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जूट संकट का सबसे भारी बोझ ढो रहे मजदूर

पश्चिम बंगाल के जूट बेल्ट में हालात ऐसे बन चुके हैं कि काम करने की इच्छा होने के बावजूद मजदूरों को घर बैठाया जा रहा है

कोलकाता. भारतीय जूट उद्योग में गहराता संकट अब पूरी तरह मजदूर-केंद्रित संकट का रूप ले चुका है. कच्चे जूट की भारी कमी, बेकाबू कीमतें और नीति-गत असमंजस का सबसे बड़ा खामियाजा जूट मिलों के श्रमिकों और उनके परिवारों को भुगतना पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल के जूट बेल्ट में हालात ऐसे बन चुके हैं कि काम करने की इच्छा होने के बावजूद मजदूरों को घर बैठाया जा रहा है

बैठकें हुईं, मजदूरों को राहत नहीं

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रभारी जूट आयुक्त पिछले दो दिनों तक कोलकाता में रहे और विभिन्न बैठकों के माध्यम से संकट की समीक्षा की. इसके अलावा राज्य के श्रम मंत्री ने जूट आयुक्त कार्यालय और राज्य कृषि विभाग के साथ बैठक कर रोजगार पर पड़ रहे असर पर चर्चा की. लेकिन ट्रेड यूनियनों और मजदूर प्रतिनिधियों का कहना है कि इन बैठकों से मजदूरों को कोई तत्काल राहत नहीं मिली. न तो बंद मिलों के मजदूरों के लिए कोई रोजगार सुरक्षा योजना घोषित हुई. न ही आंशिक रूप से चल रही मिलों में न्यूनतम कार्यदिवस सुनिश्चित किये गये. जमाखोरी के खिलाफ ठोस प्रवर्तन कार्रवाई अब तक ज़मीन पर नहीं दिखी.

अफवाहों से और बिगड़े हालात

बाजार में कच्चे जूट की कीमत सीमा, नयी मिलों और व्यापारियों पर सख्त स्टॉक लिमिट जैसी अफवाहों ने स्थिति को और खराब कर दिया है. इन अटकलों के चलते व्यापारी जूट बाजार में लाने से बच रहे हैं. इसका सीधा असर फिर से मजदूरों पर पड़ रहा है. जूट नहीं, तो काम नहीं.

केंद्र-राज्य टकराव का शिकार मजदूर

जूट उद्योग से जुड़े श्रमिक संगठन मानते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल की कमी ने मजदूरों को सबसे बड़ा शिकार बना दिया है. एक यूनियन के नेता ने कहा कि अगर केंद्र और राज्य एकजुट होकर काम करते, तो आज मजदूरों को घर नहीं बैठना पड़ता. केंद्र और राज्य के टकराव का शिकार मजदूरों को होना पड़ रहा है.

नयी फसल अभी बहुत दूर

स्थिति इसलिए भी भयावह है क्योंकि नयी जूट फसल की वास्तविक आवक जुलाई 2026 नहीं, बल्कि मध्य अगस्त 2026 के बाद ही संभव मानी जा रही है. यानी अगले कई महीनों तक मजदूरों के सामने लगातार बेरोजगारी का खतरा बना रहेगा. वह भी ऐसे समय में जब राज्य चुनाव नजदीक हैं. इस बीच सवाल उठ रहे है कि जूट बेल्ट में आज एक ही सवाल गूंज रहा है. क्या मजदूरों की रोजी-रोटी की कीमत पर यह संकट यूं ही चलता रहेगा?

ट्रेड यूनियनों और श्रमिक प्रतिनिधियों का कहना है कि यदि तत्काल डि-हॉर्डिंग, कच्चे जूट का न्यायसंगत वितरण, बंद मिलों के मजदूरों के लिए रोज़गार सुरक्षा उपाय, और केंद्र-राज्य की संयुक्त कार्रवाई नहीं हुई, तो यह संकट केवल उद्योग का नहीं रहेगा. बल्कि लाखों जूट मजदूर परिवारों के सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व का संकट बन जायेगा.

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