई पटेल के जमाने से अन्ना हजारे के आंदोलन से गुजरते हुए, अनेक मतभेदों के बावजूद, हमारा स्पंदित प्रजातंत्र हमें आश्वस्त करता है. हमने कई बार सत्ता बदली, पर अन्य देशों की तरह खून-खराबे और शोर-शराबे के बीच नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण ढंग से अपने मताधिकारों का प्रयोग करते हुए.
जन साधारण के लिए जारी किये गये विशेष कार्यक्रम संविधान की मूल भावना के अनुरूप समस्त नागरिकों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को इंगित करते हैं. प्रधानमंत्री सड़क योजना, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, आश्रम और चिकित्सा का अधिकार, मनरेगा आदि कुछ ऐसे ही कार्यक्रम हैं. हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम हमारी ऐसे ही उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत हुए हैं. वर्ष 1975 में आर्यभट्ट से शुरू कर के आज हम विश्व के कुछ चुनिंदा महाशक्तियों की श्रेणी में आ गये हैं.
भारत ने 20 से अधिक देशों के साथ अंतरिक्ष कार्यक्रमों के समझौते किये हैं. हमारा मंगल अभियान विश्व का सबसे किफायती अभियान था. यह एक वैसे देश के लिए कम गौरव की बात नहीं है, जो हरित क्रांति के पहले तक, खाद्यान्न के मामले में दूसरे देशों पर निर्भर करता था. हमारे नाभिकीय और प्रवेक्षण कार्यक्रम भी हमें गौरव प्रदान करते हैं. अग्नि, पृथ्वी, आकाश, नाग तथा ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्रों के माध्यम से हम विश्व के अग्रणी देशों की श्रेणी में शामिल हो गये हैं. इनके अलावा हमारे लोक उपक्रम, नदी, घाटी योजनाएं, आणविक तथा ताप विद्युत घर आदि बड़ी उपलब्धियों में गिने जा सकते हैं. लेकिन, इस दौरान कुछ ऋणात्मक पहलू भी अपने ओर फैले हैं. भ्रष्टाचार इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है. कार्यपालिका, विधायिका और अब तो न्यायपालिका में भी इसकी खबरें आने लगी हैं. इसके विरुद्ध अन्ना हजारे का आंदोलन व्यर्थ गया-सा लगता है.
जनसंख्या का विस्फोट हमारी एक और बड़ी समस्या के रूप में खड़ी है. हम इसे नियंत्रित कर पाने में सफल नहीं हो सके हैं और अभी 125 करोड़ की गिनती से अधिक में आ गये हैं. गरीबी और अशिक्षा की यह एक बड़ी वजह है. बेरोजगारी की भी एक बड़ी वजह यह विशाल जनसंख्या तो है ही, लेकिन उपलब्ध संसाधनों से इस दिशा में जितना कुछ किया जा सकता था, वह भी नहीं किया जा सका है. इससे युवाओं में असंतोष और आक्रोश फैल रहा है. वे गलत दिशा में कदम बढ़ाने को विवश होने लगे हैं. चुनाव में बाहुबल और पैसे के दुरूपयोग ने इसे विकृत कर दिया है. येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने की होड़ ने, राजनीति का अपराधीकरण कर दिया है.
सामाजिक बुराइयों को शमन करने की दिशा में हमारे पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है. कुछ क्षेत्रों में यह भयावह ढंग से उभर कर सामने आयी है. जातीय भेदभाव की वृद्धि हुई है, दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं. उनके साथ मारपीट और उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है. जातीयता और प्रांतीयता का जहर हवा में घुलना जारी है. व्यक्ति अपनी पहचान भारतीय के रूप में नहीं कर बंगाली, बिहारी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ आदि के रूप में बताते हैं. इससे आगे आने पर वे विभिन्न जातियों में बंटे नजर आते हैं. जातीय सेनाओं की आक्रामकता तो चिंतित करने वाली है.
इस दौरान हमारे अन्नदाता किसानों की अवस्था बद से बदतर होती गयी है. ऋण से ग्रस्त, भूखे और अतिवृष्टि, बाढ़ आदि की भार झेलते हुए किसान आत्महत्या कर रहे हैं. दूसरी तरफ अति साधारण रकम के ऋण के लिए उन्हें जान देनी पड़ रही है. विस्थापन की समस्या का अभी तक कोई कारगर समाधान नहीं निकल सका है. विस्थापितों के लिए समुचित रोजगार तथा आश्रय की व्यवस्था का नितांत अभाव है. इसे नक्सलवाद की पृष्ठभूमि में जोड़ कर देखा जा सकता है. आज स्त्रियां, लड़कियां अपने को पहले से अधिक असुरक्षित महसूस करने लगी है और बलात्कार की घटनाएं आम है. ऊपर से हमारे नेताओं के दुर्भाग्यपूर्ण बयान हमें हतोत्साहित करते हैं.
जिस बंधुत्व और भाईचारे की बात हमारे संविधान की प्रस्तावना में की गयी है. सांप्रदायिकता के उभार ने उस पर बड़े प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिये हैं. धार्मिक कट्टरता डराने वाली है. इसी के पुछल्ले के रूप में उभरे गौरक्षकों की जमात, निर्दोष लोगों पर आक्रमण कर रही है. उत्तर प्रदेश के एंटी रोमियो स्क्वैड सरीखे संगठन इसी आक्रामकता की संतति है. किसी देश को विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए विज्ञान और तर्क ही साधन होते हैं. लेकिन इधर अंधास्था के वश मिथों को इतिहास बताया जा रहा है. इतिहास का पुनर्लेखन भी इसी आधार पर किया जा रहा है. पाठ्यक्रमों में इन्हें शामिल करने की मुहिम दुर्भाग्यपूर्ण संकेत हैं.
जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात हमारे संविधान की मूल भावना में है, इस पर अतिक्रमण जारी है. सेमिनारों, लेखों, कार्टूनों, वक्तव्यों पर पाबंदियों लगायी जाने लगी है. संविधान देश को सौंपते हुए बाबा साहब आंबेडकर ने जो संशय जाहिर किया था, वह अब सच साबित होने लगा है. संविधान की सफलता/विफलता इसे लागू करने वालों की मंशा और प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है. दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से कुछ जिम्मेदार लोग संविधान को बदलने की बातें भी करने लगे हैं. यह खतरे की निशानी है. हमें इसका प्रतिकार करना चाहिए.
Prabhat Khabar Digital Desk
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