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नि:स्वार्थ भक्ति से ही पा सकते हैं परमपुरुष का प्रेम

कुछ लोग बड़े-बड़े मंदिर और तीर्थ यात्रियों के लिए बड़े विश्राम गृह बनाकर सोचते हैं कि वे भगवान के प्रति अपना प्रेम दिखा रहे हैं, तो वे झूठे, व्यर्थ और पाखंडी हैं. कोई भी व्यक्ति इतनी आसानी से ईश्वर का प्रेम प्राप्त नहीं कर सकता.

जिनके पास ईश्वर प्रेम है- भगवान के लिए आंतरिक प्रेम है – वे अपने रास्ते से कंकड़-पत्थर हटा लेते हैं, इसे साफ व स्वच्छ बना लेते हैं. भक्ति मार्ग पर चलने वालों में ऐसा साहस स्वतः ही आ जाता है – वे भयाक्रांत नहीं होते. वृंदावन में बांसुरी बजाने वाले कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में हथियार उठाये. भक्त कुछ भी और सब कुछ करने में सक्षम होता है. एक ओर वह घोर यातना सह सकता है और दूसरी ओर वह नाच-गा सकता है, आनंद मना सकता है.

उसके लिए जीवन खिले हुए फूलों के समान है.वह अपने जीवन के हर पहलू से आनंद प्राप्त करने में सक्षम होता है. अन्य लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं, क्योंकि दुष्टता और पाप के कारण उनका मन आनंद को नष्ट कर देता है. कुछ लोग अपने धन से बड़े-बड़े मंदिर और तीर्थ यात्रियों के लिए बड़े विश्राम गृह बनाकर सोचते हैं कि वे भगवान के प्रति अपना प्रेम दिखा रहे हैं, तो वे झूठे, व्यर्थ और पाखंडी हैं. बेईमानी से कमाये गये धन का दान देने से शोषक अपने पापों को कभी नहीं ढंक सकता. कोई भी व्यक्ति इतनी आसानी से ईश्वर का प्रेम प्राप्त नहीं कर सकता.

प्रेम कैसे व्यक्त किया जाता है? जब कोई सभी आसक्तियों और संपत्ति से मुक्त होता है. ममता का क्या अर्थ है? मम का अर्थ है- मेरा और इस प्रकार ममता मेरे होने का आंतरिक विचार है. यह भावना कि कुछ मेरा अपना है. परमपुरुष (विष्णु) को छोड़कर कोई किसी को अपना होने के बारे में नहीं सोचता है. इस आध्यात्मिक दृष्टिकोण को प्रेम कहा जा सकता है. जिसने इस प्रकार परमपुरुष को अपना मान लिया है, उसे परमपुरुष में सब कुछ मिल जाता है और अंततः ऐसे भक्त के नियंत्रण में सब कुछ आ जाता है.

प्रेम यह है कि परमपुरुष के सिवाय कुछ भी अपना नहीं है. उनकी ममता से सब कुछ पूर्ण हो जाता है. हर कोई उनकी निकटता को महसूस करेगा और उनसे वही व्यवहार प्राप्त करेगा, जो उनके निकटतम लोग करते हैं. वह सबको अपनी गोद में ले लेगा और कहेगा, “चिंता मत करो, मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं”. दुनिया को व्यापक दृष्टि से देखने के लिए हर चीज को परमपुरुष की अभिव्यक्ति के रूप में देखना भक्तों का प्रेम है. भक्त के गुणों में से एक भाव है प्रेम. भाव का अर्थ प्रत्येक इकाई को परमपुरुष की अभिव्यक्ति के रूप में देखना है. इसमें किसी पाखंड के लिए कोई गुंजाइश नहीं. यह लौकिक विचार (भाव) कुछ सूक्ष्म वृत्तियों के साथ मन को आध्यात्मिकता की ओर ले जाता है.

जब कोई अपने आकर्षण को ईश्वर की ओर मोड़ता है, तो वह भक्ति है और जब उसे किसी अन्य वस्तु की ओर मोड़ता है, तो वह आशक्ति है. यदि किसी का लगाव किसी अति-मानसिक या आध्यात्मिकता की ओर होता है, तो इसे प्रेम कहते हैं. ईश्वरीय प्रेम में लीन रहनेवाले भक्त किसी का शोषण या अहित करने के बारे में सोच भी नहीं सकते. ईश्वर की ओर प्रवाहित यह सतत प्रवाहमान मानसिक विचार सर्वोच्च मानवीय उपलब्धि है. (प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत)

Prabhat Khabar News Desk
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